सुविख्यात शिक्षा शास्त्री, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी काका कालेलकर

✍ रमेश शर्मा

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कुछ सेनानी ऐसे भी हैं जिन्होंने अपना संघर्ष केवल राजनैतिक अथवा अंग्रेजों से मुक्ति तक ही सीमित न रखा अपितु उन्होंने जीवन भर स्वाभिमान और सामाजिक जागरण का अभियान चलाया। काका कालेलकर ऐसे ही स्वाधीनता सेनानी थे जिन्होंने शैक्षणिक और आर्थिक स्तर भी समाज के उत्थान का अभियान चलाया।

उनका जन्म 1 दिसम्बर 1885 को महाराष्ट्र के सतारा में हुआ था। उनका परिवार मूल रूप से कर्नाटक के करवार जिले का रहने वाला था। लेकिन पहले महाराष्ट्र और फिर गुजरात आकर  बस गया था। उनके पिता बालकृष्ण कालेलकर एक शिक्षाविद् और आध्यात्मिक व्यक्ति थे। वे भगवान दत्तात्रेय के अनुयायी थे इसलिये उन्होंने अपने पुत्र का नाम दत्तात्रेय ही रखा। लेकिन आगे चलकर दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर काकासाहब कालेलकर के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी प्रारंम्भिक शिक्षा महाराष्ट्र में और बाद की उच्च शिक्षा गुजरात में हुई। उनका मराठी, गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी सहित दक्षिण भारत की अनेक भाषाओं पर अधिकार था। उनका आरंभिक लेखन गुजराती में हुआ, और फिर अन्य भाषाओं में भी। लेकिन वे हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने के पक्षधर थे। इसके लिए उन्होंने देशव्यापी अभियान भी चलाया। वे हिन्दी प्रचार सभा से जुड़े थे और उन्होंने दक्षिण भारत में हिन्दी के समर्थन में वातावरण बनाया।

काका कालेलकर राष्ट्रीय मराठी डेली के संपादकीय विभाग से जुड़े और यहाँ से उनका पत्रकारीय जीवन आरंभ हुआ। इसके बाद 1910 में वे गंगानाथ विद्यालय में शिक्षक बने। लेकिन 1912 में अंग्रेज सरकार ने स्कूल को बंद करवा दिया। गुजरात से महाराष्ट्र तक की अपनी जीवन यात्रा में उन्होंने भारतीय जनों की दुर्दशा देखी। उन्हें अंग्रेजों पर बहुत क्रोध आता था। इसलिए वे सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक थे। पर चाहते थे कि भगवान जी भारतीय समाज को शक्ति प्रदान करें जिससे भारत स्वतंत्र हो सके। प्रभु की आराधना के लिये वे 1912 में हिमालय की ओर चल दिये। लगभग तीन वर्ष तक वे पैदल ही विभिन्न क्षेत्रों में गये। न केवल भारत के विभिन्न भागों में अपितु म्यांमार भी गये। इसी यात्रा में उनकी भेंट आचार्य कृपलानी से हुई और उनकी सलाह पर गाँधी से मिलने शाँति निकेतन पहुँचे। गाँधी जी ने उनकी ऊर्जा को अहिसंक आँदोलन और सामाजिक जागरण में लगाने का परामर्श दिया। गाँधी जी के आग्रह पर काका साहब साबरमती आश्रम विद्यालय के प्राचार्य बन गये। गाँधी जी इनके अनुभवों के आधार पर ‘बेसिक शिक्षा’ की योजना बनाई। 1928 से 1935 तक ‘गुजरात विद्यापीठ’ के कुलपति रहे। 1935 में वर्धा आये और हिन्दी के प्रचार के कार्य में लग गये। अपनी बौद्धिक सामर्थ्य, विलक्षण बुद्धि और व्यापक अध्ययन की साख चारों ओर फैली। उनकी गणना प्रमुख अध्यापकों व व्यवस्थापकों में होने लगी और यहीं उन्हें काकासाहब का संबोधन मिला। हिंदी-प्रचार के कार्य में जहाँ कहीं कोई दोष दिखाई देते या हिन्दी प्रचार कार्य की प्रगति में कोई अवरोध आता तो गांधी जी इनको ही जाँच के लिए भेजते। ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ की स्थापना के बाद हिंदी-प्रचार की व्यवस्था के लिए गांधी जी ने काका कालेलकर को गुजरात भेजा। साहित्य अकादमी में काका साहब गुजराती भाषा के प्रतिनिधि रहे।

गुजरात में हिंदी-प्रचार को जो सफलता मिली, उसका मुख्य श्रेय काका साहब को है। उन्होंने मराठी गुजराती और हिन्दी में विपुल साहित्य रचना की। जीवन मानों हिन्दी के लिये समर्पित कर दिया। उनके आलेखों में और व्याख्यान में स्वत्व और स्वाभिमान जागरण का संकेत होता और यह भी कि स्वभाषा के बिना स्वाभिमान जागरण कैसे होगा। स्वतंत्रता के 1952 में उन्हें राजसभा सदस्य मनोनीत किया गया। उनके द्वारा रचित जीवन–व्यवस्था नामक निबन्ध-संग्रह के लिये 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लेखन में उनकी भाषा शैली बड़ी सजीव और प्रभावशाली और उपदेशात्मक है जिसमें लगभग सभी विधाएँ व्यंग्य, हास्य, गद्य और पद्य सभी तत्व विद्यमान हैं।

उनकी लगभग 30 पुस्तकें प्रकाशित हुई उनमें ‘स्मरण-यात्रा’, ‘धर्मोदय’ ‘हिमालयनो प्रवास’, ‘लोकमाता’ ‘जीवननो आनंद’, ‘अवरनावर’ बहुत प्रसिद्ध हुईं। उनकी अधिकांश रचनाएँ लोक जीवन पर आधारित थीं जिसमें जीवन और समाज निर्माण का संदेश होता था। इस प्रकार समाज जीवन के सकारात्मक निर्माण के लिये समर्पित काका साहब कालेलकर ने 21 अगस्त 1981 को संसार से विदा हुए।

और पढ़ें : महानायक लाचित बरफुकन

Facebook Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *