– नम्रता दत्त
वर्तमान समय में शिक्षा जगत में ‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020’ की चर्चा अधिकांशतः हो रही है। सन् 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के 17 वर्ष पश्चात् शिक्षा पर चिन्तन करने के लिए सन् 1964-66 में एक आयोग (दौलत सिंह कोठारी आयोग) का गठन किया गया। आयोग के द्वारा प्रस्तावित प्रपत्र के अनुसार 24 जुलाई 1968 में भारत की प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गई। उस समय की तत्कालिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आयोग ने मुख्यतः 23 संस्तुतियों को आधार बनाया। जिसमें एक सुझाव (विशेषकर शिशु शिक्षा की दृष्टि से) यह भी दिया गया कि 01 से 03 वर्ष की ‘पूर्व प्राथमिक शिक्षा’ दी जाए अर्थात् अधिकतम 03 वर्ष की आयु से शिशु शिक्षा प्रारम्भ की जाए।
मई 1986 में (18 वर्ष पश्चात्) मानव संसाधन मंत्रालय ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति का एक प्रपत्र प्रकाशित किया तथा इसी में आंशिक संशोधन कर 1992 में पुनः राष्ट्रीय शिक्षा नीति को शिक्षा जगत को सोंपा गया। इन दोनों प्रपत्रों में विशेषकर उच्च शिक्षा पर चिन्तन किया गया।
राष्ट्र के विकास के हित में मानवीय सम्पदा को सम्पन्न बनाने की दृष्टि से समय-समय पर इस पर विचार एवं चिन्तन कर योजना बनाई गई। परिणाम स्वरूप भारत (राष्ट्र) विकासशील देशों की श्रृंखला से निकलकर विकसित देशों की श्रृंखला में भौतिकता की दृष्टि से अग्रसर भी हो रहा है। लेकिन यह विकास संकुचित है। शिक्षा का पर्याय मात्र इतना ही नहीं है।
इस संदर्भ में विचार करने के लिए हमें सिंहावलोकन करने की आवश्यकता है कि वास्तव में राष्ट्र क्या है और शिक्षा क्या है? तथा शिक्षा का प्रारम्भ किस अवस्था से किया जाए? हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि शिक्षा द्वारा व्यक्तित्व निर्माण में 90 प्रतिशत भूमिका अनौपचारिक शिक्षा की है तो मात्र 10 प्रतिशत भूमिका औपचारिक शिक्षा की होती है क्योंकि 90 प्रतिशत व्यक्तित्व निर्माण शैशवावस्था (0 से 05 वर्ष) में ही हो जाता है।
राष्ट्र क्या है? सामान्य भाषा में राष्ट्र कोई भू-खण्ड मात्र नहीं है। यह एक जीवन्त इकाई है। इस भू-खण्ड पर रहने वाला जन समूह ही इसे जीवन्त बनाता है। जब उस भू-खण्ड पर रहने वाला जन समूह अपनी संस्कृति, परम्पराओं, इतिहास एवं जीवन मूल्यों के प्रति जुड़ाव एवं समर्पण का अनुभव करते हैं तब ही राष्ट्र जीवन्त इकाई बनता है। यही राष्ट्रीय जीवन दर्शन कहलाता है और शिक्षा तब ही सार्थक सिद्ध होती है जब राष्ट्रीय जीवन दर्शन उसमें अन्तर्निहित होता है वरना हमने सुना है कि “यूनान, मिश्र, रोम सब मिट गए जहां से…..।”
राष्ट्रीय जीवन दर्शन को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित करने का एक मात्र माध्यम शिक्षा (अनौपचारिक एवं औपचारिक) ही है। यदि इसके इस पक्ष पर विचार नहीं किया जाएगा तो स्थिति यूनान, मिश्र, रोम जैसी हो सकती है।
भारत विश्व गुरु रहा है। अतः शिक्षा को यहां विस्तृत संदर्भ में जाना और माना जाता है। तो आइए संक्षेप में भारतीय, शिक्षा को किस स्वरूप में देखते हैं इस पर भी दृष्टि डाल लेते हैं –
शिक्षा क्या है? – शिक्षा का अर्थ है सीखना और सीखाना है।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार – मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों की पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।
महात्मा गांधी जी के अनुसार – शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक अथवा मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क एवं आत्मा के सर्वोत्तम अंश की अभिव्यक्ति है।
अरस्तु के अनुसार – स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण करना ही शिक्षा है।
जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार – शिक्षा वह है जो मुक्ति दिलाए। ‘सा विद्या या विमुक्तये’। (यही विद्या भारती का ध्येय वाक्य है)।
शिक्षा विकास की वह प्रक्रिया है जिसमें मानव शैशवावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसमें वह भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक वातावरण के साथ-साथ विभिन्न प्रकार का शनै शनै अनुकूलन करता है अर्थात् व्यष्टि से परमेष्टि तक का विकास करना ही शिक्षा है।
क्रमशः कोठारी आयोग हो या 1968 तथा 1986 अथवा 1992 की शिक्षानीति हो, सभी ने शिक्षा के लिए तीन वर्ष की आयु का विचार पूर्व प्राथमिक शिक्षा की दृष्टि से किया हैं । शब्द, ‘पूर्व प्राथमिक शिक्षा’ से ही यह स्पष्ट हो रहा है कि इसके केन्द्र में प्राथमिक शिक्षा ही समाहित है। जबकि शिक्षा का प्रारम्भ अर्थात् सीखने और सीखाने की नींव 0 (शून्य) से ही प्रारम्भ हो जाती है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में इस विषय को प्रथम बार स्वीकार किया है (NEP-1.3 का अवलोकन करें)। इसलिए इसी शिक्षा नीति को ‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ (2020) कहा गया है।
वास्तव में शिक्षा शैशवावस्था से नहीं अपितु शिशु के जन्म से भी पूर्व (जब दम्पति, माता-पिता बनने का विचार करते हैं) प्रारम्भ हो जाती है।
इस श्रृंखला के अगले सोपान में शिशुशिक्षा की वर्तमान अवधारणा एवं शिशु शिक्षा की भारतीय संकल्पना विषय पर अध्ययन एवं चिन्तन करेंगे।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
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