✍ गोपाल माहेश्वरी
“गुरुदेव! प्रणाम।” अनिरुद्ध ने बैठक कक्ष में प्रवेश कर सामने बैठे हुए अपने शिक्षक विद्वांस जी के चरण स्पर्श किए।
“आओ आओ अनिरुद्ध! कैसे हो? सब कुशल मंगल है?” विद्वांस जी ने अपने हाथों में पकड़े हुई किसी ग्रंथ में जुड़ी पतली डोरी को पढ़े जा रहे पृष्ठ पर रखा और ग्रंथ बंदकर, मस्तक से लगा मेज पर रख दिया। वे आगंतुक नवयुवक से कुशल-क्षेम पूछने लगे।
अनिरुद्ध ने संकुचित होते हुए कहा “आपके आशीर्वाद से सब मंगल है गुरुजी! मैंने आपके स्वाध्याय में व्यवधान उत्पन्न कर दिया” उसने हाथ जोड़े कहा।
“नहीं नहीं! मैंने तुम्हें बताया था न? शिक्षण का अंतिम पद स्वाध्याय और प्रवचन है। प्रवचन भला शिष्य के सहयोग के बिना कैसे सम्पन्न हो सकता है? तुम जैसे जिज्ञासु शिष्य का आगमन मेरे लिए सदैव व्यवधान नहीं संधानकारक ही होता है। शेष यह चर्चा तो होगी, पर पहले कुछ अपनी सुनाओ। कई दिनों पश्चात् आगमन हो रहा है!” विद्वांस जी के मुखमंडल पर अपने प्रिय छात्र से भेंट का आनंद झलक रहा था।
“गुरुदेव! आपकी कृपा से शासकीय सेवा में शिक्षक के रूप में अवसर मिला है।” अनिरुद्ध ने उठकर पुनः चरण छूकर निवेदन किया
“अभिनंदन, अभिनंदन! भगवती शारदा आपका पथ प्रशस्त करे।” आशीर्वाद की मुद्रा में गुरु के हाथ उठ गए पर शिष्य असहज हो उठा।
“आपने मुझे आप कहा? मुझसे कोई त्रुटि हो गई गुरुजी?” अनिरुद्ध के स्वर में करुणा व्याप्त हो गई।
“अरे! अब आप एक सबके आदरणीय पद पर प्रतिष्ठित हो चुके हैं, अतः अनिरुद्ध को नहीं, पर उसके शिक्षकत्व को तो आप कहना ही शोभनीय होगा न?” विद्वांस जी ने समाधान किया।
पूर्णत: संतुष्ट न होते हुए भी श्रद्धावश अनिरुद्ध ने गुरुजी से कोई वितर्क नहीं किया, किन्तु मन का द्वंद्व प्रकट करते हुए बोला “शासकीय सेवा है गुरुदेव! आपके बताए आदर्शों का निर्वाह कितना व कैसे होगा? सोचता हूँ यह दायित्व स्वीकार ही न करूं।”
शिष्य का हताश स्वर गुरु को न रुचा। पास में रखा रेशमी वस्त्र में लिपटा एक ग्रंथ अनिरुद्ध के हाथों देकर बोले” यह है मेरा उत्तर। खोलो इसे, मैंने पढ़ाया है यह। ग्रंथ मन की सब ग्रंथियां खोल देते हैंं।”
अनिरुद्ध ने मस्तक से स्पर्श कर ग्रंथ खोला और आवरण देखकर बुदबुदाया ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ उसने पुनः मस्तक से पुनः हृदय से लगाया और उत्सुकता से गुरुजी के मुख की ओर देखने लगा।
“मस्तक और हृदय से मात्र स्पर्श न करो, गीता को मन-मस्तिष्क में ऐसे समाहित कर लो कि जीवन के प्रत्येक कर्म में कोई द्वंद्व शेष ही न रहे।” गुरुदेव का उपदेश अनिरुद्ध में ढाढस भर रहा था।
कुछ क्षण दोनों में मौन छाया रहा। मौन बाहरी था, मानस आत्मसंवाद कर रहा था।
“आपका संकेत संपूर्ण है गुरुदेव! पर आपसे कुछ और सुनने की पिपासा है।” अनिरुद्ध अंजली बांधे कह उठा।
“सुनो अनिरुद्ध! अब हम एक ही पथ के पथिक हैं।मैं भी तो अभी शिक्षकीय दायित्व पर ही हूँ। यद्यपि मेरा संस्थान अशासकीय है तथापि मेरा अनुभव कथन संभवतः आपके लिए सरलता सृजन करे इसलिए कहता हूँ। प्रारंभ में मैं भी ऐसे ही विचार आवर्त में घिरा था। तब मेरा भी पथ प्रदर्शन भगवती गीता महारानी ने ही किया था।” वे पलभर रुके।
उन्हें सुनने को आतुर अनिरुद्ध कह उठा “वह कैसे गुरुदेव!”
वे अर्थपूर्ण स्मित बिखेरते हुए बोले “अधीर न होना ही गीता का प्रथम उपदेश है वत्स! सुनो, विगत का शोक क्या करना। वर्तमान से समाधान करो।”
“थोड़ा स्पष्टता से प्रबोधन करने की कृपा करें गुरुदेव!” विनय पूर्वक अनिरुद्ध ने कहा।
“राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू होने के पश्चात् तो मुझे अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने में आने वाला आनंद सौगुना बढ़ गया है। अब मुझे स्पष्ट अनुभूति होती है कि यह शिक्षकीय सेवा केवल आजीविका के लिए नहीं है, वरन् इस कार्य को करते हुए सचमुच राष्ट्र निर्माण ही हो रहा है। जब मैं कक्षा में अपने विद्यार्थियों की शंकाओं का समाधान कर रहा होता हूँ, तब मुझे लगता है मानो मैं किसी पाषाण-शिला के नुकीले भागों को, अपने तर्कों की पैनी छैनी से छील रहा हूँ। जब किसी विद्यार्थी की जिज्ञासाओं का समाधान कर रहा होता हूँ, मुझे लगता मैं किसी पाषाण-शिला के अंदर से, आपने ज्ञान के उपकरणों से, किसी संभाव्य दिव्यप्रतिमा के कोई अंग को प्रकट कर रहा हूँ। जब मैं अपनी ओर से किसी विषय पर कुछ समझाने-बताने लगता हूँ तो अनुभव होता है मानो कोई विशिष्ट लेप द्वारा शिला के दोषों का निवारण कर रहा हूँ।” वे रुके। अनिरुद्ध के मुख पर असमंजस की क्षीण भावरेखा भी वे पढ़ चुके थे। शिक्षक का ध्यान सदैव अपना ही ज्ञान उंडेलने में न रहे शिष्य की ग्राह्यता का सतर्कतापूर्वक आकलन करते रहना भी आवश्यक है, उनका यह अभ्यास, अब स्वभाव बन चुका था। अधीति और बोध शिक्षण के आरंभिक चरण हैं पाणिनी कहते हैं। बोध न हो तो अध्ययन क्रम आगे बढाना निष्फल होता है।
अनिरुद्ध का भी स्वभाव था कोई भी तथ्य अस्पष्ट लगे तो तत्काल पूछना। ‘परिप्रश्नेन सेवया’ गीता से ही तो पढ़ाया था गुरुदेव ने। उसने नम्र शब्दों में पूछा “पाषाण शिला! क्या विद्यार्थी निर्जीव पाषाण है गुरुदेव?”
‘सहनाववतु सहनोभुनक्तु’ के उपनिषद् वाक्य की सार्थकता प्रकट हो उठी थी इस क्षण। शिष्य की शंकाएं भी कभी-कभी गुरु को सावधान कर जाती हैं। विद्वांस जी के मुख पर आनंद झलक उठा “आप बहुत यशस्वी शिक्षक बनेंगे अनिरुद्ध! बड़ी सतर्क जिज्ञासा है आपकी। मैं अपनी त्रुटि सुधारता हूँ। आप सत्य कहते हैं विद्यार्थी पाषाण नहीं होते।” न गुरु के मन में अवमानना बोध था, न शिष्य के मन में अहंकार ‘तेजस्विनावधीतमस्तु’ के सोपान पर दोनों आनंदित थे। त्रुटि बताकर भी शिष्य श्रेष्ठ नहीं हो गया, न त्रुटि मानकर भी गुरु हीन हुआ।
अनिरुद्ध ने श्रद्धापूर्वक पूछा “तब शिष्य गुरु के लिए क्या है गुरुदेव?”
“शिक्षक जैसी ही चैतन्य मूर्तियां हैं विद्यार्थी भी। बस हमारे अध्ययन, स्वाध्याय और गुरुकृपा से यह चैतन्यता प्रखर हो चुकी है और शिष्य में प्रसुप्त। जैसे दीपक की कांच की हंडी पर काजल जमा हो तो उसका प्रकाश अवरुद्ध होकर बाहर फैलने में असमर्थ होता है, वैसे ही विद्यार्थियों के मानस पर जमी अज्ञान के काजल को पौंछने का दायित्व है हमारा बस। यह भी भगवती गीता ने समझाया है।”
“कैसे भगवन्?” अनिरुद्ध ने जानना चाहा।
“गीता के उपदेशक हैं भगवान श्रीकृष्ण और उपदेश का ग्राहक है पार्थ। यह भूमिकाएं होते हुए भी विभूतियोग में भगवान अर्जुन को बताते हैं ‘पाण्डवानां धनंजय:’ पांडवों में धनंजय यानि तू, मैं ही हूँ। देह से दो पर चेतना से एक ही हैं गुरु-शिष्य। मैं अपने अनुभव से इतना बताना चाहूंगा कि शिक्षक बनाकर भगवान ने हमें एक विशिष्टतम दायित्व दिया है, इस दायित्व को पूर्णत: निर्वाह करना ही हमारे जीवन का व्रत है। पवित्र भाव से इसमें लगे रहे, तो सामर्थ्य और सफलता भी परमात्मा ही देते रहेंगे। फिर भी किस मार्ग को अपनाएं? यह विचार बार-बार मन में द्विविधा उत्पन्न कर सकता है। द्विविधा से शीघ्र मुक्त होना चाहिए। गीता में कहा है ‘संशयात्मा विनश्यति’। हमें संशय होता है कि हमारे अपने युग की प्रचलित शिक्षा प्रणालियाँ तो हमारे संकल्प को पूरा करने में अपर्याप्त हैं। वे प्रायः विविध विषयों की आवश्यक और कभी-कभी अनावश्यक जानकारियों को विद्यार्थियों के मन में ठूंसने का कौशल ही सिखाती हैं।” वे हँस पड़े “हमें तो विद्यार्थियों के अन्तर की ज्योति के प्रकाश को बाहर लाने की सुविधा बनाना है और ये प्रचलित पद्धतियां बाहर से अंदर ठूंसना सिखाती हैं। फिर इन पद्धतियों में जो आंशिक गुणवत्ता होगी भी तो उन्हें बताने-सिखाने -समझाने वाले लोग और संस्थान प्राय: औपचारिकता ही निर्वाह करते हैं।” विचार प्रवाह थोड़ा थमा।
अनिरुद्ध बोला “इन सब से मुक्त कोई मार्ग तो होगा ही।”
“सहस्रों शताब्दियों से मेरा महान राष्ट्र ज्ञान-विज्ञान की सर्वोत्तम परंपरा में स्वयं तो अवगाहन करता ही रहा, विश्व को भी आकर्षित और आमंत्रित करता रहा कि विश्वभर में फैले सभी मानव आएं और धरती माता पर पवित्रतम हम सबकी इस भारतभूमि पर प्रवाहित ज्ञान परंपरारूपी गंगा का अमृतपान करे। किसी को रोक-टोक नहीं, सभी हमारे हैं, हमारे ही विश्वबंधु।’
अनिरुद्ध के मुख से अचानक जैसे एक दिव्य प्रकाश जैसा शब्द फूटा “भारतीय ज्ञान परंपरा।”
“हाँ, भारतीय ज्ञान परंपरा। मुझे एक लोकोक्ति स्मरण हो आती है ‘पडा़ पारस और बेचे तैल। यह देखो किस्मत का खेल।’ मैं तो तभी से कोई भी विषय पढ़ाते पर भारतीय ज्ञान परंपरा का आश्रय लेकर पढ़ाने लगा। तत्कालीन व्यवस्था तंत्र में अवरोध आते, साथी अध्यापक, प्रधानाध्यापक, निरीक्षक, अभिभावक और कोई-कोई विद्यार्थी भी पढ़ाएं जाने वाले विषयों को भारतीय परंपरा के सूत्रों, शिक्षाओं, तथ्यों, संदर्भों, उदाहरणों से जोड़ने को, विषय से भटकना, समय का अपव्यय और पोंगापंथ जैसे शब्द प्रयोगों से हतोत्साहित करते, उपहास करते। तब श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय के आरंभिक श्लोक मुझे साहस देते ‘अभयं सत्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोग व्यवस्थिति: ….……..’ अंत:करण की निर्मलता से बिना किसी भय के ज्ञान योग में स्थिरता की बात कही है योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने। ज्ञानयोग उस शिक्षा से बहुत आगे की बात है जो हमें अभी कक्षाओं में विविध विषयों के रूप में पढ़ाना होता है, पर पंथ तो यही है। लक्ष्य भी ज्ञानयोग की सिद्धि ही होना चाहिए। इस पथ पर चलते हुए हम गुरु-शिष्य जब भी लक्ष्य तक पहुंच सकें, लेकिन लक्ष्य पाना ही है तो चलते रहने का कोई विकल्प नहीं है।’ वे अनिरुद्ध से कहते-कहते जैसे स्वयं से कहने लग गए थे, फिर आंखें कक्ष के अंतस्थ अंतरिक्ष की ओर उठाकर बोले “और परमपिता कितनी ममता रखते हैं हम पर, राष्ट्रीय शिक्षा नीति का सारे राष्ट्र के लिए निर्धारण हो गया। अब हमें कौन रोक सकेगा भारतीय ज्ञान परंपरा से भारत के भविष्य रूप विद्यार्थियों की आत्मज्योति को प्रकट करने की साधना से? आज के लिए वार्ता को यहीं विराम देते हैं अनिरुद्ध! मुझे आज पढ़ाए जाने वाले पाठ के लिए कुछ पूर्व तैयारी करना शेष है।”
“मेरे लिए क्या आज्ञा है गुरुदेव!” अनिरुद्ध हाथ जोड़कर बोला।
“आज्ञा तो परमात्मा ने दे ही रखी है गीता जी में ‘तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:’ लो इसे सदैव साथ रखना, भगवती गीता आपकी पथ-प्रदर्शिका रहेगी।” अपने नित्यपाठ की गीताजी की पोथी शिष्य को सौंपते हुए वे अत्यंत आनंदित थे। शिष्य ने यह अनमोल ज्ञानप्रसादी मानकर श्रद्धापूर्वक मस्तक पर धारण की।
विद्वांस जी अनिरुद्ध को द्वार तक छोड़ने आए। नतमस्तक हो अनिरुद्ध ने गुरुदेव से विदा ली। विद्वांस जी अपने शिष्य को तब तक देखते रहे जब तक वह दृष्टि-पथ से ओझल न हो गया।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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