स्वामी श्रद्धानन्द – भारतीय संस्कृति के गौरव के संरक्षक

  – डॉ० अश्वनी कुमार

स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म 2 फ़रवरी सन् 1856 (फाल्गुन कृष्ण त्र्योदशी, विक्रम संवत् 1913) को पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता लाला नानक चन्द, ईस्ट ईण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम वृहस्पति और मुंशीराम था, किन्तु मुन्शीराम सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ।पिता का ट्रान्सफर अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। लाहौर और जालंधर उनके मुख्य कार्यस्थल रहे। एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे। पुलिस अधिकारी नानकचन्द अपने पुत्र मुंशीराम को साथ लेकर स्वामी दयानन्द का प्रवचन सुनने पहुँचे। युवावस्था तक मुंशीराम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। लेकिन स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया।

मुंशीराम की बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था अपने पिता के साथ व्यतीत होती रही। इन्होने बनारस के क्वींस कॉलेज, जय नारायण कॉलेज और प्रयाग के म्यो कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की थी। वंश परम्परा के अनुसार इनके धर्म-कर्म एवं भक्ति का विशेष प्रभाव था। विश्वनाथ जी के दर्शन किये बिना ये जलपान तक नही करते थे। बांदा में ये नियमित रामचरितमानस का पाठ सुनते थे और प्रत्येक आदित्यवार को एक पैर पर खड़े होकर सौ बार हनुमान चालीसा का पाठ करते थे। उनका विवाह श्रीमती शिवा देवी के साथ हुआ था। जब आप ३५ वर्ष के थे तभी शिवा देवी स्वर्ग सिधारीं। उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं। सन् १९१७ में उन्होने संन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए।

उनका सामाजिक जीवन रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में प्रारम्भ हुआ। अच्छी-खासी वकालत की कमाई छोड़कर स्वामीजी ने ‘दैनिक विजय’ नामक समाचार-पत्र में ‘छाती पर पिस्तौल’ नामक क्रान्तिकारी लेख लिखे। स्वामी जी महात्मा गांधी के सत्याग्रह से प्रभावित थे। जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड तथा रोलेट एक्ट के विरोध में हिंसा से करने में कोई बुराई नहीं समझते थे। वे इतने निर्भीक थे कि जनसभा करते समय अंग्रेजी फौज व अधिकारियों को ऐसा साहसपूर्ण जवाब देते थे कि अंग्रेज भी उनसे डरा करते थे। उन्होंने सन 1922 में गुरु का बाग सत्याग्रह के समय अमृतसर में एक प्रभावशाली भाषण दिया। हिन्दू महासभा उनके विचारों को सुनकर उन्हें प्रभावशाली पद देना चाहती थी, किन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। आर्य समाज के सिद्धान्तों का समर्थक होने के कारण उन्होंने इसका बड़ी तेजी से प्रचार-प्रसार किया। वे नरम दल के समर्थक होते हुए भी ब्रिटिश उदारता के समर्थक नहीं थे।

स्वामी श्रद्धानन्द अब दयानन्द सरस्वती के रास्ते पर चल पड़े एवं उनके कामों को पूरा करने का प्रण लिया। अपनी जीवन गाथा में उन्होंने लिखा था- “ऋषिवर! कौन कह सकता है कि तुम्हारे उपदेशों से निकली हुई अग्नि ने संसार में प्रचलित कितने पापों को दग्ध कर दिया है। परंतु अपने विषय में मैं कह सकता हूं कि तुम्हारे सत्संग ने मुझे कैसी गिरी हुई अवस्था से उठाकर सच्चा लाभ करने योग्य बनाया।” स्वामी श्रद्धानन्द अपना आदर्श महर्षि दयानंद को ही मानते थे। महर्षि दयानंद के महाप्रयाण के बाद उन्होंने स्वदेश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, अनुसूचित वर्ग उत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखंड खंडन, अंधविश्वास उन्मूलन और धर्मोत्थान के कार्यों को आगे बढ़ाने के कार्य किए।

वर्ष 1901 में स्वामी श्रद्धानन्द ने अंग्रेज़ों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान ‘गुरुकुल’ की स्थापना की। हरिद्वार के कांगड़ी गांव में ‘गुरुकुल विद्यालय’ खोला गया। इस समय यह मानद विश्वविद्यालय है, जिसका नाम ‘गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय’ है। महात्मा गाँधी उन दिनों अफ़्रीका में संघर्षरत थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गुरुकुल के छात्रों से 1500 रुपए एकत्रित कर गाँधी जी के पास भेजे। गाँधी जी जब अफ़्रीका से भारत लौटे तो वे गुरुकुल पहुंचे तथा महात्मा श्रद्धानन्द तथा राष्ट्रभक्त छात्रों के समक्ष नतमस्तक हो उठे। गाँधी जी ने श्रद्धानन्द को महात्मा श्रद्धानन्द कहकर पुकारा।

स्वामी श्रद्धानन्द ने अनुसूचित वर्ग की भलाई के कार्य को निडर होकर आगे बढ़ाया, साथ ही कांग्रेस के स्वाधीनता आंदोलन का बढ़चढ़कर नेतृत्व भी किया। कांग्रेस में उन्होंने 1919 से लेकर 1922 तक सक्रिय रूप से महत्त्‍वपूर्ण भागीदारी की। 1922 में अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया, लेकिन उनकी गिरफ्तारी कांग्रेस के नेता होने की वजह से नहीं हुई थी, बल्कि वे सिक्खों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए सत्याग्रह करते हुए बंदी बनाये गए थे।स्वामी श्रद्धानन्द कांग्रेस से अलग होने के बाद भी स्वतंत्रता के लिए कार्य लगातार करते रहे। हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए स्वामी जी ने जितने कार्य किए, उस वक्त शायद ही किसी ने अपनी जान जोखिम में डालकर किए हों। वे ऐसे महान् युगचेता महापुरुष थे, जिन्होंने समाज के हर वर्ग में जनचेतना जगाने का कार्य किया।

स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती जिन्होंने जीवनभर देश की आजादी के लिए आंदोलनों में भाग लिया तथा एक क्रान्तिकारी की भूमिका निभाई। इन्होने अपने जीवन को संन्यासी जीवन को के रूप में ढाला। ये अछूतों के हितेषी वक्ता थे। देश की इस महान विभूति के अछूतों को सहयोग करने के कारण कट्टर मुस्लिम अब्दुल रशीद नामक व्यक्ति ने छल कपट कर स्वामी श्रद्धानन्द की गोली मारकर हत्या कर दी। 23 दिसम्बर 1926 को अछूतों के मसीहा स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती इस संसार को अलविदा कर गये।

(लेखक गुरुकुल कांगड़ी मानद विश्वविद्यालय, हरिद्वार में औषधि विज्ञान विभाग में प्रोफेसर है।)

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