स्वतन्त्रता संग्राम में आर्य समाज की भूमिका

-डॉ. रवि प्रकाश

भारत जब आजाद नहीं हुआ था उस समय देश में कई कुरीतियां और अन्य सामाजिक बुराइयाँ देश में फैली हुई थी। इन बुराईयों और कुरीतियों को दूर करने के लिए कई नेताओं ने तरह-तरह के आंदोलन चलाए। ऐसे ही एक सुधारवादी आंदोलन और कार्यक्रम की शुरूआत स्वामी दयानन्द सरस्वती ने की थी। यह आंदोलन पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू समाज में सुधार के लिए प्रारंभ हुआ था। आर्य समाजी शुद्ध वैदिक परम्परा में विश्वास करते थे तथा झूठे कर्मकाण्ड व अंधविश्वासों को अस्वीकार करते थे। इसमें छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया गया तथा स्त्रियों व शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने और वेद पढ़ने का अधिकार दिया गया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है- ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’, जिसका अर्थ है- विश्व को आर्य (श्रेष्ठ) बनाते चलो।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 12 अप्रैल, 1875 को मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी। आर्य समाज जैसे जागरूक मंच से उन्होंने देश में फैली कुरीतियों को जड़ से उखाड़ फेंकने के साथ-साथ गुलामी की बेड़ियों से जकड़ी मातृभूमि को विदेशियों से मुक्त कराने का आहान किया। स्वामी दयानन्द ने अपने सिद्धान्तों को व्यावहारिकता देने, अपने धर्म को फैलाने तथा भारत व विश्व को जाग्रत करने के लिए जिस संस्था की स्थापना की उसे ’आर्य समाज’ कहते हैं। ‘आर्य’ का अर्थ है भद्र एवं ‘समाज’ का अर्थ है सभा, अतः आर्य समाज का अर्थ है ‘भद्रजनों का समाज’ या  ‘भद्रसभा’।

आगे चलकर व्यवहार के स्तर पर आर्य समाज में दो धाराएं चली। एक वर्ग दयानन्द एंग्लो वैदिक कालेज की विचारधारा की ओर चला और दूसरे ने ‘गुरूकुल’ की राह पकड़ी। यह उल्लेखनीय है कि देश के स्वतंत्रता-संग्राम में आर्य समाज ने संस्था के रूप में तो नहीं, पर सहसंस्था के अधिकांश प्रमुख सदस्यों ने व्यक्तिगत स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

देश की स्वतन्त्रता में आर्य समाजियों की भूमिका अग्रणी रही है। स्वतंत्रता आंदोलन में आर्य वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी। महर्षि दयानन्द जी ने अपने ग्रन्थ आर्याभिविनयः में लिखा है- “अन्य देशवासी राजा हमारे देश में न हों, हम लोग पराधीन कभी न रहे”। इससे पता लगता है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती की क्या भावना थी।

राष्ट्र के संगठन के लिए जाति-पांति के झंझटों को मिटाकर एक धर्म, एक भाषा और एक समान वेषभूषा तथा खान-पान का प्रचार किया। आज हिन्दी भारत राष्ट्र की राजभाषा बन चुकी है। किन्तु पूर्व में जब हिन्दी का कोई विशेष प्रचार न था, उस समय महर्षि दयानन्द ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने की घोषणा की, स्वयं गुजराती तथा संस्कृत के उद्भट विद्वान होते हुए भी उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों की हिन्दी में रचना की थी। दीर्घकालीन दासता के कारण भारतवासी अपने प्राचीन गौरव को भूल गये थे इसलिए महर्षि दयानन्द ने उनके प्राचीन गौरव और वैभव का वास्तविक दर्शन करवाया।

सन् 1857 के पश्चात के क्रांतिकारियों पर महर्षि दयानन्द सरस्वती का अत्यंत प्रभाव था। क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, भाई परमानन्द, सेनापति बापट, मदनलाल धीगंड़ा इत्यादि जैसे शिष्यों ने स्वाधीनता आन्दोलन में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इंग्लैण्ड में भारत की स्वतन्त्रता के लिए जितने प्रयास हुए वह श्याम जी कृष्ण वर्मा के ‘इण्डिया हाऊस’ से हुए। अमेरिका में भारत की स्वाधीनता के लिए जो प्रयास हुए, वे भाई परमानन्द के समर्पण और सहयोग का फल है। डी.ए.वी. कालेज लाहौर में इतिहास और राजनीति के प्रोफेसर जयचन्द्र विद्यालंकार पंजाब के क्रांतिकारियों के मार्गदर्शक रहे हैं।

प्रसिद्ध क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह के दादा जी सरदार अर्जुन सिंह विशुद्ध आर्य समाजी थे। और इनके पिता श्री किशन सिंह भी आर्य समाजी थे, भगत सिंह के विचारों पर भी आर्य समाज के संस्कारों की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है। सांडर्स को मारकर भगत सिंह आदि पहले तो लाहौर के डी.ए.वी. कालेज में ठहरे, फिर योजनाबद्ध तरीके से कलकत्ता जाकर आर्य समाज में शरण ली और आते समय आर्य समाज के चपरासी तुलसीराम को अपनी थाली यह कहकर दे आये थे कि “कोई देशभक्त आये तो उसको इसी में भोजन करवाना”। दिल्ली में भगत सिंह, वीर अर्जुन कार्यालय में स्वामी श्रद्धानन्द और पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति के पास ठहरे थे क्योंकि उस समय ऐसे लोगों को ठहराने का साहस केवल आर्य समाज के सदस्यों में ही था।

स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व लगभग सभी स्थानों मे ऐसी स्थिति थी कि कांग्रेस के प्रमुख कार्यक्रताओं को यदि कहीं आश्रय, भोजन, निवास आदि मिलता था, तो वह किसी आर्यसमाजी के घर में ही मिलता था। सरकार के डर से प्रायः दूसरे लोग आश्रय देने का साहस ही न कर पाते थे। हैदराबाद दक्षिण में निजाम सरकार के विरूद्ध (सत्याग्रह चलाकर) जनता के हितों की रक्षा केवल आर्यसमाजियों ने की है। पंजाब केसरी लाला लाजपत राय प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता थे। राजस्थान केसरी कुंवर प्रताप सिंह वारहट, पं. राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, विष्णुशरण और उनके साथी पक्के आर्य समाजी थे, इनके सम्बन्ध में श्री मन्मथ नाथ गुप्त ने जो स्वयं क्रांतिकारी थे, ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 13 जुलाई 1858 के अंक में लिखा था। फांसी के बाद राजेन्द्र लाहिड़ी के शव का तो आर्यसमाजियों ने जुलूस निकाला था तथा सम्मानपूर्वक उसकी अन्तयेष्टि भी की थी। इसी प्रकार के और भी अनेक उदाहरण मिलते हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि देश की स्वतन्त्रता की लड़ाई में आर्य समाज ने बढ़-चढ़कर हिस्सा ही नहीं लिया अपितु नेतृत्व भी किया है। नेता जी सुभाष के द्वारा आजाद हिन्द सेना का निर्माण और कार्य इतिहास में एक गौरवशाली स्वर्णिम अध्याय है। उक्त सेना के तीन प्रमुख नायकों में से सहगल आर्यसमाजी परिवार की ही देन थे। उनके पिता महाशय अछरू राम जी जाने माने आर्यसमाजी तथा कानूनविद थे। जब लाल किले में इस सेना पर अभियोग चला, तब इनके बचाव पक्ष के वकीलों की जो कमेटी बनी थी, उसमें बख्सी टेकचन्द तथा दीवान बदरी दास के रूप में आर्यसमाज ने योगदान करके अपनी राष्ट्रनिष्ठा को व्यक्त किया था। इसके अतिरिक्त सामान्य सैनिक के रूप में इस सेना में भर्ती होकर योगदान करने वाले आर्यसमाजियों की संख्या अनगिनत है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सशस्त्र क्रान्तिकारी दल के माध्यम से भी आर्यसमाज देश की स्वाधीनता के लिए प्रयत्न करने वाले देशभक्तों की मुहिम में अग्रिम पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है। जिसका फल 15 अगस्त 1947 की स्वतन्त्रता के रूप में सामने आता है।

स्वदेशी प्रचार, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, अछूतो को गले लगाने का कार्य, गोरक्षा, शिक्षा-प्रसार, स्त्री शिक्षा, विधवा उद्धार आदि सभी श्रेष्ठ कार्यों में आर्य समाज अग्रणी रहा है। देश-धर्म के लिए जो भी आन्दोलन और सत्याग्रह हुए हैं उनमें आर्य जन सबसे आगे रहे हैं। आर्य समाज ने देश में अनेक सुधार कार्य किए जिनकी वजह से आज आर्य समाज को देश और विदेश में काफी सम्मान प्राप्त है। देश को आज भी ऐसे ही एक आंदोलन की जरूरत है, जो देश में नैतिकता की लहर ला सके।

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(लेखक चौधरी बंसी लाल विश्वविद्यालय, भिवानी-हरियाणा में इतिहास विभाग के अध्यक्ष है।)

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