डॉ. भीमराव आंबेडकर के विचारों को सही अर्थों और संदर्भों में आत्मसात करना आवश्यक

✍ प्रणय कुमार

भारतरत्न बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर अपने अधिकांश समकालीन राजनीतिज्ञों की तुलना में राजनीति के यथार्थ की ठोस एवं अच्छी समझ रखते थे। नारों एवं भाषणों की वास्तविकता वे अच्छे से समझते थे। जाति-भेद व छुआछूत के अपमानजनक दंश को उन्होंने मात्र देखा-सुना-पढ़ा ही नहीं, अपितु भोगा भी था। तत्कालीन जटिल सामाजिक समस्याओं पर उनकी तीखी दृष्टि थी। उनके समाधान हेतु वे आजीवन प्रयासरत रहे। परंतु उल्लेखनीय है कि उनका समाधान वे परकीय दृष्टि से नहीं, बल्कि भारतीय दृष्टिकोण से करना चाहते थे। स्वतंत्रता, समानता, बंधुता पर आधारित समरस समाज की रचना का स्वप्न लेकर वे आजीवन चले। उनकी अग्रणी भूमिका में तैयार किए गए संविधान में उन स्वप्नों की सुंदर छवि देखी जा सकती है। वंचितों-शोषितों-स्त्रियों को न्याय एवं सम्मान दिलाने के लिए किए गए उनके महत कार्य उन्हें महानायकत्व प्रदान करने के लिए पर्याप्त हैं।

वे भारत की जड़-ज़मीन-मिट्टी-हवा-पानी से गहरे जुड़े थे। इसीलिए वे कम्युनिस्टों की वर्गविहीन समाज की स्थापना एवं द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को कोरा आदर्श मानते थे। देश की परिस्थिति-परिवेश से कटी-छँटी उनकी मानसिकता को वे उस प्रारंभिक समय में भी पहचान पाने की दूरदृष्टि रखते थे। उन्होंने 1933 में महाराष्ट्र की एक सभा को संबोधित करते हुए कहा कि “कुछ लोग मेरे बारे में दुष्प्रचार कर रहे हैं कि मैं कम्युनिस्टों से मिल गया हूँ। यह मनगढ़ंत और बेबुनियाद है। मैं कम्युनिस्टों से कभी नहीं मिल सकता क्योंकि कम्युनिस्ट स्वभावतः धूर्त्त होते हैं। वे मजदूरों के नाम पर राजनीति तो करते हैं, पर मज़दूरों को भयानक शोषण के चक्र में फँसाए रखते हैं। अभी तक कम्युनिस्टों के शासन को देखकर तो यही स्पष्ट होता है।”

इतना ही नहीं उन्होंने नेहरू सरकार की विदेश नीति पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ”हमारी विदेश नीति बिल्कुल लचर है। हम गुटनिरपेक्षता के नाम पर भारत की महान संसदीय परंपरा को साम्यवादियों (कम्युनिस्टों) की झोली में नहीं डाल सकते।” हमें अपनी महान परंपरा के अनुकूल रीति-नीति बनानी होगी।

वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 1952 में नेहरू सरकार की यह कहते हुए आलोचना की थी कि उसने सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ”भारत अपनी महान संसदीय एवं लोकतांत्रिक परंपरा के आधार पर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा-परिषद का स्वाभाविक दावेदार है। और भारत सरकार को इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।” 1953 में तत्कालीन नेहरू सरकार को सचेत करते हुए उन्होंने चेताया कि ”चीन तिब्बत पर आधिपत्य स्थापित कर रहा है और भारत उसकी सुरक्षा के लिए कोई पहल नहीं कर रहा है, भविष्य में भारत को उसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगें।” तिब्बत पर चीन के कब्ज़े का उन्होंने बहुत मुखर विरोध किया था और इस मुद्दे को विश्व-मंच पर उठाने के लिए तत्कालीन नेहरू सरकार पर दबाव भी बनाया था।

वे नेहरू जी द्वारा कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने की मुखर आलोचना करते रहे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ”कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है और कोई भी संप्रभु राष्ट्र अपने आंतरिक मामले को स्वयं सुलझाता है, कहीं अन्य लेकर नहीं जाता।” शेख अब्दुल्ला के साथ धारा 370 पर बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि ”आप चाहते हैं कि कश्मीर का भारत में विलय हो, कश्मीर के नागरिकों को भारत में कहीं भी आने-जाने-बसने का अधिकार हो, पर शेष भारतवासी को कश्मीर में आने-जाने-बसने का अधिकार न मिले। देश के क़ानून-मंत्री के रूप में मैं देश के साथ ऐसी गद्दारी और विश्वासघात नहीं कर सकता।” नेहरू की सम्मति के बाद भी अब्दुल्ला को उनका यह दो-टूक उत्तर उनके साहस एवं देशभक्ति का आदर्श उदाहरण था।

जिन्ना द्वारा छेड़े गए पृथकतावादी आंदोलन और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को मिले लगभग 90 प्रतिशत मुस्लिमों के व्यापक समर्थन पर उन्होंने कहा- ”पूरी दुनिया में रह रहे मुसलमानों की एक सामान्य प्रवृत्ति है, कि उनकी निष्ठा अपने राष्ट्र-राज्य (नेशन स्टेट) से अधिक अपने पवित्र स्थानों, पैग़ंबरों और मज़हब के प्रति होती है। मुस्लिम समुदाय राष्ट्रीय समाज के साथ आसानी से घुल-मिल नहीं सकता। वह हमेशा राष्ट्र से पहले अपने मज़हब की सोचेगा।” मज़हब के प्रति मुस्लिम समाज की कट्टर एवं धर्मांध सोच पर इतनी स्पष्ट एवं मुखर मत रखने वाला व्यक्ति उस समय भारतीय राजनीति में शायद ही कोई और हो! मज़हब के आधार पर हुए विभाजन के पश्चात तत्कालीन काँग्रेस नेतृत्व द्वारा मुसलमानों को उनके अंश का भूभाग (कुल भूभाग का 35 प्रतिशत) दिए जाने के बाद भी उन्हें भारत में रोके जाने से वे सहमत नहीं थे। उन्होंने इस संदर्भ में गाँधी जी को पत्र लिखकर अपना विरोध व्यक्त किया था। आश्चर्य है कि उस समय मुस्लिमों की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 22 प्रतिशत थी और उस बाइस प्रतिशत में से मात्र 14 प्रतिशत मुसलमान ही पाकिस्तान गए। उनमें से आठ प्रतिशत यहीं रह गए। इतनी कम जनसंख्या के लिए अखंड भारत का इतना बड़ा भूभाग देने को आंबेडकर ने मूढ़ता का पर्याय बताने में संकोच नहीं किया था। इतना ही नहीं उन्होंने इस्लाम में महिलाओं की वास्तविक स्थिति पर भी विस्तृत प्रकाश डालते हुए बुर्क़ा और हिज़ाब जैसी प्रथाओं का मुखर विरोध किया। उनका मानना था कि जहाँ हिंदू-समाज काल-विशेष में प्रचलित रूढ़ियों के प्रति सुधारात्मक दृष्टिकोण रखता है, वहीं मुस्लिम समाज के भीतर सुधारात्मक आंदोलनों के प्रति मात्र उदासीनता ही नहीं, अपितु नकारात्मकता देखी जाती है।

दलित राजनीति करने वाले तमाम दल और नेता सेवा-बस्तियों में सर्वाधिक सेवा-कार्य करने के बाद आज भी संघ को प्रायः अस्पृश्य समझते हैं। परंतु उल्लेखनीय है कि डॉ. आंबेडकर संघ के कार्यक्रमों में तीन बार गए थे। विजयादशमी पर आहूत संघ के एक वार्षिक आयोजन में वे मुख्य अतिथि के रूप में सम्मिलित हुए। उस कार्यक्रम में लगभग 610 स्वयंसेवक थे। उनके द्वारा आग्रहपूर्वक पूछे जाने पर जब उन्हें विदित हुआ कि उनमें से 103 वंचित-दलित समाज से हैं तो उन्हें सुखद आश्चर्य एवं संतोष हुआ। स्वयंसेवकों के बीच सहज आत्मीय संबंध एवं समरस व्यवहार देखकर उन्होंने संघ और डॉ. हेडगेवार की सार्वजनिक प्रशंसा की थी।

तत्कालीन हिंदू-समाज में व्याप्त छुआछूत एवं भेदभाव से क्षुब्ध एवं पीड़ित होकर उन्होंने अपने अनुयायियों सहित अपना धर्म अवश्य परिवर्तित कर लिया। परंतु उनके धर्म-परिवर्तन में भी एक अंतर्दृष्टि झलकती है। और ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने यह सब अकस्मात् एवं त्वरित प्रतिक्रियावश किया। पहले उन्होंने निजी स्तर पर सामाजिक जागृति के बहुत कार्यक्रम चलाए, तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक नेताओं से बार-बार वंचित-शोषित समाज के प्रति उत्तम व्यवहार, न्याय एवं समानता के लिए अनुरोध किया था। जब उन सबका व्यापक प्रभाव नहीं पड़ा, तब कहीं जाकर अपनी मृत्यु से दो वर्ष पूर्व उन्होंने अपने अनुयायियों सहित धर्म परिवर्तन किया। पर ध्यातव्य है कि उन्होंने भारतीय मूल के बौद्ध धर्म को अपनाया, जबकि उन्हें और उनके अनुयायियों को लुभाने के लिए दूसरी ओर से बहुत प्रयास हो रहे थे। पैसे और बल का प्रलोभन दिया जा रहा था। पर वे भली-भाँति जानते थे कि भारत की सनातन धारा आयातित धाराओं से अधिक स्वीकार्य, वैज्ञानिक एवं लोकतांत्रिक है। उनकी प्रगतिशील और सर्वसमावेशी सोच की झलक इस बात से भी मिलती है कि उन्होंने आरक्षण जैसी व्यवस्था को जारी रखने के लिए हर दस वर्ष बाद आकलन-विश्लेषण का प्रावधान रखा था। यह जाति-वर्ग-समुदाय से देशहित को ऊपर रखने वाला व्यक्ति ही कर सकता है।

अच्छा होता कि उनके नाम पर राजनीति करने वाले सभी दल और नेता उनके विचारों को सही अर्थों में आत्मसात करते और उनकी बौद्धिक-राजनीतिक दृष्टि से सीख लेकर समरस समाज की संकल्पना को साकार करते!

(लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तंभकार है।)

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