भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 104 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा – अनुसंधान की देशव्यापी योजना)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

अध्ययन व अनुसंधान की देशव्यापी योजना बनाने से पूर्व हमें अनुभूति प्रमाण, धर्म प्रमाण और वेद प्रमाण पर पूरे देश में, विशेष रूप से विश्वविद्यालयों में सर्वसम्मति बननी होगी। यह सर्वसम्मति बन जाने के बाद एक और उतना ही महत्त्वपूर्ण काम हमें करना होगा। और वह काम है, इन सभी प्रमाणों का युगानुकूल निरूपण करना।

युगानुकूल निरूपण करना

युगानुकूलता से हमारा अभिप्राय यह है कि वेद, उपनिषद और दर्शन आदि का निरूपण इस युग को केन्द्र में रखते हुए ऐसा करना चाहिए कि हमारा जीवन व्यवहार इनके अनुसार होने लगे, तभी इन शास्त्रों की सार्थकता है। ये सद्ग्रन्थ मात्र तात्त्विक चिन्तन के लिए नहीं हैं। इनका हेतु मानव जीवन को श्रेष्ठ बनाना है। उदाहरण के लिए संसद, बाजार, विद्यालय और घर भारतीय शास्त्र ग्रन्थों द्वारा दी गई दृष्टि के अनुसार चलने चाहिए। ऐसा होने पर ही भारतीय ज्ञान की प्रासंगिकता और प्रतिष्ठा होती है। आज की स्थिति तो यह है कि उपर्युक्त चारों में से एक भी शास्त्रों के कहे अनुसार नहीं चलता है।

इसका उपाय क्या है? उपाय बिल्कुल स्पष्ट है। वेद हमारी ज्ञानधारा के स्रोत हैं। इसलिए हमारी संसद की प्रणाली और सांसदों का व्यवहार, बाजार का उत्पादन और वितरण, विद्यालयों की शिक्षा योजना और परिवारों की जीवन शैली आदि भारतीय ज्ञानधारा के अनुसार चलनी चाहिए। यह सब करने के लिए हमें भारतीय ज्ञानधारा के मूल सिद्धान्तों का अध्ययन करना होगा, चिन्तन-मनन करते हुए वर्तमान परिस्थितियों, व्यवस्थाओं तथा व्यवहारों की प्रणाली का निरूपण आज के समयानुसार करना होगा। यह कार्य तात्त्विक अध्ययन से भी अधिक चुनौतीपूर्ण है। इसे ही व्यावहारिक अनुसंधान कहा गया है। हमने तो अनुसंधान को बहुत छोटा और सीमित बना दिया है, इसलिए उसका परिष्कार आवश्यक है।

अनुसंधान पीठ स्थापित करना

अनुसंधान पीठ स्थापित करने का कार्य उच्च विद्या विभूषित महानुभावों का है। अनेक विश्वविद्यालयों में आज भी जो पीठ स्थापित हैं, उनसे भिन्न प्रकार की व्यवस्था करनी होंगी। इस कार्य के लिए श्रेष्ठ कोटि के संन्यासी, शास्त्रज्ञ, अनुभूति प्राप्त विद्वान एवं विश्वविद्यालयों के जिज्ञासु और गहन स्वाध्यायी प्राध्यापकों को एक साथ लाना होगा।

हमारे देश में अनेक महपुरुषों ने नये-नये सम्प्रदायों की स्थापना की है। उन्हीं की भाँति किसी श्रेष्ठ विद्वान को ऐसी पीठ की स्थापना करनी चाहिए और उसका लक्ष्य भारतीय ज्ञानधारा को पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करवाकर उसे पुनः प्रतिष्ठित करना चाहिए। तदनुरूप ही उसकी कार्य योजना भी बनानी चाहिए। सम्पूर्ण देश में वे भारतीय शिक्षा प्रेमी जो भारतीय ज्ञानधारा में अवगाहन करना चाहते हैं और समाज सेवा हेतु कटिबद्ध हैं, उन्हें इस पीठ को स्थापित करने की योजना में जोड़ना चाहिए।

हमें अध्ययन-अनुसंधान कार्य के व्यावहारिक पक्ष का भी विचार करना होगा। अध्ययन-अनुसंधान के आधार पर दैनन्दिन जीवन शैली का निरूपण करना भी महत्त्वपूर्ण कार्य है। दैनन्दिन जीवन के जितने भी विषय हैं, उनके ज्ञाताओं को एकत्र आकर उनके सूत्र बनाने चाहिए। जैसे- शरीर व मन का स्वास्थ्य, दिनचर्या, शिष्टाचार व सदाचार, चरित्र, आर्थिक व्यवहार और शिक्षा जैसे विषय दैनन्दिन जीवनशैली के बिन्दु हैं। इनके ज्ञाता विद्वानों को मिलकर जीवनशैली के सूत्र बनाने चाहिए। इन सूत्रों का प्रबोधन, प्रशिक्षण व प्रचार-प्रसार की योजना भी बनानी चाहिए। वर्तमान राष्ट्र जीवन की इन मूलभूत समस्याओं को भारतीय जीवनदृष्टि के प्रकाश में समझने हेतु ज्ञान साधना वर्ग लगाने चाहिए।

विश्वविद्यालय समाज जीवन की समस्याओं से विमुख नहीं हो सकते। इन समस्याओं को समझकर इनका विश्लेषण करना चाहिए। इनके उद्गमस्रोत कौन-कौन से हैं? इनके परिणाम क्या-क्या हो रहे हैं और उन्हें दूर करने के उपाय क्या हो सकते हैं? इन सबके ज्ञानात्मक उत्तर खोजने होंगे। ज्ञानात्मक उत्तर ही सबसे प्रभावी होते हैं, यह अनुभवजन्य सत्य है। इन ज्ञानात्मक उत्तरों के आधार पर मार्गदर्शक सूत्र बनाने चाहिए।

अर्थशास्त्र को नया रूप देना

वर्तमान समय में धर्म को एक और धकेलकर अर्थ ही समाज जीवन को संचालित करने वाला प्रमुख तत्त्व बन गया है। अर्थ जब सर्वाधिकार में आ जाता है तब वह पहले अन्यों का विनाश करता है फिर स्वयं का भी विनाश कर बैठता है। यह बन्दर के हाथ में उस्तरा देने जैसी अनुभवसिद्ध बात है। आज के अर्थशास्त्र को अनर्थशास्त्र भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसलिए अर्थशास्त्र को आज के समयानुसार नये सिरे से निरूपित करना नितान्त आवश्यक है।

हमारे प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र के सम्बन्ध में जो निर्देश दिए हैं, उन्हें आधारभूत सिद्धान्त बनाना चाहिए। यथा – ‘अर्थशास्त्रातुबलवत् धर्मशास्त्रमिति स्मृत:’ अर्थात अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र के अधीन होना चाहिए। धर्म प्रामाण्य के बिंदु पर हमने पूर्व में विचार किया है। देश के बुद्धिजीवी वर्ग तथा सामान्यजन को नए अर्थशास्त्र की आवश्यकता व उसके महत्त्व को समझाने वाले लेखों को प्रकाशित करने की योजना भी बनानी चाहिए।

इस नए अर्थशास्त्र के अनुसार ही देश की अर्थनीति और अर्थव्यवस्था के निर्देश तय होने चाहिए। अर्थात अर्थशास्त्र का अध्ययन और अर्थशास्त्र का व्यवहार दोनों साथ-साथ चलने चाहिए। सामान्य लोग भी सरलता से अर्थव्यवहार कर सके ऐसे निर्देश भी तैयार करने चाहिए। यथा – बाजार कैसे चलेगा, उत्पादन व वितरण की क्या व्यवस्था होगी और व्यक्ति तथा समाज की समृद्धि परस्पर अविरोधी होकर कैसे बढ़ेगी आदि बिन्दुओं का निरूपण कर उसे सामान्य लोगों को समझ में आ जाए ऐसी भाषा में प्रसारित करना चाहिए।

अर्थात इस अध्ययन-अनुसंधान के लिए विश्वविद्यालय में जो पीठ स्थापित होगी उसका स्वरूप शास्त्राभिमुख और लोकाभिमुख दोनों प्रकार का होना चाहिए। ये सब बातें भारतीय शिक्षा में ही सम्भव हो सकती है। धर्म को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित करते हुए ज्ञानपरम्परा को बनाए रखना और प्रजा को धर्माचरण में प्रवृत्त करना प्रमुख कार्य है। अर्थात लोक व्यवहार को धर्माधिष्ठित बनाना शिक्षा का ही काम है। इस दृष्टि से शिक्षाशास्त्र, शिक्षाव्यवस्था और शिक्षा को सुलभ बनाने के उपाय आदि का अर्थशास्त्र के समान ही नया निरूपण तात्त्विक व व्यावहारिक धरातल पर करने की आज महती आवश्कता है।

आज संचार माध्यमों के प्रभाव के परिणाम स्वरूप विश्व के सभी देश एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। विगत दो सौ वर्षों में भारतीय शिक्षा का सांगोपांग पश्चिमीकरण हुआ है। अर्थ जीवन के केन्द्र में आ जाने के कारण उपभोग प्रधान असंयमित जीवनशैली प्रचलित हुई है। इस परिस्थिति में भारतीय ज्ञानधारा का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है। अभारतीय ज्ञानधारा ने उसका स्थान ले लिया है। यह स्थिति केवल भारत की ही नहीं है, सम्पूर्ण विश्व इस प्रवाह में बह रहा है। जिस पश्चिम से यह प्रवाह प्रारम्भ हुआ है, वह अन्य देशों के साथ-साथ उस पश्चिम को भी डूबाने वाला है। इसलिए भारतीय ज्ञानधारा के विभिन्न विषयों को लेकर तुलनात्मक अध्ययन की एक योजना बनाने की आवश्यकता प्रतीत होती है।

यह तुलनात्मक अध्ययन अनुभूति प्रमाण व धर्म प्रमाण के आधार पर ही होना चाहिए। पश्चिमी ज्ञान से प्रेरित होकर जीवन की जो व्यवस्थाएँ बनी हैं और बन रही हैं, जो व्यवहार विकसित हो रहा है तथा जो वृत्तियाँ पनप रही हैं वे कितनी अधिक अकल्याणकारी हैं? यह सब तथ्यों के साथ बताना आवश्यक है। ऐसे तुलनात्मक अध्ययन से ही भारत और पश्चिमी जगत दोनों को पता चलेगा कि भारतीय ज्ञान सम्पदा सम्पूर्ण विश्व का कल्याण करने वाली है। भारत की सरकार व समाज दोनों के लिए निर्देशों के साथ-साथ अन्यान्य देशों के लिए भी निर्देश बनाने चाहिए। ज्ञान के क्षेत्र में हम सम्पूर्ण विश्व का मार्गदर्शन करने का अधिकार रखते हैं, ऐसा हमारा आत्मविश्वास जगना चाहिए।

युगानुकूल ग्रन्थ निर्माण की योजना

ग्रन्थ निर्माण करना अध्ययन-अनुसंधान योजना का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। जब ऐसे ग्रन्थों की रचना करने का विषय आयेगा तब सभी शास्त्रों का परस्पर सम्बन्ध क्या है, इनका प्रत्यक्ष जीवन के साथ क्या सम्बन्ध है? ऐसी सभी बातों का विचार करना आवश्यक होगा। ऐसा विचार करने पर ही समझ में आयेगा कि सभी विषय एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। वास्तव में ज्ञान का प्रवाह एक व अखण्ड है और सभी विषयों में अंगांगी सम्बन्ध हैं। इस अंगांगी सम्बन्ध को समझना ही ज्ञान साधना को सही अधिष्ठान व प्रस्थान देना है।

इस ग्रन्थ निर्माण योजना में विद्वानों के लिए उपयोगी तथा सामान्य लोगों के लिए उपयोगी दोनों ही प्रकार का विपुल साहित्य निर्माण होना चाहिए। यदि भारतीय ज्ञान का विगत दो सौ वर्षों का इतिहास देखें तो एक बात ध्यान में आती है कि लगभग एक सौ वर्ष पूर्व अर्थात बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ज्ञान की विविध शाखाओं में मूल और गम्भीर अध्ययन की प्रभावी पहल हुई थी, उसके परिणाम स्वरूप लक्षणीय मात्रा में ग्रन्थ रचना हुई। उससे पहले उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय शिक्षा के महत्त्वपूर्ण प्रयोग भी हुए थे, जो यशस्वी भी थे। परन्तु दुर्भाग्यवश स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात शिक्षा के उन प्रयोगों की दुर्गति हुई। जब नये प्रयोग होने रुक गए तो मूल व गहन अध्ययन भी रुक गया। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में तो वैश्वीकरण ने ऐसा कहर ढ़ाया कि भारतीय ज्ञानधारा पूर्णरूपेण उपेक्षित हो गई। देश का शासन और उसके पीछे समस्त प्रजा विकास की पश्चिमी संकल्पना की चकाचौंध में भ्रमित होकर विनाश की ओर बढ़ रही है। इस भयावह स्थिति से देश को बचाने के लिए अध्ययन व अनुसंधान की महती आवश्यकता है। अतः समर्थ विद्वानों को जो विश्व कल्याण की भावना वाले, मेधावी बुद्धि से सम्पन्न, व्यवहार को जानने वाले लोकाभिमुख समर्पित व्यक्तियों को इस कार्य में जोड़ना चाहिए और इन्हें दीर्घकाल तक अध्ययन करने की आवश्यता बतानी चाहिए।

इस योजना में शासन की भूमिका

अध्ययन और अनुसंधान में शासन की भूमिका क्या रहनी चाहिए, इसका भी विचार करना आवश्यक है। शासन व शिक्षा दोनों के पक्ष में हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। अध्ययन-अनुसंधान की सुस्पष्ट योजना बनाकर प्रथम तो देश के विद्वज्जन को इससे सुपरिचित करवाना चाहिए। तत्पश्चात उनका समर्थन जुटाना चाहिए। संख्या बल के स्थान पर ज्ञान बल व निष्ठा बल बढ़ाना चाहिए और इसे देशव्यापी बनाना चाहिए। फिर शासन के साथ संवाद शुरु करना चाहिए। यह संवाद भूमि, धन या मान्यता के लिए न करके भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा का विषय समझाने के लिए करना चाहिए। सभी जन प्रतिनिधियों तक यह विषय संचार माध्यमों तथा प्रत्यक्ष भेंट के द्वारा पहुँचाना चाहिए।

इस योजना में विश्वविद्यालयों के कुलपतियों और कुलाधिपतियों को ज्ञाननिष्ठ बनकर सहभागी बनने का आह्वान करना चाहिए। इसमें विश्वविद्यालयों के तेजस्वी व  मेधावी विद्यार्थियों को विशेष रूप से सम्मिलित करना चाहिए, क्योंकि कुछ वर्षों के उपरान्त उन्हें ही इसे आगे बढ़ाने का दायित्व संभालना है।

शैक्षिक व सांस्कृतिक संगठनों को जोड़ना

हमारे देश में अनेक शैक्षिक व सांस्कृतिक संगठन शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं। कुछ संगठनों के अपने विश्वविद्यालय भी हैं। अन्यों की अपेक्षा इनके लिए यह योजना हाथ में लेना अधिक आसान है। ये सभी संगठन प्रभावी भी हैं। वे चाहें तो साथ मिलकर अथवा अलग-अलग अपनी अध्ययन-अनुसंधान की स्वतन्त्र योजना भी बना सकते हैं। ऐसी देशव्यापी योजना बननी चाहिए। इसके बिना पश्चिमीकरण के प्रभाव से मुक्त होना असम्भव है।

इस प्रकार अध्ययन-अनुसंधान की देशव्यापी योजना बनाने से कार्यसिद्धि सम्भव है। केवल दुखी होने से, शिकायत करने से अंग्रजों या पश्चिम को कोसने से अपने शासन को उपालम्भ देने से या उदासीन हो जाने से अथवा भगवान भरोसे छोड़ देने से यह कार्य नहीं होनेवाला। यह कार्य तो पुरुषार्थ करने से ही होगा। इसलिए ज्ञानात्मक पुरुषार्थ कर, ज्ञाननिष्ठ बन कार्य में जुटने से ही भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हो सकती है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 103 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा – अनुसंधान में प्रमाण व्यवस्था)

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