महानायक लाचित बरफुकन

 – डॉ. जगदींद्र रायचौधरी

लाचित बरफुकन असम में आहोम साम्राज्य के एक मुख्य सेनापति थे। वह बचपन से ही मातृभूमि के लिए कुछ कर गुजरने की सोच के साथ बड़े हुए थे। उन्होंने देशभक्ति का पाठ अपने पिता मोमाई तामुली बरबरुआ से सीखा। उनमें देशभक्ति का भाव जगाने में उनके पिता की बड़ी भूमिका थी। मोमाई तामुली बरबरुआ ने अपना प्रारंभिक जीवन भारी कठिनाई और संकट के साथ बिताया लेकिन उनके भांजे की सहायता से स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ। एक बार मोमाई तामुली बरबरुआ को उनके भांजे ने उनकी खेती-बाड़ी की देखभाल के लिए अपने घर ले गया जहाँ वह योजनाबद्ध तरीके से खेती-बाड़ी के काम में जुट गए। इस कार्य के अलावा मोमाई तामुली कुछ सामाजिक कार्यों में भी जुड़ने लगे और जरूरतमंदों को सहायता करने लगे। परिणामस्वरूप वह भांजे के यहाँ लोकप्रिय हो गए और सभी लोग उन्हें ‘मोमाई’ (मामा) के नाम से पुकारने लगे।

उनका मूल नाम सुकुति था पर वह मोमाई के नाम से लोकप्रिय हो गये। मोमाई तामुली का खेती-बाड़ी का कार्य इतना व्यवस्थित था कि एक दिन उनके खेत के बगल से गुजरते समय स्वर्गदेव (आहोम राजा को स्वर्गदेव कहते हैं। आहोमों का मानना है कि उनका राजवंश स्वर्गाधिपति इंद्र का वंशज है) उसे देखकर आश्चर्यचकित रह गए। स्वर्गदेव जयध्वज सिंह मोमाई तामुली के इस कार्य से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें तुरंत राज दरबार में बुलाया गया। मोमाई तामुली को राज परिवार के सुपारी के बगीचे की देखभाल के लिए नियुक्त किया गया। नए कार्यभार संभालने के बाद अपनी कार्य कुशलता के बल पर मोमाई तामुली ने कम समय के भीतर जयध्वज सिंह के राज महल का एक उच्च पद प्राप्त करने में सक्षम हो गए। अपने निर्धारित कार्यों के अलावा मोमाई तामुली स्वर्गदेव के साथ-साथ आहोम साम्राज्य की दैनिक गतिविधियों की भी देखभाल करते थे।

मोमाई तामुली बरबरुआ मानते थे कि केवल आर्थिक विकास ही नहीं, बल्कि सर्वांगीण विकास के बिना कोई समाज आगे नहीं बढ़ सकता। उन्होंने अपने राज्य के पुरुष और महिला सभी नागरिकों से अपने दैनिक कार्यों के लिए कुछ अतिरिक्त समय देने करने का आग्रह किया। वे सुबह के समय घुड़सवारी के दौरान इन कार्यों की नियमित रूप से देखरेख भी करते लगे। इस देखरेख के कारण सभी के बीच कार्य संस्कृति में तेजी आई और हर कोई मेहनती बन गया। लाचित बरफुकन को सर्वांगीण विकास, विशेषकर युद्ध लड़ने का भी प्रशिक्षण दिया गया था।

मुगल बड़े शक्तिशाली आक्रमणकारी थे। उन्होंने कुल सत्रह बार असम पर आक्रमण किया था। जिनमें से मीरजुमला का आक्रमण बड़ा विनाशकारी था। वह बिना किसी बाधा के अपने सेना के साथ आहोम राजधानी गढ़गांव तक पहुँच गया। राजा जयध्वज सिंह को अपना राज महल छोड़कर भागना पड़ा। मीरजुमला ने गढ़गांव पर लंबे समय तक ऐश किया। गढ़गांव में रहते समय मीरजुमला कई बीमारियों का शिकार हो गया। इधर उसके सैनिक भी उससे अपना गृह स्थान वापस लौटने का अनुरोध करने लगे। अंततः उसने आहोम साम्राज्य छोड़ने का फैसला कर स्वर्गदेव के साथ एक समझौता किया। समझौते के अनुसार नकदी और सामान के अलावा उसने स्वर्गदेव की एकमात्र बेटी रमनी गाभरू को औरंगजेब के बेटे के लिए मांग की। रमनी गाभरू लाचित बरफुकन की भांजी थी। आठ साल की रमनी गाभरू का अपने माता-पिता से अलग होने का हृदयस्पर्शी घटना का लाचित प्रत्यक्षदर्शी था। यह घटना उसके लिए अत्यंत दुखदायी थी। उसी दिन लाचित बरफुकन ने मुगलों से प्रतिशोध लेने की शपथ ली। उसने मुगलों को असम से पूरी तरह उखाड़ फेंकने का निश्चय किया और सेना प्रमुख का पद भार मिलते ही उसने लंबी तैयारी के साथ अपने सैनिकों के सर्वांगीण विकास, विशेषकर मुगलों के खिलाफ युद्ध में सहायक युद्ध कौशलों का प्रशिक्षण प्रारंभ कर दिया।

स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह ने लाचित बरफुकन को आहोम साम्राज्य का सेनापति नियुक्त किया था। बचपन में अपने पिता द्वारा आक्रमणकारियों के बारे में सुनने के बाद से ही लाचित के मन में मुगलों से लड़ने की ज्वाला धधक रही थी। आहोम राज्य के सेनापति का पद भार संभालते ही लाचित ने अपने सैनिकों को हर युद्ध कौशल से प्रशिक्षित करना प्रारंभ कर दिया और उन्हें दुश्मनों से लड़ने के लिए सबसे योग्य बना दिया। लाचित ने बिना एक पल गँवाये अपने देश के गौरव को पुनःस्थापित करने हेतु देशवासियों को प्रशिक्षित करने में व्यस्त हो गया। वह अपने देश से इतना प्यार करता था कि वह कभी भी आक्रमणकारियों के साथ समझौता करने की नहीं सोच सकता था।

आहोम साम्राज्य के अन्तर्गत निचले असम का एक भाग, जिसे मुगलों के हाथ से आहोम छुड़ा चुके थे, उस भाग को मुगल बादशाह औरंगजेब पुनः प्राप्त करने को लेकर बहुत उत्साहित था। औरंगजेब ने इस क्षेत्र को अपने अधीन कर अपना साम्राज्य विस्तार हेतु आहोमों पर चढ़ाई के लिए राम सिंह के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजने की योजना बनाई। लाचित बरफुकन के लिए यह एक बड़ी चुनौती थी। इसकी तैयारी के लिए उसने अपने सैनिकों को अत्यंत सावधानी से प्रशिक्षित करना प्रारंभ कर दिया। राम सिंह के पूरी सेना के साथ असम की ओर कूच करने की सूचना मिलते ही लाचित बरफुकन ने स्वर्गदेव से मुलाकात की और मुगलों के खिलाफ लड़ने की अनुमति मांगी। आगामी युद्ध के संदर्भ में मंत्री आतन बूढ़ागोहाँई के साथ सभी प्रकार की रणनीतिक चर्चाएं हुईं। लाचित बरफुकन और आतन बूढ़ागोहाँई दोनों इस बात पर एकमत थे कि मुगलों को हराने के लिए जल युद्ध सबसे अच्छा विकल्प रहेगा और इसके लिए विशाल ब्रहपुत्र नदी उचित स्थान होगी। मुगलों को रोकने के लिए लाचित ने ब्रह्मपुत्र की चारों ओर मिट्टी एक बड़ी दीवार (परकोटे/ गढ़) तैयार करने की योजना बनाई। इस कार्य में लापरवाही करने के कारण लाचित ने अपने मामा को भी मारने से भी नहीं हिचकिचाया। थोड़ी थोड़ी दूरी पर तोपें तैनात कर दी गईं। सैनिकों के लिए जगह जगह बंकर खोदे गए। साथ ही ब्रह्मपुत्र नदी पर भारी संख्या में युद्ध नौकाएँ लगा दी गईं। लाचित बरफुकन नदी के तट पर मुगलों से दो-दो हाथ करने के लिए डट गया। असम पहुंच कर मुगल सेना कुछ महीनों तक अलाबोई की पहाड़ी पर रुकी रही। लंबे समय तक दोनों पक्षों में से कोई भी युद्ध नहीं छेड़ रहा था। इससे स्वर्गदेव के सब्र का बांध टूट गया और लाचित को मुगलों पर हमला करने का आदेश दिया। लाचित ने स्वर्गदेव को यह समझाने की भरपूर कोशिश की कि उनके सैनिक स्थल युद्ध में पारंगत नहीं हैं लेकिन स्वर्गदेव अपनी बात पर अड़े रहे। अंत में लाचित ने अपने सैनिकों को मुगलों के खिलाफ लड़ने का आदेश दिया पर वे मुगलों के घुड़सवार सेना के सामने टिक न पाए। बड़ी संख्या में आहोम सैनिक मारे गए क्योंकि मुग़ल ज़मीन के साथ-साथ घुड़सवार सेना युद्ध में भी काफी मजबूत थे। इस युद्ध से लाचित को बड़ा सदमा लगा। वह अपने सैनिकों की अकारण मृत्यु को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। आतन बूढ़ागोहाँई ने लाचित को सांत्वना देकर उसे इस स्थिति से उबारा।

अंततः मुगलों को युद्ध के लिए ब्रह्मपुत्र नदी में उतरना पड़ा। नदी में लड़े गए इस युद्ध को ‘शराइघाट का युद्ध’ के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध के दौरान लाचित बरफुकन तेज बुखार से ग्रस्त हो गया। वह ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था फिर भी कुछ सैनिकों की सहायता से नाव तक पहुँचा। बीमारी की हालत में ही लाचित के नेतृत्व में मुगलों के खिलाफ यह ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया और अपने पराक्रम से मुगलों को हराया। युद्ध के अंत में मुगल सेनापति राम सिंह ने आहोम सैनिकों का लोहा मानते हुए यह स्वीकार किया कि प्रत्येक आहोम सैनिक युद्ध में हर प्रकार की रणनीति में कुशल हैं। इन्हे पराजित करना असंभव है। राम सिंह ने यह भी माना कि यह केवल लाचित बरफुकन द्वारा अपने सैनिकों को हर प्रकार से प्रशिक्षित करने के कारण संभव हुआ। मुगलों के विरुद्ध युद्ध जीतना लाचित बरफुकन की सबसे बड़ी सफलता थी। इससे असमिया लोगों के मन में खुशी की लहर दौड़ गई। लेकिन यह खुशी अधिक समय तक नहीं रह सकी क्योंकि युद्ध के कुछ दिन बाद लाचित की मृत्यु हो गई।

लाचित बरफुकन न केवल स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह के अधीन उनके सैनिकों का प्रमुख था, बल्कि एक सच्चा देशभक्त भी था, जो अपनी मातृभूमि को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करता था। अपनी मातृभूमि को सम्मान करने की प्रेरणा उसे अपने पिता मोमाई तामुली बरबरुआ से मिली थी। लाचित मातृभूमि हेतु अपने जीवन का बलिदान देने के लिए सदैव तत्पर रहता था और इसके हित के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। मातृभूमि के प्रति सम्मान करने का संस्कार उसमें बचपन में ही अंकुरित हुआ था और शराइघाट के युद्ध में इसे प्रदर्शित भी किया। यह पराक्रमी नायक अपनी मातृभूमि के प्रति इस असीमित योगदान के लिए युगों युगों तक सम्मान का पात्र बना रहेगा। एक बार उसने कहा था– “जब तक खून की आखिरी बूंद मेरे अंदर रहेगी तब तक मैं विदेशियों को एक पग भर भी मिट्टी नहीं दूंगा।” हमें लाचित बरफुकन का असमिया के रूप में नहीं, बल्कि मराठा वीर शिवाजी महाराज की तरह देश के एक महान योद्धा के रूप में सम्मान करना चाहिए।

(लेखक विद्या भारती पूर्वोत्तर क्षेत्र के मंत्री है।)

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