सकल जगत में खालसा पंथ गाजे, जगे धर्म हिन्दू तुरक धुंध भाजे

 ✍ सुखदेव वशिष्ठ

विश्व में देश व धर्म की रक्षार्थ अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले महापुरुष तो अनेक मिलेंगे परंतु अपनी तीन पीढ़ियों को इस पुनीत कार्य हेतु बलिदान करने वाले विश्व में एकमेव महा-पुरुष गुरू गोविन्द सिंह जी महाराज ही होंगे। दिल्ली के चाँदनी चौक के प्रसिद्ध गुरुद्वारे का तो नाम ही शीशगंज गुरुद्वारा इसीलिए पड़ा क्योंकि वहां मुगलों ने गुरु तेग बहादुर के शीश को धड़ से अलग कर दिया था। गुरु तेग बहादुर जी किसी भी कीमत पर धर्मांतरण को तैयार नहीं थे। घटना यह थी कि उनके पिता गुरू तेग़ बहादुर जी के पास कश्मीरी हिंदुओं का एक समूह आया और उनसे औरंगज़ेब के आदेश पर कश्मीर के मुग़ल सूबेदार इफ़्तिख़ार ख़ान के हिंदुओं को यातना दे कर मुसलमान बनाने के लिये बाध्य करने की शिकायत की। गुरु तेग़ बहादुर जी के मुंह से निकला, “धर्म किसी महापुरुष का बलिदान मांग रहा है।” बालक गोविन्द राय जी तुरन्त बोले, “आपसे बड़ा महापुरुष कौन है?” गुरू तेग़ बहादुर जी ने कश्मीरी हिंदुओं से कहा, “औरंगज़ेब से कहो अगर गुरु तेग़ बहादुर मुसलमान बन जायेंगे तो हम भी बन जायेंगे।” इस घोषणा के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी भ्रमण करते हुए दिल्ली पहुंचे, जहाँ उन्हें औरंगज़ेब द्वारा मुसलमान बनने के लिये कहा गया और न मानने पर शिष्यों सहित क़ैद कर लिया गया। उनके शिष्य भाई मति दास को आरे से चीरे जाने, भाई दयाल दास को खौलते हुए पानी में उबाले जाने जैसी कई सप्ताह तक भयानक यातना देने के बाद गुरू तेग़ बहादुर जी का 11 नवम्बर 1675 को इस्लामी मुफ़्ती के आदेश पर सर काट दिया गया।

धर्म के लिए अपने पिता के बलिदान होने के बाद 10 वर्ष की अवस्था में गुरु पद पर विराजे पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी आध्यात्मिक नेता, दूरदर्शी चिंतक, बृजभाषा के अद्भुत कवि, उद्भट योद्धा थे। 1699 ईसवीं में 33 वर्ष की आयु में बैसाखी के अवसर पर आनंदपुर साहब में आपने ख़ालसा पंथ की स्थापना की। धर्मरक्षा को ही जीवन मानने वाले पूज्य गुरु गोविन्द सिंह जी की रचना ‘उग्रदंती’ में लिखित यह पंक्तियाँ ख़ालसा पंथ की स्थापना का उद्देश्य स्पष्ट करती हैं –

सकल जगत में खालसा पंथ गाजे।

जगे धर्म हिन्दू तुरक धुंध भाजे।।

भारत में मुगल शासकों के निरन्तर बढ़ते आक्रमणों से देश और धर्म को बचाने के लिए सन् 1699 में बैसाखी के दिन गुरू गोविन्द सिंह ने अपने अनुयाइयों की एक विशाल सभा बुलाई जिसे सम्बोधित करते हुए उन्होंने हाथ में नंगी तलवार लेकर प्रश्न किया कि “है कोई, जो धर्म के लिए अपने प्राण दे सके?” उनकी इस प्रेरणादायक ललकार को सुनकर बारी-बारी से दयाराम खत्री (लाहौर), धर्मदास जाट (दिल्ली), मोहकत चंद धोबी (द्वारिका), हिम्मत सिंह रसोइया (जगन्नाथ पुरी) तथा साहब चंद नाई (बिहार) से अग्रसर हुए। फ़िर क्या था, सारा निश्तेज समाज ऊर्जावान होकर उठ खड़ा हुआ। उन्होंने यहीं पर जात-पात के भेदभाव में बिखरे हिन्दू समाज को संगठित कर खालसा के रूप में खड़ा किया और इस प्रकार 13 अप्रैल 1699 ई को पंजाब के आनन्दपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना हुई।

खालसा के लक्षण पूछने पर दशमेश गुरू ने कहा कि खालसा वह है जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पर काबू पा लिया हो तथा अभिमान, पर-स्त्री गमन, पर-निन्दा तथा मिथ्या विश्वासों के भ्रमजाल से सदा दूर रहता हो। जो दीन दु:खियों की सेवा व दुर्जन-दुष्टों का विनाश कर निरन्तर श्रद्धापूर्वक प्रभु नाम के जप में लीन रहता हो।

खालसा को चरित्रवान व पराक्रमी बनाये रखने के लिए उन्होनें ‘पांच ककार’ धारण करने के लिए कहा। ये हैं – 1. कृपाण 2. केश 3. कंघा, 4. कच्छा व 5. कड़ा। पौष शुक्ल सप्तमी को पटना साहिब में प्रकट हुए गुरू गोविन्द सिंह एक बड़े समाज सुधारक थे। सती प्रथा, कन्या वध, अस्पृश्यता (छूआ-छूत) इत्यादि सामाजिक बुराईयों से दूर समानता पर आधारित सामाजिक संरचना के वे पक्षधर थे। वीरता व पराक्रम में उनका मुकाबला नहीं था।

औरंगजेब समर्थक, पंजाब के पर्वतीय नरेशों को, भंगाणी के युद्ध में पराजित किया और 1703 में उन्होंने चमकौर के युद्ध में केवल 40 सिखों की सहायता से मुगलों की विशाल सेना के छक्के छुड़ा दिए थे। इसमें गुरू गोविन्द सिंह के दो बड़े पुत्रों अजीत सिंह व जुझार सिंह के साथ पांच प्यारों में से तीन प्यारे शहीद हो गये।

सन् 1703 में सरहिन्द के नवाब वजीर खाँ ने उनके दो छोटे पुत्रों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को, इस्लाम स्वीकार न करने के कारण दीवार में जीवित चिनवा दिया। चारों पुत्रों और पत्नी की क्रूर हत्या होने के बावजूद भी गुरूजी एक महान योगी की तरह बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए, 1706 में उन्होंने खिदराना का युध्द लड़ा।

वे महान योद्धा तो थे ही, संगीत, साहित्य व कला के क्षेत्र में भी उनकी गहरी रूचि थी। वे रचनाकार कवि भी थे। उनके द्वारा रचित दशम ग्रन्थ हैं जिसमें – जापुजी  साहब, अकाल स्तुति, विचित्र नाटक, चण्डी चरित्र, चण्डी दीवार, जफरनामा, चौबीस अवतार, ज्ञान प्रबोध आदि प्रमुख हैं। उनके दरबार में 52 कवि थे। उन्होंने अपने बाद श्रीगुरुग्रन्थ साहेब को गुरू मानने का आदेश देकर गुरुता गद्दी पर आसीन किया। सन् 1666 में पटना में जन्मे प्रकाश पुंज (गुरूजी) ने सन् 1708 में नांदेड़ में गोदावरी के तट पर देह त्याग कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। उनके द्वारा जलाई गई स्वतन्त्रता की ज्योति तथा अन्याय के विरुद्ध लड़ने की भावना आज भी विश्व के लिए प्रेरणा स्त्रोत है। गऊ रक्षा के लिए उनका मत था – “यही दे हु आज्ञा तुरकन गहि खपाऊं, गऊ घात का दोख जगसों मिटाऊं।” उग्रदन्ती अर्थात्, हे मां भवानी, मुझे आशीर्वाद और आदेश दे कि धर्म विरोधी अत्याचारी तुर्कों को चुन-चुनकर समाप्त कर दूं और इस जगत से गौ हत्या का कलंक मिटा दूं। वे देवी दुर्गा भवानी के अनन्य उपासक थे। ‘खालसा’ सृजन से पहले उन्होंने शक्ति यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उनकी इच्छा थी कि अर्थात, सारे जगत में खालसा पंथ की गूंज हो, हिन्दू धर्म का उत्थान हो तथा तुर्कों द्वारा पैदा की गई विपत्तियां समाप्त हों। अपने नाम के तीनों शब्द ‘गुरु’, ‘गोविन्द’ व ‘सिंह’ को शब्दश: चरितार्थ कर देश, धर्म, इतिहास, संस्कृति व स्वाभिमान की रक्षार्थ ज्ञान के भण्डार एक श्रेष्ठ गुरु, गोविन्द की राह के पथ प्रदर्शक तथा सिंह गर्जना के साथ शत्रुओं के छक्के छुडा देने वाले गुरू गोविन्द सिंह जी यदि नहीं होते तो मुगलों के अत्याचार के आगे विवश समस्त हिन्दू समाज शायद स्वाभिमान से मुगलों का सामना न कर पाता।

(लेखक विद्या भारती पंजाब प्रांत के संपर्क प्रमुख है।)

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