स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन दर्शन

✍ धर्मवीर

स्वामी दयानंद सरस्वती जी का नाम अग्रणी समाज सुधारकों में आता है। उनके बचपन का नाम मूल शंकर था। स्वामी जी ने वेदों का प्रचार किया, इसके प्रचार के लिए ही मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की, “वेदों की ओर लौटो’ ऐसा एक नारा भी स्वामी जी ने दिया जो वेदों के प्रचार व प्रसार का प्रतीक बन गया।

जन्मस्थान टंकारा (गुजरात), व जन्मतिथि 12 फरवरी, 1824 को इस पुण्यात्मा का अवतरण इस पवित्र भारत भूमि पर हुआ। मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण आपका नाम मूलशंकर रखा गया। इनके पिता का नाम अंबाशंकर तिवारी था। इनका मत था कि ब्राह्मण ज्ञान का उपासक होता है। और दानी वही होता है जो अज्ञानी को ज्ञान देता है।

इनके समय भारत देश परतन्त्र था। अंग्रेजों के शासन के अधीन था। समाज में विदेशी वस्तुओं का प्रचलन था। अंग्रेजों ने बहुत सारी चीजें भारतीयों पर जबरदस्ती थोपी हुई थी। समाज के लोगों में भय व्याप्त था। समाज के लोगों में मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती थी। लोग अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करते थे, इसलिए कहीं न कहीं अंधविश्वास, कुरीतियाँ समाज में व्याप्त थी जो दिनोंदिन वृद्धि कर रही थीं। इन्होंने अपनी आवाज बुलंद करते हुए सामाजिक व राजनीतिक दोनों ही विचारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। सर्वप्रथम उन्होंने स्वराज्य का उद्घोष किया, ऐसा करके स्वामी जी ने भारतीय जन-जीवन में नवचेतना का संचार किया जिससे राजनीतिक स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि तैयार हुई। ‘विशासन’ तथा ‘स्वराज्य’ की पुकार सर्वप्रथम महर्षि दयानंद के द्वारा उठाई गई थी। जिस समय लोग अंग्रेजों के सामने कुछ भी बोलने में संकोच करते थे, उस समय स्वामी जी ने निडरता से अपनी ये मांगे उठाई थी।

स्वामी जी के विचार राष्ट्रवादी थे। उन्होंने कहा था- “भारत पर गर्व करो, प्राचीन वैदिक संस्कृति का अनुसरण करो। इन्हीं विचारों का स्वामी दयानन्द ने सम्पूर्ण जनता में प्रचार किया। वे जनता में स्वतन्त्रता के प्रति जागरण लाए।

मुस्लिम काल और ईसाई धर्म प्रचारकों ने पास्परिक फूट, शिक्षा की कमी, जीवन में अशुद्धता, धर्म से विमुखता तथा अन्य धार्मिक कुरीतियों के कारण भारत का पतन हुआ था। स्वामी जी ने समाज में व्याप्त सभी कुरीतियों और पतन से उभारने का कार्य किया। स्वदेशी वस्तुओं से प्रेम का आग्रह भी स्वामी ने भारतीय लोगों को किया। आगे चलकर गाँधी जी ने इस विचार को और आगे बढ़ाया। जोधपुर के तत्कालीन नरेश ने स्वामी जी से प्रभावित होकर स्वदेशी अपनाकर विदेशी वस्तुओं का परित्याग किया।

स्वामी जी भारत में लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे, जिसका स्पष्ट उल्लेख उन्होने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में किया है। स्वामी जी का मानना था कि लोकतंत्र में ही व्यक्ति के अधिकारों और कर्तव्यों में सही संतुलन स्थापित हो सकता है इसलिए उन्होंने अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में लोकतंत्र के निर्माण, स्वरूप शासन तथा न्याय संबंधी ‘धारणाओं’ की विवेचना की है।

स्वामी जी के चिंतन और मनन में तीन आदर्श समान रूप से देखे जा सकते हैं जिन पर वर्तमान लोकतंत्र आधारित है। वे हैं- स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा । स्वामी जी के लोकतंत्र में वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति और लिंग के आधार पर समानता की बात की है। उनके लोकतंत्र का मूल आधार ‘मनुस्मृति’ है।

राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन भी स्वामी जी ने किया है। उन्हें अपनी प्रान्तीय भाषा, गुजराती विशेष प्रिय थी लेकिन राष्ट्रवादी होने के कारण प्रांत की संकुचित सोच उनके हृदय में घर नहीं कर पाई और राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर तथा राष्ट्रीयता को प्रोत्साहित करने हेतु अपनी समस्त टीकाएं एवं ग्रंथ हिन्दी में ही लिखे।

स्वामी जी सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखते थे। सभी धर्मों के प्रति प्रेम रखते थे। स्वामी जी धार्मिक एकता के आधार पर विश्व एकता चाहते थे। समाज से स्वामी जी ने जातीय भेदभाव, ऊँच-नीच की भावना, बाल विवाह, सती-प्रथा जैसी कुरीतियों को दूर किया। उन्होंने प्रयास किया कि नारी जाति शिक्षित हो।

जाति प्रथा के विरोध के साथ-साथ अनेक कुप्रथाओं का विरोध भी स्वामी जी ने किया।  बाल्यकाल में जब मंदिर में बैठे बैठे रात हो गई तो रात को मंदिर में मूर्ति के सामने रखे प्रसाद को चूहे खा रहे थे, ऐसा देखकर उन्होंने उस दिन से मूर्ति पूजा नहीं की और मूर्तिपूजा का विरोध किया। नारी अधिकारों के रक्षक का कार्य भी स्वामी जी ने किया। आर्य भाषा और शिक्षा का प्रचार भी प्रचुर मात्रा में स्वामी जी ने अपनी राष्ट्रवादी सोच, चिंतन के कारण निशदिन किया। राजनीति के क्षेत्र में भी इन्होने बहुत कुछ किया। श्री अरविन्द घोष का कथन है-” स्वामी दयानंद में राष्ट्रीयता की भावना थी। उस अनुभूति को उन्होंने राष्ट्रीय भावना के संदर्भ में ज्योतिर्मय बना दिया। उनकी कृतियां भले ही कितनी ही मान्यताओं से भिन्न हों, वास्तव में राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत है।”

बम्बई में आर्य समाज की स्थापना 10 अप्रैल, 1875 को करके स्वामी जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण एवं दूरदर्शिता का कार्य किया। उनके पश्चात भी यह संस्था उनके विचारों का सर्वत्र प्रचार कर रही है। उन्हें कार्यरूप में परिणत कर रही है। यह संस्था आज भी भारतीय समाज को जागृत रखने का महत्वपूर्ण कार्य उत्तरदायित्व के साथ कर रही है।

आर्य समाज की स्थापना का उद्देश्य भी एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण करना ही था। एक ऐसा समाज जो अपने बलबूते पर ही सारा कार्य करे, स्वावलंबी बने, आत्मनिर्भर भारत बने और आज भारत आत्मनिर्भर बनने के उस मार्ग पर निरंतर अग्रसर है। स्वामी जी के ऐसे कार्यों से यही अनुभव आता है कि वे बहुत बड़े समाज सुधारक, राष्ट्रभक्त, धर्म रक्षक, ईश्वरीय व्रती थे। रोम्मा रोलां ने भी आर्य समाज के कार्य का सच्चा विश्लेषण करते हुए उसे उचित रूप से बहुत सराहा है। उनके अनुसार “आर्य समाज उस समय राष्ट्रीय पुनर्जागरण एवं राष्ट्रीय चेतना के महत्त्वपूर्ण कार्य में महत्त्वपूर्ण शक्ति थी। स्वामी जी ने राष्ट्रीय संगठन एवं निर्माण पुननिर्माण के लिए यह महान कार्य किया। स्वामी जी के आर्य समाज ने 1905 के बंगाली राष्ट्रवादी आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया।” आज भी आर्य समाज विभिन्न अवसरों पर विभिन्न समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने का कार्य विभिन्न प्रकार से विभिन्न क्षेत्रों में कर रहा है।

(लेखक चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय भिवानी में सहायक प्रोफेसर है।)

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