पृथ्वी तत्त्व विज्ञान

✍ डॉ. धीरेन्द्र झा

हमारा जीवन एक यज्ञ हैं। हम इसमें वायु, जल, अन्न तथा प्रकाश के रूप में ऊर्जा की आहुति डालते रहते हैं। इससे इस यज्ञ ही होमाग्नि-जीवनशक्ति प्रज्जवलित रहती हैं। यह जीवन शक्ति ही हमें महान कार्य करने तथा उससे अपनी तथा दूसरों की भलाई करने के योग्य बनाती हैं।

होमाग्नि शुद्ध और तेजस्विनी हो, इसके लिए यह आवश्यक हैं कि आहुतियों को शुद्ध रखा जाये। हमारी शक्ति समृद्ध और लम्बे समय तक बनी रहे, इसके लिए यह आवश्यक हैं कि हमारे द्वारा ग्रहण की जाने वाली ऊर्जा शुद्ध हो।

वैदिक ऋषियों ने इस ओर ध्यान दिया था, उन्होनें प्राकृतिक ऊर्जा तथा पर्यावरण को शुद्ध रखने पर काफी ध्यान दिया था। सूर्य, अग्नि, वायु, आकाश और भूमि को देवता मानने एवं इनके महत्व का बार-बार विस्तार से व्याख्यान करने के पीछे भी बहुत अंशों में यही सत्य छिपा हुआ हैं। हमारे प्रचेताओं महर्षियों ने सर्वदा प्राकृतिक संतुलन पर जोर देते हुए कहा हैं- “द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ॐ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्ति विश्वेदेवाः शान्ति ब्रह्यशान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सामाशान्तिरेधि। (शु.यु.सं. 36/17)

वेदो में द्यौस् की पिता और पृथ्वी की माता के रूप में अनेकों बार स्तुति की गयी हैं। ऋग्वेद प्रायः अपने सम्पूर्ण अंशों में ऐसी स्तुतियों का एक विशाल संग्रह है। ऋग्वेद में द्यौस् को पिता की संज्ञा दी गई हैं-

द्यौर्नः पिता जनिता नाभियत्र, बन्धुर्नो पृथिवी महीयम्।

उतानयोच्ञम्वोर्योनिरन्तरत्रा, पिता दुहितुर्गर्भमाधात्।।

(ऋ.सं. 1/164/33)

द्युः अर्थात् स्वर्ग लोकस्थ सूर्य मंडल हमें उत्पन्न करने वाला हैं। उससे संबद्ध एवं अन्तरिक्ष में विस्तृत फैली हैं। यह पृथ्वी हमारी माता हैं। ऊर्ध्वमुख इन दोनों लोकों के मध्य में हमारा स्थान हैं और यही पिता सूर्य ने गर्भाधान किया हैं। आचार्य यास्क के अनुसार देवता मुख्यतः तीन हैं- पृथ्वी का देवता अग्नि, अन्तरिक्ष का वायु और स्वर्ग या द्युलोक् का आदित्य। “अग्निः पृथिवी स्थानों, वायुर्वेन्द्रो वा अन्तरिक्ष स्थानः सूर्योद्युस्थानः” (निरूक्त दैवतकाण्ड सप्तम अध्याय, द्वितीय पाद)। शतपथ ब्राह्मण की पुरच्ञरण श्रुति में कहा गया है कि ऋक् यजुः और साम नाम की जो त्रयी विद्यायें हैं, उनमें पृथ्वी ऋक् अंतरिक्ष यजुः और द्युलोक साम हैं। (शतपथब्राह्मण 4/6/7/1-5)। अर्थात् द्युलोक और पृथ्वी ये विश्व के माता-पिता कहे गये हैं। प्रत्येक प्राणी या केन्द्र के लिए द्यावा-पृथिवी की एक संज्ञा रोदसी हैं। रोदसी वह लोक हैं जिसमें कोई भी नई सृष्टि माता-पिता के बिना नहीं होती हैं। वृक्ष-वनस्पतियों से मनुष्यों तक जितनी योनियाँ हैं, सबमें माता-पिता का द्वन्द्व अनिवार्य हैं। एक-एक पृष्प माता-पिता, योष-वृषा या पुरूष स्त्री के इस द्वन्द्व की सत्ता हैं। द्युलोक और पृथिवी के इस द्वन्द्व के बिना प्राण या जीवन का जन्म संभव नहीं। अर्थात् जिस प्रकार रोदसी विश्व में माता और पिता अनिवार्य हैं, उसी प्रकार रोदसी में जितनी प्राणिक सृष्टि हैं वह अन्न-अन्नाद के नियम के अधीन हैं। शतपथ ब्राह्मण (2/8/2/18) में कहा गया हैं – “पृथिवी गौ है, जो अनन्त वृक्ष-वनस्पति को प्रतिवर्ष जन्म देती हैं। ऐसे ही विश्व के प्राणिमात्र की जितनी माताएँ हैं, सब गौ के रूप हैं। सूर्य की रश्मियाँ गौएँ हैं, जो अपनी गति से समस्त संसार में विचरण करती हैं और जिस पृथ्वी से उनका सम्पर्क होता है, उसे वे गर्भधारण की क्षमता प्रदान करती हैं। सूर्य की उष्णता से ही पृथ्वी गर्भित होती हैं। पृथ्वी के सूर्य के आकर्षण विज्ञान का तैत्तिरीयारण्यक में प्रश्नोत्तरात्मक शैली में स्पष्टीकरण हुआ हैं –

“अनवर्णे इमें भूमी इयं चासो च रोदसी। किं स्विदत्रान्तराभूत येनेसे विधृते उभे।। विष्णुना विधृते भूमी इति वत्सस्य वेदना।। इरावती धेनुमती हि भूतं सूयवसिनी मनुषे दशस्या। व्याप्तभाद्रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवी मभितो मयूखैः।।”

अर्थात् सुन्दर वर्णवाली ये दोनों भूमि- यह पृथ्वी और सूर्य का मण्डल जो अन्तरिक्ष रूप् समुद्र के दोनों तट है, इनके मध्य में ऐसी कौन सी वस्तु हैं, जिसने इन दोनों को पकड़कर अपने-अपने स्थान में दृढ़ कर रखा हैं? यह प्रश्न उठता हैं। इसका उत्तर है कि इन दोनों को विष्णु ने धारण कर रखा है ऐसा वत्स ऋषि का विज्ञान हैं। जिसकी ऋग्वेद संहिता के इस मंत्र से पुष्टि होती हैं –

इरावती धेनुमती हि भूत, सूयवसिनी मनुषे दशस्या। व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवी मभितों मयूखैः।

(7/99/3/5)

अर्थात् हे द्यावा पृथिवी! तुम दोनों स्तुति करने वाले और हवि देने वाले यजमान के लिए अन्न युक्त, गौयुक्त और सुन्दर तुणयुक्त बनों। मन्त्र के उत्तरार्ध में विष्णु को कहा गया हे कि वे विष्णु! अपने इन दोनों को अपने स्थान पर दृढ़ कर रखा है और अपने किरण जाल से पृथ्वी को धारण कर रखा हैं।

किन्तु यह प्रश्न उठता है कि आखिर किस तरह विष्णु इस पृथ्वी को सूर्य की किरणों से धारण करता हैं? जिसका समाधान करते हुए म.म.पं. श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी महाशय ने लिखा है कि पर्वतों से भगवान विष्णु ने पृथ्वी को धारण कर रखा हैं। इसे स्पष्ट करते हुए शतपथ ब्रह्मण के 14वें काण्ड (वृहदारण्यक उपनिषद) में लिखा है कि- “यथाग्निगर्भा पृथिवी यथाद्यौरिन्द्रेण गर्भिणी।।”

अर्थात् पृथ्वी में अग्नि-प्राण व्याप्त हैं और द्युलोक सूर्य मंडल में इन्द्र प्राण व्याप्त हैं। वही इन्द्र प्राण सूर्य की दीप्ति और प्रकार का कारण हैं क्योंकि सूर्य ही अमृत और मर्त्य दोनों को अपने-अपने स्थान में स्थित करता हैं। सूर्य मण्डल के ऊपर के लोक अमृत कहलाते हैं और नीचे के लोग मर्त्य कहे जाते हैं। सृष्टि-विज्ञान वर्णन के क्रम में पृथिवी की उत्पत्ति कैसे हुई इस विषय में शतपथ ब्राह्मण में बताया गया है कि-

“सोऽकामयत। भूय एव स्यात्प्रजायेतेति, सोऽश्रम्यत् स तपोऽतप्यत् स श्रान्तस्तेपानः फेनमसृजत्। सोऽवेदन्यद्वा एतद्रूपम्। भूयो वै भवति श्राम्याणयेवति। स श्रान्तस्तेपानों मृदं शुष्कापमूष सिकतं शर्करामश्मानमयो हिरण्यमोषधिवनस्पत्यसृजत् तेनेमां पृथिवीं प्राच्छादयत्।।” (श.प.ब्रा. काण्ड-6 अ.1ब्रा.1क-13)

अर्थात् जल के ऊपर वायु भ्रमण करता रहता है, जब किसी अवसर पर जल के स्तर को ऊँचा उठाकर वायु उसके भीतर प्रविष्ट हो जाता है तब बुलबला बन जाया करता हैं। वायु जब निकल जाता है, तब बुलबुला खत्म होकर जल में मिल जाता है, ऐसी घटनायें जलाशयों में प्राय होती ही रहती है। किन्तु जब कभी ऐसा अवसर आता है कि जल का स्तर घनीभूत हो जाये और वह वायु को निकलने न दे, तब वायु की रूक्षता एवं जल की स्निग्धता इन दोनों विरूद्ध धर्मों का परस्पर संघर्ष होने से दोनों तत्व तिरोहित हो जाते हैं और एक तीसरी वस्तु बन जाती है जिसको “फेन” कहते है। इस पर सूर्य रश्मियों का प्रतपन होता रहता हैं और वायु में संक्रमण से चिक्कण तत्व उसमें प्रविष्ट होता रहता हैं। इस तरह की आवागमन रूप प्रक्रिया से तीसरी अवस्था मृत्स्ना या पाँक का निर्माण होता हैं। इस पाँक पर पुनः वायु और सूर्य किरणों के संघर्ष से “सिकता” सूर्य किरणों की प्रखरता का अधिक समावेश होने पर “सर्करा” (कठोर मृतिका) बनती है और आगे वही पत्थर के रूप में परिणत हो जाता हैं। पत्थर से लोहा और आगे भिन्न-भिन्न धातु सूर्य किरणों के अधिक प्रवेश से बनता हैं अतः इसे “तैजस” कहा जाता हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में आठ अवस्थाओं के संघात को ही पृथ्वी कहा गया है। जब से उत्पन्न होने के कारण पृथ्वी को ‘पुष्करपर्ण’ भी कहा जाता हैं। आठ प्रकार के तत्व समुद्र जल में व्याप्त रहते हैं। जब एक विशेष प्रकार की वायु जो चारों ही दिशाओं में अपना वेग रखती हो, चलती है, उससे ये सब तत्व एकत्र हो जाते हैं। उसी वायु के दबाव में घनीभूत होकर वे तत्व विशीर्ण नहीं होते हैं उसी वायु का नाम श्रुतियों में वराह रखा गया हैं। वराह शब्द ‘वृ’ और ‘अह’ दो धातुओं से मिलकर बना हैं। वह वायु चारों तरफ पृथ्वी पिण्ड को घेरकर संघात रूप बना देती हैं। एतदर्श इस वायु का नाम वराह रखा गया हैं। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया हैं कि –

“इयत्यग्र आसीद् द्वितीयतों वा इयमग्रे पृथिव्यास प्रादेशमात्री। तामेमूष इति वराह उज्जधान।।”

(श.प.ब्रा.14/12/11)

वेद में पृथ्वी को भूमि, क्षम, क्षा, मा, मही, उर्वी, पृथिवी, गौ, उत्ताना, अपारा, इदम् इत्यादि विभिन्न नामों से संबोधित किया गया हैं। ऋग्वेद में अश्वमेध यज्ञ के ब्रहोद्य प्रकरण में पृथ्वी को गोल बताया गया हैं यथा –

“पृच्छामित्वा परमन्तं पृथिव्याः पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः। इयं वेदि परो अन्तः पृथिव्या, अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः।।”

(ऋ.सं.1/164/34-35) (यजु. 23/61)

ऋग्वेद भाष्य में इस मंत्र की व्याख्या करते हुए श्री माधवाचार्य ने यह ब्राह्मण श्रुति उद्धृत की हैं –

“एतावती वै पृथिवी यावती वेदिरिति श्रुतेः।।”

अर्थात् जितनी वेदी है उतनी ही पृथ्वी हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण पृथ्वी रूपी वेदी पर सूर्य किरणों के सम्बन्ध से आदान-प्रादान रूप यज्ञ बराबर हो रहा हैं। अग्नि पृथ्वी में अभिव्याप्त हैं और अग्नि बिना आहुति के कभी ठहरता नहीं हैं। वह अन्नाद हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पृथ्वी का आदि-अन्त जो कुछ भी है वह वेदिमय हैं। ऋग्वेद मैं पृथ्वी का विस्तृत स्थल के रूप में वर्णन हुआ हैं यथा –

“अवंशे द्यातस्तभा यद् बृहन्तमा रोदसी आपृणदन्तरिक्षम्। स धारयत्पृथिवींपप्रथच्च सोमस्ये तामद इन्द्रञ्चकार।।”

(ऋ.सं.सू.153.2 पृ.159)

अर्थात् इन्द्र ने पृथ्वी को उठाया और उसे (पप्रथत) विस्तृत किया। पृथ्वी की उत्पत्ति (निर्माण) का वर्णन करते हुए तैतिरीय संहिता और तैत्तिरीय ब्राह्मण इसके नाम को ‘प्रथ’ (फैलाना विस्तृत करना) धातु से निष्पन्न माना है क्योंकि यह फैली हुई हैं। आचार्य यास्क ने निरुक्त में पृथिवी का निर्वचन करते हुए शाकटायन का मत प्रस्तुत करते हुए कहा हैं-

प्रथनात् पृथिनीत्याहुः किमाधारश्चेति।।

अर्थात् फैले हुए विस्तृत रहने कारण ही इसका नाम पृथ्वी पड़ा। इसे आकाश (द्यौ) ने धारण कर रखा है। ऋग्वेद में कहा गया हैं कि-

द्यौर्वः पिता पृथिवी माता सोमोभ्रातादितिः स्वसा।

अर्थात् आकाश (द्यौः) हमारा पिता पृथ्वी माता सोम भाई और अदिति हमारी बहन हैं। इसी प्रकार से ऋग्वैदिक सूक्तों में जब द्यौ के साथ इसका वर्णन हुआ हैं, तब पृथ्वी के लिए माता उपाधि का प्रयोग देखने को मिलता हैं। इसी तरह ऋग्वेद के गौपायन बंधुओं के द्वारा दृष्ट सूक्त में पृथिवी को चतुर्भृष्टि अर्थात् चार दिक् बिंदुओं वाला बताया गया हैं।

जबकि ऋषि आकृष्टामाषाः द्वारा दृष्ट सूक्त में इसके पाँच दिक् बिन्दुओं का उल्लेख हुआ हैं –

त्वे समुद्रो असि विश्ववित्कवे तमेवाः पञ्च प्रदिशो विध धमणि।

त्वं द्यां च पृथिवी चाति जभरिये तव जयोतीषि पवमानः सूर्यः।।

(ऋ.सं. 9/86)

ऋग्वेद के प्रथम मंडल में पृथ्वी के सात द्वीपों और सात स्थानों की चर्चा हुई हैं –

“अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे। पृथिव्याः सप्त धामभिः।।”

(ऋ.सं.1/22)

ऋग्वेद के अनुसार पृथ्वी, अंतरिक्ष और स्वर्ग इन तीन भागों में यह विश्व विभक्त है इन तीनों को मिलाकर त्रयी की कल्पना वैदिक विज्ञान में की गई हैं। इन तीनों लोकों का भी उपविभाजन किया गया हैं इसलिए तीन पृथ्वी, तीन स्वर्ग और तीन अंतरिक्ष का उल्लेख हुआ है, अथवा यदि विश्व को दो अर्धकों से निर्मित माना जाय तो उस दशा मे छह संसारों अथवा स्थानों (रजांसि) की चर्चा वेदों में हैं। यह उपविभाजन संभावतः पृथ्वी शब्द के बहुवचन में से तीन संसारों के वाचक के रूप में (उसी प्रकार प्रयुक्त हुआ हैं जैसे युगल पितरौ (दो पितरौ) अर्थात् पिता और माता दोनों को द्योतक हैं) शिथिल प्रयोग द्वारा ही हुआ प्रतीत होता हैं। वैदिक के अनुसार- “वेदों में आकाश और पृथ्वी का युगल रूप में मान्यता हैं जिन्हें रोदसी, क्षोणी द्यावापृथिवी आदि अन्य अनेकानेक नामों से पुकारा गया है और उसे दो अर्धक कहा यगा है गोलाकार आकाश के साथ इस संयोग द्वारा पृथ्वी के आकार परिवर्तन की धारणा का सूत्रपात हुआ है, जिसके अनुसार दोनों (आकाश और पृथ्वी) को एक-दूसरे की ओर मुंह किये हुए दो अर्ध घट (चम्वा) कहा गया हैं।

द्यावा, द्यामा और द्यावाभूमी आदि दुर्लभ पर्यायों के साथ द्यावापृथिवी प्रायः सौ बार प्रयुक्त हुआ हैं। आकाश और पृथ्वी को रोदसी अर्थात् दो लोक (दो बहने) भी कहा गया हैं। यह व्याहृति ऋग्वेद में प्रायः सौ बार आयी हैं। आकाश और पृथ्वी माता-पिता हैं जिन्हें पितरा, मातरा, जनित्री आदि कहा गया हैं। यह सृष्टि के आदि, माता-पिता हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में इनके विवाह का उल्लेख मिलता है। (ऐ.ब्रा. 4/27) । इन्होंने ने सभी प्राणियों को बसाया और उन्हें धारण करते है। यद्यपि यह स्वयं पादरहित है तथापि अपनी पादयुक्त अनेक सिद्धान्तों को धारण करते हे। ये देवों के भी माता-पिता हैं क्योंकि केवल इन्ही के लिए “देवपुत्रे” उपाधि व्यवहृत हुआ हैं। इसे बृहस्पति की माता कहा गया हैं। जलो और त्वष्टु से इसने अग्नि को उत्पन्न किया (ऋ.सं. 10/2 / 7)। यह प्रचुर मात्रा में दुग्ध, घृत, मधु और अन्न प्रदान करती हैं। यह भोजन संपत्ति और महान क्षेत्र प्रदान करती हैं।

अथर्ववेद में भी पृथ्वी के ऊपर घटित होने वाले विविध दृश्यों की गणना हुई हैं यथा-

यस्यां गायन्ति नृत्यन्ति भूम्यां मर्त्यां व्यैलबाः। युध्यन्ते यस्यामक्रन्दो यस्यां वदन्ति दुन्दुभिः। सा नो भूमिः प्रणुदतां सपत्नान् असपत्नं मा पृथ्वी कृणोतु। 

(अथर्व. सं. 12/14)

अर्थात् जिस पृथ्वी के ऊपर मनुष्य गाते और नाचते हैं, साथ ही जिसके ऊपर दुन्दुभियाँ बजाकर आपस में घोर युद्ध भी करते हैं। वह भूमि हमारे शत्रुओं को नष्ट करें और हमें कल्याण से रहने दें। मंत्रद्रष्टा ने भूमि के भौतिक स्वरूप को प्रधानता दी हैं। किन्तु अत्यंत ही स्नेहिल शब्दों में उसने पृथ्वी को अपनी माता बताया हैं। भूमि मेरी माता हैं ओर मैं उसका प्रिय पुत्र हूँ जैसे माता अपने पुत्र को दूध पिलाती है उसी प्रकार माता पृथ्वी अपने अन्नादि से मुझे पुष्ट करें –

“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः। स नो भूमिर्वि सृजतां माता पूत्राय में पयः।।”

(अथर्व. सं. 12/1/12-10)

संक्षेपतः पृथ्वी वेदों में वर्णित एक ऐसी उदार माता हैं, जो प्रत्येक प्राणी को जन्म देती है, उसका पालन करती है और फिर उसे अपने कोमत अंगो में समेट लेती हैं। ऋग्वेद में पृथ्वी का अर्थ केवल चपटी या फैली हुई भूमि माना गया हैं। मही और दृलहा शब्द पृथ्वी के विस्तार एवं स्थिरता का वाचक हैं। इस प्रकार वेदों में पृथ्वी को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं।

(लेखक वेद विज्ञान शोधार्थी है और लोक शिक्षा समिति उत्तर बिहार के परीक्षा प्रमुख है।)

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