✍ वासुदेव प्रजापति
आजकल हमारे देश में साम्यवाद शब्द बड़ा प्रचलित है। यह साम्यवाद शब्द भी यूरोपीकरण का ही एक आयाम है। हमारे यहाँ अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं के शब्दों का अनुवाद बड़ी मात्रा में होने लगा है। वैसे अनुवाद होना तो अच्छी बात है परन्तु जब अनुवाद के परिणामस्वरूप शब्दों के अर्थ में संभ्रम और विपरीतता आ जाए तो अनर्थ हो जाता है। उदाहरण के लिए साम्यवाद ने धर्म को अफीम कहा, सेकुलर को धर्मनिरपेक्ष कहा। इस धर्मनिरपेक्षता शब्द के कारण देश में अधार्मिकता की प्रतिष्ठा हुई। प्रत्येक राष्ट्र का जीवन दर्शन भिन्न-भिन्न होता है। जब दो भिन्न जीवन दर्शन वाले राष्ट्रों के शब्दों का अनुवाद सटीक नहीं होता है, तब अनुवाद में सम्भ्रम और विपरीतता आती ही है।
ऐसे अनेक शब्द हैं जिनका अनुवाद ऐसा संभ्रमपूर्ण और विपरीत हुआ है, जैसे- राजनीति का पोलिटिक्स, धर्म का रिलीजन, संस्कृति का कल्चर और राष्ट्र का नेशन आदि। समझने के लिए राजनीति का अनुवाद पोलिटिक्स करना भी एक संभ्रम ही है। हमारे देश चिन्तन के अनुसार राजनीति अत्यन्त विधायक अर्थ वाला शब्द है, उसकी अच्छी प्रतिष्ठा है, किसी भी शासक या प्रशासक के लिए राजनीति में निपुण होना आवश्यक है। परन्तु आज राजनीति को राजनीति के अर्थ में न लेकर पोलिटिक्स के अर्थ में लिया जाता है। जिसका अर्थ है शठता और धूर्तता, जिसका लक्ष्य है येन-केन प्रकारेण स्वार्थ सिद्धि करना। साम्यवाद ने संस्कृति को धर्म से अलग कर उसका राजनीतिकरण किया। उसने दैनन्दिन व्यवहार में संस्कृति के नाम पर स्वार्थ सिद्धि हेतु शठता और धूर्तता को मान्यता दी। हमें पोलिटिक्स नहीं चाहिए परन्तु संस्कृति चाहिए। अब शठता और धूर्तता स्वार्थ सिद्धि के साधन हो गए हैं, इसलिए इनसे कोई आपत्ति नहीं है। यही यूरोपीकरण का साम्यवादी तरीका है।
अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर
अभिव्यक्ति की आजादी हर किसी के मन को छूने वाला विषय है। प्रत्येक व्यक्ति यह आजादी चाहता है। परन्तु आज इस आजादी का स्वरूप जो बना दिया गया है वह चिन्ता का विषय है। कला, संगीत, साहित्य व मनोरंजन आदि के क्षेत्र हमारी भारतीय संस्कृति के अंग हैं। इनके सम्बन्ध में कहा गया है –
“साहित्य संगीत कला विहीन: साक्षात् पशु: पुच्छविषाणहीन:।”
अर्थात् जो मनुष्य साहित्य, संगीत व कला से विहीन है, वह बिना पूँछ तथा बिना सींग वाले पशु के समान है। इनसे वंचित मनुष्य को पशु इसलिए कहा गया है कि संस्कृति के इन सभी अंगों में हमारे जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति होती है। परन्तु आज अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर जीवन मूल्यों पर ही आघात किया जा रहा है, जो एक साम्यवादी तरीका है।
इस साम्यवादी तरीके के कुछ उदाहरणों को समझें – राम ने सीता पर अन्याय किया, यह कहकर पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर अन्याय किया जाता है, इसे मुखर करना। देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बनाकर स्त्रियों को लिव इन रिलेशनशिप तक पहुँचा देना। मनोविकार पैदा करने वाले टीवी धारावाहिक बनना। वेदों के विकृत अर्थ करके उनकी निन्दा करना जैसे कृत्यों को बढावा देना, ये सब साम्यवादी तरीके हैं। समानता के नाम पर स्त्रियों को पुरुषों के, गरीबों को अमीरों के, प्रजा को शासकों के, शूद्रों को ब्राह्मणों के, विद्यार्थियों को शिक्षकों के तथा सन्तानों को माता-पिता के विरुद्घ भड़काकर वर्ग संघर्ष निर्माण कर अशान्ति फैलाना और समाज को तोड़ना भी यूरोपीकरण का साम्यवादी तरीका है।
आधुनिकता के नाम पर
आधुनिकता शब्द का भी गलत अर्थ लगाया जा रहा है। आधुनिकता और भारतीयता दोनों विरोधी शब्द नहीं है, परन्तु समझाया यही जाता है कि आधुनिक होना मतलब पाश्चात्य होना। भारतीयता छोड़कर ही आप आधुनिक बन सकते हो, क्या भारतीयता अपनाते हुए हम आधुनिक नहीं हो सकते? हो सकते हैं। परन्तु एक सुनियोजित षड़यंत्र पूर्वक भारतीयता का विरोध किया जा रहा है, जिसे हम समझ ही नहीं पा रहे हैं।
आधुनिकता के नाम पर सभी भारतीय रीति-रिवाजों की निन्दा करना, जैसे यज्ञ करके व्यर्थ का घी बहाते हैं। होली व दीपावली जैसे हमारे त्योहारों को मजाक का विषय बताते हैं, उनको अवैज्ञानिक बताते हैं। हमारी भाषा, वेशभूषा को सरकारी समारोहों में पहनने को पिछड़ापन बताते हैं और मजाक बनाते हैं। और यह समझाते हैं कि अनुशासन, आज्ञा पालन, नियम पालन, संस्कारिता व शिष्टता जैसी दकियानुसी बातों को छोड़कर ही नई पीढ़ी आधुनिक बन सकती है। यही भारतीय संस्कारों को नष्ट करने का साम्यवादी तरीका है।
इतिहास के नाम पर
इस साम्यवादी तरीके ने भारतीय इतिहास को तोड़-मरोड़ कर बहुत अधिक विकृत कर दिया है। आज तक हमारे विद्यार्थियों को वही विकृत इतिहास ही पढ़ाया गया है। यही कारण है कि आज की युवा पीढ़ी भारत के गौरवशाली इतिहास को नहीं जानती और न जानने के कारण ही युवा पीढ़ी देश के लिए मर मिटने को तैयार नहीं होती।
आज तक इतिहास अध्ययन के नाम पर हमारे पूर्वजों को काल्पनिक पात्र बताया गया। विश्व के प्रथम व श्रेष्ठ ग्रंथों वेद, उपनिषद, तथा रामायण-महाभारत को प्रमाण नहीं माना गया, इसलिए पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया। हमारी सामाजिक व्यवस्थाओं को पिछड़ापन बताया गया। हमारी अर्थव्यवस्था को शोषण की व्यवस्था तथा धर्म व्यवस्था को पोंगापन और भोंदूगिरी घोषित किया गया। हमारी सुदीर्घ काल गणना को अविश्वसनीय बताकर त्याग दिया गया। हमारे ऋषि-मुनियों के द्वारा की गई खोजों को मनगढंत माना गया और उन्हीं के ज्ञान की नकल कर की गई नई खोजों को पाश्चात्य वैज्ञानिकों की खोज बताया गया। इस देश को मदारी व सपेरों का देश प्रचारित किया गया। यहाँ के लोगों को आलसी व निकम्मा कहा गया। विश्व गुरु भारत की ज्ञान व्यवस्था को निकृष्टतम सिद्ध करने का प्रयत्न हुआ। यही ज्ञानात्मक तोड़-फोड़ का साम्यवादी तरीका है। इसका भी सबसे प्रभावी माध्यम शिक्षा ही है और इसके सफल केन्द्र विश्वविद्यालय हैं।
साम्यवाद की मान्यताओं में अन्तर है
भारतीय मान्यताओं में और साम्यवादी मान्यताओं में मौलिक अन्तर है। शब्दावली भले ही एक समान लगती है परन्तु उनके अर्थ भिन्न होते हैं। उदाहरण के लिए भारत में कहा जाता है कि वस्तुओं के उपभोग के मामले में छोटों का अधिकार पहले है, सुरक्षा के मामले में परिचर्या करने वाले का अधिकार पहले है, कष्ट सहने के मामलों में बड़ों का क्रम पहले है। परन्तु इसी बात को साम्यवाद कहता है कि देश की सम्पत्ति पर कामगारों का अधिकार पहले है, समाज में गरीबों का अधिकार पहले है। दोनों की भाषा समान ही है, परन्तु भारत में बड़ों के लिए अधिकार नहीं कर्तव्य है, जबकि साम्यवाद में बड़े होना ही गलत है। अमीर होना, सत्तावान होना, ब्राह्मण होना ही अपराध है। भारत में बड़ों का कर्तव्य पहले है, इसलिए वे आदर के योग्य हैं। जबकि साम्यवाद में बड़ों का आदर करना पिछड़ापन है। उनकी दृढ़ मान्यता है कि बड़े कभी कर्तव्य मानेंगे नहीं, इसलिए छोटों को उनसे छीन लेना चाहिए। छीनकर लेने को वे छोटों का अधिकार मानते हैं।
यह कितनी विचित्र बात है कि छोटे छीन-छीन कर जब बड़े हो जायेंगे तो अपने आप ही अपराधी बन जायेंगे और वे स्वयं छीने जाने योग्य बन जायेंगे। इस प्रकार वर्ग संघर्ष चलता ही रहेगा, उसका कभी अन्त ही नहीं होगा। साम्यवादी वर्ग को समाप्त नहीं होने देना चाहते, वर्ग रहेंगे तो वर्ग संघर्ष भी होता रहेगा। यही साम्यवादी संस्कृति है और यूरोपीकरण का एक आयाम है।
धर्म-संस्कृति की सुरक्षा नहीं है
हमारे देश में व्यवस्था की दृष्टि से बड़ी विसंगति है। विदेशी शत्रु से लड़ने के लिए हमारी सेना है। विदेशी जासूसों को पकड़ने के लिए हमारा जासूसी तंत्र है। आतंकवादियों को पकड़ने के लिए सेना और पुलिस है। गुंडों को पकड़कर सजा दिलाने के लिए पुलिस व न्यायालय है। किसी भी प्रकार के आर्थिक व सामाजिक अपराधियों के लिए भी पुलिस व न्यायालय की व्यवस्था है। किन्तु धर्म व संस्कृति की सुरक्षा के लिए न कोई कानूनी प्रावधान है और न कोई व्यवस्था ही है। हाँ कानूनी अर्थ में जो सामाजिकता व नैतिकता है, उसकी रक्षा का प्रावधान तो है परन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से जो सामाजिकता है, उसकी रक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है।
धर्म, संस्कृति और ज्ञान ही जब सुरक्षित नहीं है तो अन्य बातें कैसे सुरक्षित रह सकती हैं। धर्म, संस्कृति व ज्ञान की रक्षा करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है, इसे सरकार अपना काम मानती ही नहीं है। सरकार मानती है कि धर्म धर्माचार्यों का क्षेत्र है, किन्तु धर्माचार्यों को इस मुद्दे की ठीक से समझ ही नहीं है। धर्माचार्यों की दृष्टि में प्रजा को धर्मप्रवण बनाना तो वे अपना काम समझते हैं, परन्तु आज अर्थ क्षेत्र में, राज्य क्षेत्र में और ज्ञान क्षेत्र में जो धर्म विमुखता घर कर गई है उसे दूर करना, वे अपने कार्य में सम्मिलित नहीं करते। जीवन के इन तीनों महत्वपूर्ण क्षेत्रों- धर्म, राज्य व ज्ञान में यूरोपीकरण के शिकार बने लोगों को पुनः धर्मप्रवण कैसे बना सकते हैं? हमें इसकी पक्की व्यवस्था करने की नितान्त आवश्यकता है।
ज्ञान क्षेत्र की स्थिति अत्यन्त विकट है
हमारे राष्ट्र जीवन की सब प्रकार की समस्याओं को सुलझाने का दायित्व शिक्षा का है, जबकि हमारी शिक्षा स्वयं यूरोपीय ज्ञान से ग्रसित है। अंग्रेजों ने योजना पूर्वक भारतीय ज्ञान को गड़रियों के गीत कहा, अर्थात् निरर्थक घोषित किया और यूरोपीय ज्ञान को श्रेष्ठ व जीवनोपयोगी बताया। इस प्रकार हमारी शिक्षा में से भारतीय ज्ञान को बाहर कर दिया गया और यूरोपीय ज्ञान को प्रतिष्ठित कर दिया गया। अंग्रेजों का उद्देश्य भी यही था।
इस ज्ञान क्षेत्र की मुक्ति अब सरकार के लिए कठिन विषय बना हुआ है। अध्यापक व प्राध्यापक स्वयं बेचारे बन गए हैं। भारतीय ज्ञान धारा में अवगाहन करने वाले यह तो कहते हैं कि जीवन के लिए यह भारतीय ज्ञान ही श्रेष्ठ है, परन्तु उसे लाने का कोई प्रयत्न नहीं करते। जो लोग शिक्षा को मुक्त करवाने की बात तो करते हैं परन्तु सरकार का मुँह ताकते हैं। इसे वे अपना विषय नहीं मानते फलस्वरूप उदासीन बने रहते हैं।
आज की स्थिति यह है कि शिक्षा को यूरोपीकरण के प्रभाव से मुक्त करने का महत्त्व कितना अधिक है? इसका ठीक से आकलन करना सबकी समझ से परे है। वर्तमान यूरोपीय शिक्षा भारतीयों के मन-मस्तिष्क में इतनी गहरी बैठ गई है कि सर्व साधारण लोगों को तो इससे मुक्त होना चाहिए, ऐसा लगता ही नहीं है। जबकि वास्तविकता यही है कि अंग्रेजों ने अपने सभी उद्देश्यों की पूर्ति शिक्षा का यूरोपीकरण करके ही सम्भव की थी। अब हमें हमारी शिक्षा को यूरोपीकरण से मुक्त करके उसका भारतीयकरण करना है तो हमारी शिक्षा में से यूरोपीय ज्ञान को बाहर कर उसके स्थान पर भारतीय ज्ञान को प्रतिष्ठित करना होगा, तभी यूरोपीकरण समाप्त होगा। अन्यथा देश की आजादी के समय जिस अंग्रेजी भाषा को केवल पन्द्रह वर्षों के लिए लागू किया था वह आज तक चल ही रही है। इस बात की गहराई को समझें।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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