✍ वासुदेव प्रजापति
जब हम अध्ययन-अनुसंधान विषय पर विचार करते हैं तो सबसे पहला विचारणीय बिन्दु प्रमाण व्यवस्था ध्यान में आता है। क्योंकि अध्ययन-अनुसंधान के समस्त ज्ञान व्यापार हेतु प्रमाण व्यवस्था की आवश्यकता होती है। आज के सारे प्रमाण पाश्चात्य हैं, भारतीय नहीं। क्या हम भारतीय प्रमाणों को ले सकते हैं? वेद और उपनिषद हमारे प्रमाण हो सकते हैं या नहीं? हमें सबसे पहले इसका निश्चय करना होगा। भगवान श्रीकृष्ण की वाणी ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ प्रमाण है या नहीं? पहले इस प्रश्न को सुलझाना होगा। जीवन के किस क्षेत्र में कौनसा ग्रन्थ प्रमाण है, हमें यह भी निश्चित करना होगा। यह निश्चय करना हमारे लिए बौद्धिक साहस दिखाने का नहीं, अपितु मानसिक साहस दिखाने का विषय है।
भारतीय प्रमाण ही आवश्यक क्यों?
हम वेद-उपनिषद आदि को ही प्रमाण क्यों मानना चाहते हैं? यदि कारण नहीं बतायेंगे तो आधुनिक शिक्षा प्राप्त विद्वान ही प्रश्न खड़े करेंगे। क्या वह हमारे पूर्वजों ने लिखे हैं, इसलिए? क्या इनकी रचना भारत में हुई है, इसलिए? क्या ये प्राचीनतम ग्रन्थ हैं, इसलिए? हम पश्चिम का कुछ भी नहीं लेना चाहते, इसलिए? क्या हम स्वमत आग्रही हैं, इसलिए? क्या हम पुराणपंथी हैं, इसलिए? क्या इन ग्रन्थों की भाषा देववाणी संस्कृत है, इसलिए?
इन सभी प्रश्नों का उत्तर होगा, नहीं। क्यों? इसलिए कि ज्ञान वैश्विक होता है। ज्ञानविश्व में कोई अपना-पराया नहीं होता। स्वमत का आग्रह तत्त्वचिन्तन में नहीं चलता और दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं चलता। विवेक ही ज्ञान का अधिष्ठान है इसलिए इसका निष्पक्ष होना ही अपेक्षित है। जो सत्य है उसे स्वीकार करना ही ज्ञानविश्व का धर्म है। जो शाश्वत है, उसमें प्राचीन और अर्वाचीन का भेद नहीं होता, वह चिरपुरातन नित्यनूतन होता है। अतः जो सत्य है, शाश्वत है और वैश्विक है उसे ही प्रमाण रूप में स्वीकार करना चाहिए। भारत का सिद्धान्त तो यही है। जो इसे स्वीकार नहीं करेगा, वह स्वतः ही ज्ञानविश्व से निष्कासित हो जाएगा।
हम वैश्विक किसे मानेंगे?
विश्व का अर्थ केवल भारत नहीं है। यह केवल भारतीयों से नहीं बना है। इस विश्व में सम्पूर्ण पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्य आते हैं। मनुष्यों के अतिरिक्त भी इस विश्व में अन्य प्राणी हैं, वृक्ष-वनस्पति हैं, कीट-पतंग हैं और पंचमहाभूत हैं। इन सबसे मिलकर ब्रह्मांड बनता है। इन सबका विचार करना ही वैश्विक विचार कहलाता है। अर्थात् जो सम्पूर्ण विश्व से सम्बन्धित है, वह वैश्विक है। सबका स्वतन्त्र रूप से विचार करते समय भी वैश्विक सन्दर्भ बना रहना चाहिए। यह वैश्विक दृष्टि अध्ययन व अनुसंधान हेतु प्रमाण निश्चित करने के लिए पहला निकष (कसौटी) है और इस विश्व का हित यह दूसरा निकष है। जिस विचार और व्यवहार से विश्व का हित होता है, वह स्वीकार्य है और जिससे अहित होता है, वह ताज्य है।
जिस विचार और व्यवहार से भूतमात्र का हित होता है, परम कल्याण होता है, वह सत्य है। परम कल्याण से तात्पर्य है सबको अपने-अपने निज स्वरूप का साक्षात्कार होना। इसे ही भारत में मोक्ष प्राप्त करना कहा गया है। इन सबके मूल में धर्म अवस्थित है। अर्थात् सत्य धर्म को वाणी में व्यक्त करता है, उसे वाणी का रूप देता है। धर्म विश्व को धारण करने वाला तत्त्व है। वैश्विकता, कल्याण और सत्य तीनों का धर्म में समावेश होता है। अतः प्रमाण तय करने के लिए हम यह कह सकते हैं कि जो कुछ भी धर्ममय है, वही परम प्रमाण है। धर्म वैश्विक है, इसलिए भारत ने इसे स्वीकार किया है। जो वैश्विक नहीं है, उसे भारत कभी स्वीकार नहीं करता। जो विश्व का कल्याण नहीं करता उसे भारत कभी स्वीकार नहीं करता। जो सत्य नहीं है, उसे भारत कभी नहीं बोलता। भारत धर्म विरोधी बात कभी नहीं करता, भारत सदैव धर्म की अविरोधी बात ही मान्य करता है।
वेद-उपनिषदादि प्रमाण क्यों हैं?
वेद-उपनिषद, रामायण-महाभारत और दर्शन आदि ग्रन्थ हमारे लिए प्रमाण इसलिए हैं कि ये वैश्विक हैं, परम कल्याण करने वाले हैं, सत्य और धर्ममय हैं। युगों-युगों के काल प्रवाह में वे सिद्ध हुए हैं, इसलिए प्रमाण हैं। समाज जीवन की सभी व्यवस्थाओं और स्थितियों में खरे उतरे हैं, इसलिए प्रमाण हैं। आज की परिस्थिति में भी इन सभी मूल विषयों पर कोई भी इनकी परीक्षा कर सकता है। यदि हमें भी आवश्यक लगता है तो इन्हें प्रमाण रूप में स्वीकार करने से पूर्व हमें इनकी परीक्षा कर लेनी चाहिए, ताकि हमारा स्वयं का विश्वास नहीं डिगे।
प्रमाण के मुख्य दो आयाम हैं, एक बुद्धि प्रमाण और दूसरा धर्म प्रमाण। वेद और उपनिषदों के समान ही सभी अन्य ग्रन्थों के लिए बुद्धि प्रमाण निकष बन सकता है, पश्चिम इसे ही मान्य करता है। भारत की मान्यता है कि बुद्धि प्रामाण्य और धर्म प्रामाण्य दोनों एक साथ होने चाहिए। भारत और पश्चिम में यही अन्तर है। पश्चिम बुद्धि प्रामाण्य को मुख्य और अनिवार्य मानता है जबकि भारत दोनों को आवश्यक मानता है। पश्चिम के लिए बुद्धि प्रामाण्य मुख्य है और धर्म प्रामाण्य गौण है, भारत में धर्म प्रामाण्य मुख्य है। अकेले बुद्धि प्रामाण्य को भारत मान्य नहीं कर सकता।
भारत में अनुभूति प्रमाण मुख्य है
भारत की ज्ञान परम्परा में बुद्धि प्रामाण्य और धर्म प्रामाण्य से भी आगे का मार्ग खोजा गया है, वह मार्ग है अनुभूति का। भारत में अनुभूति प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित है। हमारे यहाँ अनुभूति तक पहुँचने की प्रक्रिया को साधना कहा गया है। इस साधना के विविध मार्ग भी बताए गए हैं। अनुभूति को भी विविध शब्दों में व्यक्त किया गया है। कहीं उसे ‘स्वस्वरूप में अवस्थिति’ कहा गया है, कहीं ‘अहं ब्रह्मास्मि’ तो कहीं ‘सर्वं खलु इदं ब्रह्म’ भी कहा गया है। इसी प्रकार अनुभूति को आत्म- साक्षात्कार और ईश्वर साक्षात्कार भी कहा गया है।
अनुभूति के तत्त्व को तत्त्वचिन्तन से लेकर सामान्यजन तक ने मान्य किया है। सामान्यजन इसे अपनी-अपनी भाषा में बोलते व समझते हैं। कोई कहता है, ‘कण-कण में भगवान है’ कोई कहता है, ‘सचराचर में परमात्मा का वास है’ कोई कहता है, ‘नर ही नारायण है’ तो कोई इसे अन्तरात्मा कहता है। इन सबका तात्पर्य यही है कि अनुभूति-प्रमाण भारत में आदिकाल से स्वीकार्य है। मात्र स्वीकार्य ही नहीं अपितु इसे सर्वश्रेष्ठ प्रमाण की मान्यता दी गई है। इसलिए अनुभूति स्वतः प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित है। इसके विषय में किसी को भी आपत्ति नहीं है, परन्तु वर्तमान समय में अनुभूति प्राप्त महानुभावों की कमी है। अतः इसकी पुनः परीक्षा करने की आवश्यकता प्रतीत हो रही है।
पश्चिम की प्रमाण व्यवस्था संकुचित है
पश्चिमी जगत की प्रमाण व्यवस्था भारत की तुलना में संकुचित है। पश्चिम एक ओर बुद्धि प्रामाण्य को मानता है, वहीं दूसरी ओर वह भौतिक जगत को प्रमाण मानता है। उसकी तीसरी मान्यता है कि वह स्वयं को केन्द्र में रखकर स्वतः सापेक्ष प्रमाण को स्वीकार करता है। पश्चिम वैश्विकता को मान्य नहीं करता। वैश्विकता को मानना उसकी प्रवृत्ति नहीं है। उसकी तो जो अपना है वही वैश्विक है, मानने वाली प्रवृत्ति है। इस प्रकार भारत व पश्चिम एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत भावभूमि पर खड़े हैं।
पश्चिमी जगत में अनुभूति जैसी कोई संकल्पना ही नहीं है। इसलिए वे अनुभूति को प्रमाण भी नहीं मानते। अंग्रेजी शब्द ‘रिअलाइजेशन’ का भारतीय भाषाओं में अनुवाद ‘अनुभूति’ किया गया है, परन्तु वह अनुभूति के पूर्ण अर्थ को व्यक्त नहीं करता। रिअलाइजेशन उनके वहाँ बुद्धि से जानने वाला शब्द ही है, जबकि हमारे यहाँ अनुभूति बुद्धि का विषय नहीं है, बुद्धि से परे का विषय है। श्रीमद् भगवद्गीता में कहा गया है –
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:।।
इसका भावार्थ यह है कि इस शरीर से इन्द्रियाँ परे (श्रेष्ठ) हैं, इन्द्रियों से परे मन है, और मन से भी परे बुद्धि है, और जो बुद्धि से भी परे है, वह आत्मा है।
हमारा शरीर स्थूल है जबकि अन्त:करण (मन, बुद्धि, अहंकार व चित्त) सूक्ष्म है। अन्त:करण सूक्ष्म होते हुए भी जड़ है, और आत्मा चेतन है। पश्चिम का चिन्तन भौतिकवादी है। सभी भौतिक पदार्थ जड़ हैं, इसलिए वह जड़ तक ही सीमित है, चेतन तत्त्व बुद्धि से परे का विषय होने के कारण उनकी समझ से बाहर है। अतः उनका रिअलाइजेशन जड़ का विषय है और हमारी अनुभूति चेतन का विषय है, इसलिए वह श्रेष्ठ है।
आज अनुभूति मान्य प्रमाण नहीं है
आज हमारे देश की स्थिति ऐसी बन गई है कि पश्चिमी विद्वानों से प्रभावित भारतीय विद्वान भी अनुभूति को प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं करते। अनुभूति के स्थान पर बुद्धि प्रामाण्य को ही मानते हैं। भारतीय ज्ञान परम्परा में वेद और उपनिषद धर्म प्रामाण्य से तो स्वीकार्य है ही, उससे भी अधिक अनुभूति प्रामाण्य से स्वीकार्य है। परन्तु आज भारत का ही विद्वज्जन इसे नकार रहा है। आज हमारे देश में एक ऐसा वर्ग भी है, जो भारतीयता का पक्षधर तो है, परन्तु वेद-उपनिषदादि से अपरिचित है। वे लोग इन्हें प्रमाण मानना या नहीं, इसी दुविधा में जी रहे हैं, इसलिए अनुभूति को प्रमाण मानना इन्हें भी मान्य नहीं है।
अनुभूति प्रमाण हो भी सकती है या नहीं, इस बात का लेशमात्र विचार किए बिना ही यह निर्णय कर लेना कि अनुभूति प्रमाण नहीं हो सकती, उनकी अज्ञानता को ही दर्शाता है। भारतीय विद्वान वेद-उपनिषद, धर्म, अनुभूति आदि प्रमाण हो सकते हैं, इस तथ्य पर ही सन्देह करते हैं या उन्हें सीधा अमान्य ही करते हैं। इसका कारण उनका संस्कृत भाषा का अज्ञान तो है ही,साथ ही साथ वैचारिक अज्ञान भी है।
भारत की प्रमाण व्यवस्था व्यापक है
विचार के क्षेत्र में हमारे सामने दो समूह हैं। एक धर्म प्रमाण, वेद प्रमाण, अनुभूति प्रमाण और आत्म प्रमाण वाला समूह और दूसरा केवल बुद्धि प्रमाण व भौतिक प्रमाण वाला समूह। इस दृष्टि से पश्चिम की प्रमाण व्यवस्था सीमित है, जबकि भारत की प्रमाण व्यवस्था व्यापक है। दोनों में व्यापकता का अन्तर है। इसलिए भारतीय ज्ञानविश्व के लिए यह गौरव का विषय है कि भारत ने कभी व्यापकता को नहीं छोड़ा और परीक्षा के लिए कभी भी सरल व संकुचित निकष नहीं अपनाएँ।
इतना सब कुछ स्पष्ट होने के बाद भी भारत के वर्तमान विश्वविद्यालयों की स्थिति यह है कि इनमें अनुभूति के लिए कोई स्थान नहीं है। विश्वविद्यालय का एक भी प्राध्यापक अपने आपको अनुभूति के स्तर तक ले जाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। यह साधना इनके पाठ्यक्रम से बाहर है। विश्वविद्यालयों की नियमावली के प्रावधानों से न अनुभूति प्राप्त की जा सकती है और न पीएचडी जैसी उपाधियाँ निर्मित की जा सकती है। अर्थात् अनुभूति का विषय विश्वविद्यालयों से परे का विषय मान लिया गया है।
अनुभूति को नकारना बुद्धिमानी नहीं है
भारत में अनुभूति को नकारना अज्ञानता है। यह तो उस अज्ञानी व्यक्ति जैसा व्यवहार है जो कीमती रत्नों को पत्थर के टुकड़े समझकर फेंक देता है और उसे तनिक भी दुख नहीं होता। दुख इसलिए नहीं होता कि वह नहीं जानता कि उसने क्या फेंका है। आज वही स्थिति विश्वविद्यालयों के उन प्राध्यापकों की है जो अनुभूति को नकार रहे हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो यह मानते हैं कि उन्हें जो ज्ञात नहीं है, वह होता ही नहीं है। ऐसे लोग अहंकारी व क्षुद्र बुद्धि वाले होते हैं। भारत में ऐसे लोगों का होना शर्म की बात है। इसलिए कम से कम भारत में तो अनुभूति को परम प्रमाण व स्वतः प्रमाण मानना ही चाहिए। यह सम्पूर्ण विश्व के हित में है, इससे ज्ञानविश्व परिष्कृत होगा, समृद्ध होगा और सिद्ध होगा।
आज भी विश्वविद्यालय से बाहर के क्षेत्र में अनुभूति प्राप्त व्यक्ति मिल जाते हैं। परन्तु विश्वविद्यालयों का क्षेत्र श्रद्धावान नहीं है, पदवी, पद, प्रतिष्ठा और पैसा उनके लिए अवरोध बन जाते हैं। इसलिए विश्वविद्यालयों में शुद्ध अन्त:करण वाले अध्यापकों को अनुभूति प्राप्त करने की तपश्चर्या करनी चाहिए। अन्त:करण को शुद्ध करके ज्ञान की उपासना करने वाले साधक को जब मन्त्रदर्शन होता है, तब वह ऋषि कहलाता है। भारत में सदैव ऐसे ऋषि ही ज्ञान और विज्ञान के प्रवर्तक रहे हैं। आज ये बातें कपोल-कल्पित लग सकती हैं, परन्तु जब ऐसी बातें बार-बार कही जाती हैं तो वे संभव लगने लगती हैं। अतः हमें वेद प्रामाण्य और अनुभूति प्रामाण्य को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में लाना चाहिए। जब तक यह कार्य नहीं होगा, तब तक भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा होना भी सम्भव नहीं है। विश्वविद्यालय ज्ञान प्रवाह के मूल हैं, उन्हें अपना दायित्व स्वीकार करना चाहिए।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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