✍ प्रोफेसर बाबूराम
विश्व में जीवन यापन की दो दिशाएं हैं – 1. संस्कृतिमूल्क 2. सभ्यतामूलक। भारतवर्ष विश्व के प्राचीनतम देश की अपेक्षा राष्ट्र अधिक रहा है तथा शेष चाहे जो इस्लामिक देश हों या ईसाई मत को मानने वाले हो वह सभ्यतामूलक देश हैं। संस्कृति मानव मूल्यों का एक ऐसा समुच्चय है जो ‘जीयो और जीने दो’ के सिद्धांत की सीमा को भी लांघकर ‘प्राण जाए पर वचन न जाई’ के आदर्शों के साथ जीवन जीने को ही मानव जीवन मानते हैं। सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही भारत ने विदेशी आक्रांताओं और आक्रमणकारियों से लोहा लिया है। मुहम्मद बिन क़ासिम ने भारत पर ही नहीं भारत के मूल्यों पर कुठाराघात किया था। इन हज़ार-बारह सौ वर्षों में भारतवर्ष ने क्रूर सभ्यताओं का सामना अपनी सांस्कृतिक शक्ति और भक्ति से किया परन्तु इन आततायियों को भी भारतीय मूल्यों के सामने झुकना पड़ा। 19वीं-20 वीं शताब्दी में भारतभूमि पर सर्वाधिक शिक्षाविदों और समाज सुधारकों का प्रादुर्भाव हुआ और भारत को रुपाकार देने में अनेक मतों सम्प्रदायों, संगठनों तथा आन्दोलनों की महती भूमिका रही जिनमें सन् 1875 में महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा मुम्बई में स्थापित आर्यसमाज स्थान भी अनन्य है। भारत को नयी गति और मति प्रदान करने में राजा राममोहन राय, महर्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, लोकमान्य तिलक, रवींद्रनाथ ठाकुर, योगी अरविंद, स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा गांधी और स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जैसी महती विभूतियाँ उल्लेखनीय हैं। इन्होंने हिंदू धर्म का पुनरुद्धार करने का सफल प्रयास किया और शिक्षा, धर्म सुधार, समाज सुधार आदि के उद्देश्यों को लेकर भारत में लोक जागरण का शंखनाद किया। स्वामी श्रद्धानंद ने महर्षि दयानंद के कार्यों से प्रभावित होकर उनके कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया और शिक्षा के क्षेत्र में गुरुकुल कांगड़ी तथा गुरुकुल कुरुक्षेत्र के साथ अनेक शैक्षिक संस्थानों की स्थापना की।
आधुनिक भारत के निर्माताओं में इंद्र विद्यावाचस्पति ने अपने पिता से राष्ट्र सेवा के संस्कार ग्रहण करके राष्ट्रभक्ति का प्रचार और प्रसार किया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम काल में जालंधर शहर में एक दिव्यात्मा लाला मुंशीराम के यहां एक पुण्यात्मा इन्द्र विद्यावाचस्पति का जन्म हुआ। समृद्धशाली परिवार में जन्मे इन्द्र पर परिवार के संस्कारों विशेषकर पिता के जीवन और आर्य समाज ने उनके जीवन को बदल कर रख दिया। पिता लाला मुंशीरा का स्वामी श्रद्धांनन्द में परिवर्तन, इन्द्र के जीवन का वह मोड़ था कि उन्होंने जागरण और समाज सेवा का मार्ग चुन लिया और फिर कभी जीवन में मुड़कर नहीं देखा। आर्य समाज जागरण तत्कालीन पंजाब में सामाजिक जागरण का पर्याय बन चुका था। आर्यसमाज के मार्गदर्शन में शिक्षा की गुरुकुलीय व्यवस्था की पुनर्स्थापना के प्रयास किए गए। पिता स्वामी श्रद्धांनन्द द्वारा स्थापित ऐसे ही गुरुकुल में इन्द्र की शिक्षा दीक्षा हुई।
ऐसे संस्कारी वातावरण में पला बढ़ा बालक स्वाभाविक रूप से समाज जागरण और राष्ट्र जीवन की चेतना का साधक बन गया। छात्र जीवन में लिखी पंक्तियाँ उनकी मनोभाव भूमि की परिचायक हैं- “हे मातृभूमि तेरे चरणों में सिर नवाऊँ, मैं भक्ति भेंट अपनी तेरी शरण में लाऊं, तेरे ही काम आंऊ तेरा ही मंत्र गाऊँ, मन और देह तुझ पर बलिदान में चटका चढ़ाऊँ।
युवा इन्द्र ने राष्ट्र आराधन और राष्ट्र सेवा को अपने जीवन का ध्येय लक्ष्य स्वीकार किया। असहयोग आंदोलन के दौर में उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता के विरोध का मार्ग चुना। उनका जीवन अपने आप में राष्ट्रसेवा और समर्पण का ऐसा मानस चित्र है कि दीर्घकाल तक राष्ट्र-साधक उनके जीवन दर्शन से प्रेरणा लेते रहेंगे। उनके जीवन से ग्राह्य बिन्दु इस प्रकार हैं।
मातृ-भाषा हिन्दी के अनन्य सेवक
इंद को दिल्ली क्षेत्र की हिन्दी पत्रकारिता का जनक माना जाता है। हिन्दी के प्रति समर्पण और सेवा-भावना के कारण उन्हें प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन 1948 के सर्वसम्मति से सभापति निर्वाचित हुए। अंग्रेजी सरकार हिन्दी को परास्त करने के लिए हिंदी बनाम हिन्दुस्तानी, हिन्दी बनाम उर्दू के विवाद खडे करने का कार्य कर रही थी। वाचस्पति जी ने साहित्य सम्मेलन आदि संस्थाओं की सहायता से हिन्दी की उन्नति के लिए अत्यंत प्रयास किए।
भारतीय भाषाओं में शिक्षा पर बल
इंद्र वाचस्पति, भारतीयों को भारतीय भाषाओं में शिक्षा देने के प्रबल समर्थक थे। उनके शब्दों में “आवश्यकता है कि सर्वसाधारण को शिक्षा दी जाए। केवल विद्यालयों से ही नहीं, अपितु हरेक भारतीय भाषा में उत्तम तथा जीवन योग्य पुस्तकों की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उनका स्पष्ट मत था कि मातृभूमि तथा जनता की सेवा अंग्रेजी के द्वारा नहीं हो सकती। उनका मानना था कि यह हमारी दिमागी गुलामी का चिह्न है कि हम यूरोप में पढे हुए व्यक्ति की बड़ी प्रतिष्ठा करते हैं। मातृभाषा के प्रति भारतीयों में बढ़ती, उदासीनता की प्रवृत्ति के वाचस्पति जी घोर विरोधी थे।
राजनीतिक शुचिता के आग्रही
स्वतंत्रता संग्राम के उस युग में राजनीतिक आंदोलनों और राजनीतिक सहभागिता के बिना स्वतंत्रता के लिए प्रयास करना असंभव था। इन्द्रजी पर गांधीजी और आर्यसमाज का अत्यंत गहरा प्रभाव था। वे राजनीतिक सिद्धांतों के प्रति सत्यनिष्ठा और जीवन में राजनीतिक शुचिता के अत्यंत आग्रही थे। इंद्र जी पर गांधी जी और आर्य समाज का अत्यंत गहरा प्रभाव था। वे राजनीतिक सिद्धांतों के प्रति सत्यनिष्ठा और जीवन में राजनीतिक शुचिता के अत्यंत आग्रही थे। उनके लिए राजनीति में चेतना, नैतिकता आदि का स्थान था। सत्याग्रह के सिद्धांत पर गांधीजी का विरोध करते हुए उन्होंने कहा कि गांधी सत्याग्रह के लिए जिस प्रगर की मानसिक, वाचिक और कायिक अहिंसा की आवश्यकता समझते हैं वह एक अस्वाभाविक वस्तु है”। उन्होंने सिद्धांत के लिए कांग्रेस का त्याग कर दिया था।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शौर्य-प्रस्तावना के अनन्य समर्थक
वाचस्पतिजी का मानना था कि भारत को स्वतंत्रता केवल अहिंसा शांति और तपस्या के दम पर नहीं मिलेगी। भारतीयों को प्रतिकार करना होगा। मेरठ अधिवेशन में सरदार पटेल के बयान तलवार का जवाब तलवार से दिया जाएगा, का उन्होंने स्वागत किया था। इस अवसर पर उन्होंने लिखा कि “पहली बार कांग्रेस की व्याख्यान वेदी पर शौर्य की ललकार सुनी गई।”
पत्रकारिता की राष्ट्रसेवा और राष्ट्र जागरण के माध्यम के रूप में स्थापना
वाचस्पति को बहुत से विद्वान हिन्दी पत्रकारिता का पितामह स्वीकारते हैं। अपने जीवन काल में उन्होने कई साप्ताहिक और दैनिक समाचार पत्रों का संपादन किया। अंग्रेजों ने उनके द्वारा संपादित समाचार पत्र विजय को बंद कर दिया उनके द्वारा एक अन्य पत्र अर्जुन संचालित किया गया। अंग्रेज सरकार के पीछे पड़ जाने की वजह से पत्र का नाम वीर अर्जुन करना पड़ा आज भी पंजाब से निकलने वाला यह राष्ट्रीय स्तर का समाचार पत्र है।
संपादन के रचनाकर्म हेतु श्रेष्ठ प्रतिमानों की स्थापना
पत्रकारिता में लंबे अनुभव के कारण स्वतंत्रता के पश्चात 1952 में दैनिक जनस्ता के प्रधान संपादन बने। उनकी पहली शर्त थी कि मैं समाचार पत्र की संपादकीय नीति में सर्वदा स्वतंत्र रहूंगा। जब उन्हें प्रतीत हुआ कि मालिक संपादकीय नीति में हस्तक्षेप कर रहा है तो त्यागपत्र दे दिया। उनके मत में सीधा व स्पष्ट लिखना, निर्भीक सत्य लिखना, सत्य का समर्थन करना, निष्पक्ष होना आदि वे मूल्य थे जिनको पत्रकार व संपादक को किसी भी क़ीमत पर नहीं छोड़ना चाहिए।
विभिन्न विषयों पर विपुल प्रेरणार्थक साहित्य, के रचना मनीषी वाचस्पति जी निस्वार्थ भाव से भारतीय समाज की सेवा में लगे रहे। ‘न दैन्यं न पलायनम’ के सार्थक पंडितजी माता के सही अर्थों में वरदपुत्र थे। आर्य समाज के सामाजिक जागरण और उद्धार के कार्यों में अनवरत सहयोग किया। सनातन धर्म तथा भारतीय संस्कृति के प्रति उनका समर्पण उल्लेखनीय है। इन्द्र एक कुशल निर्भीक पत्रकार, विचारक, इतिहासकार, बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार और हिंदीसेवी के रूप में जगत विख्यात रहे।
(लेखक बाबा मस्तनाथ विश्वविद्यालय रोहतक, हरियाणा में प्रोफेसर है और हिंदी विभाग के अध्यक्ष है।)
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