भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 94 (भारत में अंग्रेजों के छद्म उद्देश्य)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

अंग्रेजों का भारत में आने का मुख्य उद्देश्य तो लूट करना ही था। वे यह लूट दीर्घकाल तक कर सकें इसलिए उसे व्यापार का नाम दिया। व्यापार के मार्ग में आने वाले अवरोधों को दूर करने के लिए उन्होंने राज्यों को अपने हस्तगत किया। जब अधिकांश राज्यों की सत्ता उनके हाथ में आ गई तब उन्होंने अपने दो और छद्म उद्देश्य लागू किए, उनमें पहला था- ‘यूरोपीकरण’ और दूसरा था- ‘ईसाईकरण’।

भारत में यूरोपीकरण

इन दोनों ही उद्देश्यों को लागू करने के लिए उन्होंने दो अलग-अलग माध्यम चुनें। भारत का यूरोपीकरण करने के लिए उन्होंने शिक्षा का माध्यम चुना और ईसाईकरण के लिए सेवा को माध्यम बनाया। शिक्षा के लिए विद्यालय स्थापित किए और सेवा के लिए मिशन चलाए। इन दोनों उद्देश्यों में भारत का यूरोपीकरण अधिक घातक सिद्ध हुआ। अर्थात् शिक्षा सबसे प्रभावी माध्यम सिद्ध हुई। इस बात को हमें अच्छी तरह अपने मन-मस्तिष्क में बैठा लेना चाहिए कि हम वर्तमान शिक्षा को बदलकर ही भारतीय शिक्षा को स्थापित कर सकते हैं। इस भारतीय शिक्षा से ही भारत का भारतीयकरण सम्भव है।

भारत में अंग्रेज आए और स्थापित हो गए, इसके लिए हम अपने पूर्वजों को दोष देते हैं। किन्तु तनिक अपने भीतर भी झाँककर देखें तो हमें स्वयं को आश्चर्य होगा कि हम तो आज उनसे भी अधिक अंग्रेजियत का व्यवहार कर रहे हैं। यह अंग्रेजियत का रोग आज सम्पूर्ण राष्ट्र रूपी शरीर में फैल गया है। हमारे सारे लक्षण रोगी जैसे ही हैं, यदि हम अब भी नहीं चेते तो जैसी रोगी की स्थिति व गति होती है, वही हमारी भी होगी।

यूरोपीकरण का प्रभाव

यूरोपीकरण का सबसे प्रमुख प्रभाव हमारी राज व्यवस्था पर हुआ। प्राचीन काल से भारत में राजाओं का राज रहा है। हमारे यहाँ राज करने की एक नीति थी। उस राजनीति के अनुसार ही राजाओं की शिक्षा होती थी, उसका एक पूरा शास्त्र था। राजाओं की योग्यता और पात्रता की परीक्षा होती थी। यदि राजा अयोग्य होता था तो उसे पदच्युत करने की व्यवस्था भी थी। जब हमारा देश स्वतन्त्र हुआ उस समय भी पाँच सौ से अधिक राजा और रजवाड़े थे। किन्तु हमारे देश की शासन व्यवस्था को किस आधार पर बदला गया? किस आधार पर भारत को लोकतांत्रिक देश बना दिया गया? किस आधार पर राज्यों का विलीनीकरण कर दिया गया? इसका हमें पता तक नहीं चला।

आज भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था है। हमारे देश में ‘लोकतंत्र’ संज्ञा का प्रयोग जिस अर्थ में होता है, वह डेमोक्रेसी तो नहीं है। जिस प्रकार ‘धर्म’ को रिलीजन कहकर अनवस्था निर्माण की जा रही है, वही स्थिति लोकतंत्र की भी है। शासक को सदैव शास्त्रों का जानकार व शील सम्पन्न होना चाहिए, यह अत्यन्त स्वाभाविक अपेक्षा है। आज किस मंत्री या राष्ट्राध्यक्ष से यह अपेक्षा रखी जा सकती है? राजतंत्र में एक राजा का योग्य व शील सम्पन्न होना तो सम्भव है, परन्तु सैंकड़ों मंत्रियों का शील सम्पन्न होना असम्भव है। राजनीति और दावपेंच में सिंह और लोमड़ी जितना अन्तर है, परन्तु देश का दुर्भाग्य यह है कि उस अन्तर को ही समाप्त कर दिया गया है।

पुनर्विचार की आवश्यकता

यदि राज्य चलाने की यह यूरोपीय पद्धति नहीं बदली गई तो आगे जाकर इसके क्या-क्या दुष्परिणाम होंगे? कहना कठिन है। देश में आज दलीय राजनीति हो रही है, आगे जाकर दलों में व्यक्तिवादी राजनीति होगी। दलगत हितों के आधार पर संविधान में परिवर्तन कर दिया जाता है, यह आज की स्थिति है। आगे-आगे देखना व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु संविधान में परिवर्तन होंगे। देश में किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं रहेगी, सुरक्षा नहीं रहेगी तो सुख भी नहीं रहेगा। और देश में ‘डेमोक्रेसी’ के रूप में ‘ऑटोक्रेसी’ हो जायेगी। किसी भी प्रकार की व्यवस्था और सुरक्षा न होने के परिणामस्वरूप जिसकी लाठी उसकी भैंस की स्थिति बन जाएगी। जब किसी को अनुशासन में रखने वाला कोई नहीं होगा तो मारना और मरना ऐसे दो ही विकल्प बचेंगे। पुलिस, न्यायालय, वकील, अफसर आदि का रूप धरकर अत्याचार ही होंगे। अतः हमें आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर पुनर्विचार तो करना ही चाहिए।

भारत में व्यापारीकरण

अंग्रेज भारत में ईस्ट ईण्डिया नामक व्यापारी कम्पनी के रूप में आए। यहाँ आकर जैसे उन्होंने राजनीति का यूरोपीकरण किया, वैसे ही भारतीय व्यापार का व्यापारीकरण किया। भारत में व्यापार धर्म व नीति के आधार पर होता था। ग्राहक को भगवान मानना, अबाल-वृद्ध सबको एक ही मूल्य पर देना, उसे कभी खराब वस्तु नहीं देना, यदि भूलवश दे दी गई तो उसे बदलकर अच्छी वस्तु देना, अपनी लागत से अधिक मुनाफा नहीं कमाना आदि बातें प्रत्येक व्यापारी के व्यवहार में थीं। परन्तु अंग्रेज तो भारत को लूटने आया था, उसने व्यापार धर्म व नीति के आधार पर नहीं किया। येनकेन प्रकारेण अधिक से अधिक मुनाफा कैसे कमाया जा सकता है? उसके लिए छल-कपट रूपी सभी हथकंडे अपनाए। इन सभी हथकंडों को अनीति नहीं माना अपितु इन्हें व्यापार नीति बताकर मान्य किया।

भारत में अंग्रेजों का अन्धानुकरण चला, यहाँ के व्यापारियों ने भी भारत के मानदंड़ों को छोड़कर अंग्रजों के मानदंडों को अपना लिया। इस प्रकार भारत की व्यापारी कम्पनियाँ भी ईस्ट ईण्डिया कम्पनी जैसी बन गईं। अंग्रेजों की ईस्ट इण्डिया कम्पनी तो पराए देशों के लोगों को लूटती थीं, परन्तु भारत की ईस्ट इण्डिया कम्पनियाँ तो भारतीयों को ही लूटने का काम करती हैं। समस्त प्रजा को नौकरी करने वाली पराधीन बनाकर चार पैसा कमाने के लिए दिनभर जूझने वाली बना देना, यह शोषण व लूट नहीं है तो और क्या है? ऐसा करने के लिए राज का उपयोग साधन के रूप में हो रहा है। इसलिए यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि आज भारत में एक के स्थान पर अनेक ईस्ट इण्डिया कम्पनियाँ हैं।

धर्मनिष्ठा नहीं अर्थनिष्ठा का बोलबाला

व्यापार व राज करने की इस पद्धति को उचित और मान्य सिद्ध करने के लिए नये अर्थशास्त्र और राजशास्त्र बनाए गए। जिन्हें आज भी हमारे विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। जिनमें पैसों का ही बोलबाला है। बिना पैसों के चुनाव नहीं जीते जाते और बिना पैसों के विश्वविद्यालय नहीं चलते। बिना पैसे तो कुछ भी नहीं होता। आज तो पानी की बोतल भी 15 या 20 रुपये के बिना नहीं मिलती। अर्थात् सबने धर्मनिष्ठा को छोड़कर अर्थनिष्ठा को अपना लिया है। सबने धर्म को छोटा और अर्थ को बड़ा बना दिया है। जब कोई समाज धर्मनिष्ठा को छोड़कर अर्थनिष्ठा को अपना लेता है, तब सब प्रकार के संस्कार नष्ट हो जाते हैं और समाज की दुर्गति होती है। आज भारत दुर्गति में धँसा जा रहा है।

हमने देखा कि अंग्रेजों के घोषित-अघोषित सभी उद्देश्यों में ईसाईकरण का उद्देश्य भी देश के लिए घातक ही है। यूरोप की अनेक मिशनरियाँ आज भी हमारे देश की भोली-भाली जनता को सेवा के नाम पर ईसाई बना रही हैं। उन्हें देश के कुछ भागों में सफलता भी मिली है, परन्तु इतने वर्षों के बाद भी सम्पूर्ण भारत का ईसाईकरण करने के उद्देश्य में वे असफल ही रहीं हैं। इसकी तुलना में उनका यूरोपीकरण का उद्देश्य अधिक सफल रहा है। अतः देश के लिए यूरोपीकरण सबसे अधिक घातक सिद्ध हुआ है। इस यूरोपीकरण को उन्होंने शिक्षा के माध्यम से सफल किया है। इसलिए हमें भी भारतीयकरण करने के लिए भारतीय शिक्षा को ही माध्यम बनाना होगा।

अंग्रेजों ने जो अंग्रेजी शिक्षा की व्यवस्था की थी, वह एक वर्ग विशेष के लिए की थी, परन्तु दुर्भाग्य से भारत सरकार ने स्वतंत्रता के पश्चात उसका सार्वत्रिकरण कर दिया, उसे सबके लिए लागू कर दिया। शिक्षा सार्वत्रिकरण होने से व्यापारीकरण का भी सार्वत्रिकरण हो गया। शिक्षा स्वयं भी इस व्यापारीकरण में फँस गईं। जिस शिक्षा के लिए कहा जाता है, ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् शिक्षा सबको मुक्ति दिलाती है। मुक्ति दिलाने वाली शिक्षा ही आज राजनीति व व्यावसायिक बन्धनों में जकड़ी हुई है। प्रथम आवश्यकता इस शिक्षा को बन्धन मुक्त करवाने की है। लगता है अब देश का दुर्भाग्य दूर हो रहा है, वर्तमान भारत सरकार ने शिक्षा को बन्धन मुक्त करने की दिशा में अपने कदम बढ़ाए हैं। अभी इस दिशा में बहुत कुछ करने की आवश्यकता प्रतीत हो रही है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

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