✍ वासुदेव प्रजापति
यूरोप ने पाँच सौ वर्ष पूर्व सम्पूर्ण विश्व का यूरोपीकरण करने का बीड़ा उठाया था। पूरे विश्व में छा जाने हेतु यूरोप के देशों ने विश्व का प्रवास शुरु किया था। लूट की शक्ति और यूरोपीकरण की इच्छा इनके प्रेरक तत्त्व बने थे। इनके प्रयत्नों से अमेरिका व आस्ट्रेलिया का यूरोपीकरण हो गया। अफ्रीका जैसे देशों को गुलाम होना पड़ा और शेष दुनिया की जीवन शैली यूरोपीय बन गई। विश्व के लिए यूरोपीय जीवन दृष्टि आधारित मानक बन गए और विश्व संस्थाओं के माध्यम से वे स्थापित हो गए।
भारत की स्थिति भी लगभग ऐसी ही हुई। यूरोप का आक्रमण झेलना पड़ा, गुलाम भी हुए, लूटमार और अत्याचार भी सहे, भारतीय शिक्षा का यूरोपीकरण हो गया और भारतीय धर्म व संस्कृति का रक्षक कोई नहीं रहा। सन् 1947 में अंग्रेजों ने हमें गुलामी से मुक्त कर दिया, सत्ता हमारे हाथ में आ गई परन्तु सभी व्यवस्थाएँ तो वे ही चल रही हैं। आजादी से पहले जो व्यवस्थाएँ अंग्रेज चलाते थे, अब भारत के लोग उन्हीं अंग्रेजी व्यवस्थाओं को चला रहे हैं। इसलिए सरकार,धर्माचार्य व विश्वविद्यालय निराश और हताश हो गए हैं। यूरोपीय जीवन दृष्टि विविध स्वरूपों में प्रकट होकर सूक्ष्म रूप धारण कर सभी क्षेत्रों में व्याप्त हैं। सूक्ष्म का अर्थ स्थूल से अधिक व्यापक तथा प्रभावी होता है। अर्थात् यूरोपीय जीवन दृष्टि है तो अदृश्य परन्तु समर्थ और व्यापक बनकर आन्तरिक रूप में छाई हुई है। देहधारी धर्माचार्य, कुलपति, शासक और व्यापारी आदि उससे अपने-अपने क्षेत्र का रक्षण नहीं कर पा रहे हैं, स्थिति इतनी भयावह बनी हुई है। इस स्थिति में भारत को पुनः भारत बनाना कैसे सम्भव होगा? अतः देश यह जानना चाहता है कि आशा की किरण कहाँ है और विश्व कल्याण के लिए भारत को कौन भारत बनाएगा?
आशा सामान्य भारतीय से
अनेक बार ऐसे अनुभव आते हैं कि जब समर्थ लोग हतबल हो जाते हैं तब सामान्य लोग काम आते हैं। जब बुद्धिमानों की बुद्धि जवाब दे देती है तब अनपढ़ व्यक्ति मार्ग सुझा देता है। जब सेनापति दिग्भ्रमित हो जाता है तो सामान्य सैनिक उपाय निकाल देता है। आज भारत को सही अर्थ में भारत बनाना है, इस कार्य में बड़े-बड़े समर्थ लोग हार गए हैं तब सामान्य लोगों में ही आशा की किरण जगानी होगी, इन सामान्य लोगों को जगाने की प्रक्रिया क्या होगी? हम इसका विचार करें और मार्ग निकालें।
भारत का धर्म सनातन है। इसकी संस्कृति चिरन्तन है। भारत की चिति अभी तिरोहित नहीं हुई है। भारत प्राचीनों से प्राचीन और अर्वाचीनों से अर्वाचीन है। भारत अमर है, चिरंजीवी है, यह श्रद्धा भारत के लाखों सामान्य लोगों के हृदयों में दृढ़ मूल है। यह अन्ध श्रद्धा नहीं है, इतिहास ने इसे सत्य सिद्ध किया है। यह श्रद्धा बलवति है, यह भारत की शक्ति है। इस श्रद्धा को जगाकर हम अपने देश भारत को पुनः भारत बना सकते हैं।
धर्मपाल जी लिखते हैं कि…..
अंग्रेजों ने भारत की प्रजा को दो भागों में बाँटा था। जिसमें एक वर्ग छोटा और दूसरा बड़ा था। छोटे वर्ग में देश के 15% लोग थे जबकि बड़े वर्ग में 85% लोग थे। अंग्रेजों ने इस छोटे वर्ग को शिक्षित करके अपने जैसा बनाना चाहा, इसमें वे सफल भी हुए। वे इस वर्ग को ब्रिटिश शासन और जन साधारण के बीच की कड़ी बनाना चाहते थे।
हमारे देश में आज भी ये दो वर्ग विद्यमान हैं। इन दो वर्गों में 15% वाला छोटा वर्ग धनवान है, सत्तावान है, शिक्षित है, इसलिए समर्थ है परन्तु अंग्रेजी व अंग्रेजियत का भक्त है। जबकि 85% वाला बड़ा वर्ग साधारण जनमानस वालों का है, जो इनसे ठीक विपरीत है। उसके पास न धन है, न सत्ता है और न उच्च शिक्षा है। उन्हें जीने के लिए जूझना पड़ता है, इसे पहले वर्ग का मुँह ताकना पड़ता है, यह भी पहले वर्ग जैसा समर्थ बनने का असफल प्रयत्न करता है और सदा निराश होता है।
पहला वर्ग समर्थ तो है परन्तु श्रद्धावान नहीं है। धर्म, संस्कृति व ज्ञान के प्रति न जानकारी है और न निष्ठा और श्रद्धा ही है। इनकी अपेक्षा सामान्य जन हर दृष्टि से कमजोर है परन्तु निष्ठावान और श्रद्धावान है। जानकारी दोनों के पास न के बराबर है। तब भी भारत में भारतीयता की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु सामान्य जन के हृदय की यह श्रद्धा ही समर्थ सिद्ध होगी। बड़े लोगों की अश्रद्धा के सामने छोटे लोगों की अगाध श्रद्धा का सामर्थ्य अधिक परिणामकारी सिद्ध होता है। हम इस श्रद्धा के बल पर भारतीयता की पुनर्प्रतिष्ठा करने में सफल होंगे।
भक्ति व सेवा कार्यों में लगे लोगों द्वारा
भारत में असंख्य मत-पंथों में लाखों-करोड़ों लोग सत्संग, भक्ति व सेवा में लगे रहते हैं। तथाकथित पढ़े-लिखे बड़े लोग तो इनके कामों का मजाक उड़ाते हैं, अथवा यह मानते हैं कि वे अपने किसी स्वार्थ के लिए सेवा करते हैं। इन सेवा करने वाले भक्तों के भाव के बल से भारतीयता की पुनर्प्रतिष्ठा होगी। ऐसे ही लाखों लोग तीर्थयात्रा करते हैं, नंगे पैर पदयात्रा करते हैं। अपनी काँवड़ में गंगा का पवित्र जल भरकर ले जाते हैं और मंदिरों में अभिषेक करते हैं। मेलों व पर्वों में श्रद्धा पूर्वक भक्ति करते हैं। परन्तु धनवानों और सत्तावानों के लिए इन बातों का कोई महत्व नहीं है। इन्हीं निर्धन, सामान्य व अनपढ़ लोगों की इसी श्रद्धा में वह आशा की किरण विद्यमान है।
गोस्वामी तुलसीदास जी के दिए हुए सूत्र – “परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई” को सत्य मानने वाले और उसके अनुसार व्यवहार करने वाले असंख्य लोग भारत में हैं। भले ही वे अनपढ़ हैं, मजदूरी करते हैं और कच्ची झोंपड़ियों में रहते हैं। बड़े लोग इनकी भावना और कृति को नहीं जानते इसलिए इन्हें तुच्छ मानते हैं, परन्तु भारतीयता इनमें अभी भी जीवित है। इसी भारतीयता के बल पर भारत को भारत बनाया जा सकता है।
सांस्कृतिक शिक्षा संगठनों द्वारा
हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में अनेक संगठन कार्यरत हैं। इनमें भारतीय ज्ञान व संस्कृति की शिक्षा देने वाले संगठन भी हैं। परन्तु वे भी पश्चिमीकरण के प्रवाह में बहने के लिए विवश दिखाई दे रहे हैं। इन संगठनों में ऐसे अनेक लोग हैं, जो भारतीयता को प्रतिष्ठित करने की इच्छा रखते हैं। किन्तु उनमें शक्ति व सामर्थ्य नहीं है। उन्हें किसी का सहयोग भी नहीं मिल रहा है इसलिए वे स्वयं को असहाय व असमर्थ मानते हैं। उन सभी लोगों के ज्ञान और भावना के बल पर पुनः भारतीय संस्कृति प्रतिष्ठित हो सकेगी।
देश में अनेक वेद पाठशालाएँ चल रही हैं, अनेक केन्द्र कर्मकाण्ड सिखा रहे हैं। विभिन्न प्रतिष्ठानों में जो उपनिषदों व दर्शनों का अध्ययन होता है, उसी का परिणाम है कि भारतीय ज्ञान धारा का प्रवाह पूर्णतया सूखा नहीं है। यह प्रवाह यूरोपीकरण के कारण अवरुद्ध तो अवश्य हुआ परन्तु इन वेद पाठशालाओं ने उसे सूखने से बचाया है। इन्होंने भारतीय ज्ञान धारा को प्रतिष्ठित करने का जो काम करना चाहिए था वह तो नहीं किया, परन्तु उस ज्ञान धारा को रुकने न देने वाला महापुण्य का काम अवश्य किया है। उनके इस पुण्यबल से भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा अवश्य होगी।
लोकज्ञान के अक्षय स्रोत के बल पर
भारत के अति वृद्धों के पास, कला कारीगरों के पास और गिरिवासियों तथा वनवासियों के पास भारतीय लोक ज्ञान का अक्षय भंडार है। यूरोपीकरण ने उस लोक ज्ञान को मान्यता नहीं दी। परिणामस्वरूप कुछ तो नई पीढ़ी को हस्तांतरित हुआ परन्तु अधिकांश लुप्त हो गया। यह लुप्त ज्ञान तरंगों के रूप में देश की सूक्ष्म देह में विद्यमान रहता है और प्रकट होने के अवसर खोजता है। इस प्रकट और अप्रकट ज्ञान के बल पर भारतीय शिक्षा फिर से आयेगी।
भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन हुए और राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग भी चले हैं। उन सभी आन्दोलनों में अनेक लोगों ने त्याग व साधना की है। यह बात अलग है कि वे आन्दोलन तथा शैक्षिक प्रयोग असफल रहे परन्तु जो त्याग व साधना की पूँजी जमा हुई है उसके बल पर भारतीयता की पुनर्प्रतिष्ठा हो सकेगी।
नवीन शैक्षिक प्रयोगों के द्वारा
आज देश में अनेक ऐसे अभिभावक हैं जो अपनी संतानों को पाश्चात्य शिक्षा नहीं दिलवाना चाहते, वे भारतीय शिक्षा देने के पक्षधर हैं। उन में से कुछ तो अपने बालकों को विद्यालय ही नहीं भेजते, उन्हें घर पर ही पढ़ाते हैं। ऐसे अनेक ‘गृह विद्यालयों’ का नवीन प्रयोग देश में शुरु हुआ है, सैकड़ों की संख्या में ये गृह विद्यालय चल रहे हैं। इन गृह विद्यालयों के लिए ‘होम स्कूलिंग’ शब्द भी प्रचलित है। इनमें अभिभावक स्वयं पढ़ाते हैं, ये उच्च शिक्षित एवं समाज में प्रतिष्ठित लोग हैं, जो भारतीय शिक्षा एवं भारतीयता के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। वे ज्ञान सम्पादन करते हैं, अनुसंधान करते हैं और नये-नये प्रयोग करते हैं।
ऐसे सभी प्रयास व्यक्तिगत हैं इसलिए इन्हें कम लोग जानते हैं। इन प्रयासों को प्रसिद्धि भी नहीं मिलती, क्योंकि ये शिक्षा की वर्तमान पद्धति से हटकर हैं। देश में भारतीय शिक्षा के ऐसे नवीन प्रयोगों के आधार पर भारतीय शिक्षा की पुनः प्रतिष्ठा हो सकेगी। देश में जहाँ-जहाँ भी जिस रूप में ज्ञान साधना व संस्कार साधना हो रही है, उसका पुण्य फल एकत्र हो रहा है। ऐसे पुण्य फल के बल पर भारतीयता की प्रतिष्ठा होगी, ऐसी आशा की किरण दिखाई दे रही है।
हम अपने को पहचाने
पाश्चात्य शिक्षा के परिणाम स्वरूप पुरानी भारतीय पीढ़ी हीनता बोध से ग्रसित है। उनके मानस पटल में अपने देश का एक गौरवशाली चित्र नहीं है, उनमें देश के प्रति स्वाभिमान का भाव भी नहीं है। उनका यह विश्वास भी नहीं है कि भारत ने विश्व को बहुत कुछ दिया है और आज भी दे सकता है और हमारा देश भी विश्व का अग्रणी देश बन सकता है।
यह सही है कि भौतिक सम्पत्ति भारत की तुलना में अमेरिका के पास अधिक होगी। फीनलैण्ड की शिक्षा भारत की शिक्षा से अधिक अच्छी होगी। भारत की तुलना में प्राकृतिक सुन्दरता स्विटजरलैंड में अधिक होगी। कृषि के क्षेत्र में इजरायल भारत से आगे होगा। अपने नागरिकों की आर्थिक सुरक्षा भारत की तुलना में आस्ट्रेलिया की सरकार अधिक अच्छी तरह कर रही होगी। संस्कृत का अध्ययन जर्मनी में भारत से अच्छा होता होगा।
यह सब सही होते हुए भी इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत विश्व में अधिकांश देशों से पीछे है। आज का भारत पिछड़ा नहीं है। यह नया भारत है, चन्द्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुँचने वाला विश्व का पहला देश है। कोरोना काल में सर्वप्रथम कारगर वैक्सीन बनाकर विश्व के अनेक देशों को उस संकट से उभारने वाला संकट मोचक भारत है। भारत आर्थिक दृष्टि से विश्व की पाँचवी शक्ति बन गया है और तीसरी शक्ति बनने की ओर अग्रसर है। भारत में विश्व का मार्गदर्शन करने की क्षमता है, यह उसने जी 20 शिखर सम्मेलन की सफल अध्यक्षता करके सिद्ध किया है। नये भारत के ये बढ़ते कदम निश्चय ही आशा की प्रखर किरण के रूप में दिखाई दे रहे हैं।
इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हमें कुछ करना नहीं पड़ेगा, सब अपने आप हो जायेगा। केवल भावना होना पर्याप्त नहीं होता, भावना के साथ पुरुषार्थ भी चाहिए। आज तो शिक्षा की मुख्य धारा में सम्भावनाएँ कम ही लगती हैं। मुख्य धारा की शिक्षा अनेक प्रकार से अवरुद्ध हो गई है। ये अवरोध हटाने के स्थान पर हमें नए मार्ग खोजने चाहिए। नए मार्गों से प्रवाह शुरु होने के बाद हो सकता है कि बड़े अवरोध दूर हो जाएँ अथवा अप्रस्तुत बन जाएँ। अब समय आ गया है कि हम भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु क्रियाशील हों।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
ओर पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 95 (यूरोपीकरण और साम्यवाद)