भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 102 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा – अध्ययन और अनुसन्धान)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

हमारे देश के नाम ‘भारत’ में ही ज्ञान समाया हुआ है। भारत एक ऐसा देश है जो अपना सम्पूर्ण व्यवहार ज्ञान के प्रकाश में करता है। ज्ञान की उपासना एवं ज्ञान की साधना यहाँ की प्रिय वृत्ति और प्रवृत्ति है। हमारे देश में ज्ञान को सदैव पवित्रतम माना है – ‘न हि ज्ञानेन पवित्र मिह विद्यते’। इस पवित्रतम ज्ञान की फलश्रुति ‘सा विद्या या विमुक्तये’ मानी गई है अर्थात् ज्ञान सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति दिलाने वाला है। ज्ञानोपासक देश भारत आज आत्मविस्मृति के रोग से त्रस्त है। विगत दो सौ वर्षों में जो पश्चिमी शिक्षा दी गई, उसके परिणामस्वरूप भारत की ज्ञान साधना रुक गई है, अवरुद्ध कर दी गई है। इस अवरोध को दूरकर भारतीय ज्ञानधारा को पुन: प्रवाहित करने हेतु अध्ययन करना, इसका प्रथम उपाय है।

अध्ययन किसका? हमें अपने शास्त्र ग्रन्थों का अध्ययन करना पड़ेगा, जिनकों अंग्रेजी शासन ने मिथक (काल्पनिक) बताकर कक्षाकक्ष की शिक्षा से बाहर कर दिया था। आज उसे पुन: अध्ययन का विषय बनाना है। हमारे ये शास्त्र ग्रन्थ हैं – वेद, उपनिषद, दर्शन, पुराण, रामायण, महाभारत व गीता आदि। इनके साथ-साथ विज्ञान के वे ग्रन्थ जो भारत की भौतिक समृद्धि के मार्गदर्शक रहे हैं, उनका भी अध्ययन करना होगा। किन्तु हमें अध्ययन की सही पद्धति अपनानी होगी। सही आलम्बन भी हमें निश्चित करना होगा। इन दो बातों को करने से हमें राष्ट्रजीवन के लिए सही अधिष्ठान और सही दिशा प्राप्त होगी।

अध्ययन की पद्धति से तात्पर्य

इसे इस अर्थ में समझें कि आज भी हमारे देश में वेदों का अध्ययन होता है। देश भर में हजारों वेद पाठशालाएँ चलती हैं, उनमें हजारों बाल, किशोर व युवा वेदों का अध्ययन करते हैं। परन्तु कर्मकाण्ड हेतु ही वे उनको कंठस्थ करते हैं। उनके व्यवहार जीवन में वेद कहीं दिखाई नहीं देते। इतना सीमित उद्देश्य होते हुए भी इन वेद पाठशालाओं का इतना उपकार तो अवश्य है कि आज वेद श्रुति रूप में जीवित हैं। हम आज भी वेदमन्त्रों को सुन सकते हैं। जबकि वेदों का अध्ययन खण्डित होने से उनकी अनेक शाखाएँ श्रुति एवं ग्रन्थ दोनों ही रूपों में लुप्त हो गईं हैं। किन्तु इन वेद पाठशालाओं के कारण अल्प मात्रा में ही सही कुछ शाखाएँ अवश्य बच गई हैं। इसी प्रकार अनेक यज्ञ, अनुष्ठान आदि कर्मकाण्ड उनके शुद्ध स्वरूप में आज भी हो रहे हैं। यद्यपि इन सबकी मात्रा अल्प है तथापि इनके कारण से वेदों का अस्तित्व अभी मिटा नहीं है, यह हमारे देश का महत भाग्य है।

वेदों के साथ उपनिषदों का अध्ययन करना भी नितान्त आवश्यक है। क्योंकि उपनिषद वेदों का ज्ञानकाण्ड है। इनके अध्ययन से ही भारतीय जीवनदृष्टि सम्यक रूप से समझी जा सकती है। भारतीय अध्येताओं के लिए इस जीवनदृष्टि को समझना ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण महत्त्वपूर्ण एवं मूलभूत बात है। इस विषय में आज बहुत संभ्रम फैला हुआ है। हमारे देश में अंग्रेजी पढ़े-लिखे अनेक विद्वान हैं जिन्हें भारतीय जीवनदृष्टि जैसा कुछ होता भी है और विभिन्न देशों की जीवन पद्धतियाँ अलग-अलग होती हैं, इसका लेशमात्र भी ज्ञान नहीं है। इसलिए भारतीय और पाश्चात्य जीवनदृष्टि में क्या अन्तर है और उनके परिणाम क्या होते हैं ? ऐसी सभी बातों की उन्हें जानकारी न होना तो अत्यन्त स्वाभाविक है। आज हमारे देश में पाश्चात्य जीवनदृष्टि को अपनाया हुआ है। जिस प्रकार हमारे शरीर में कोई ‘फोरेन बॉडी’ आ जाए तो उपद्रव मचता है, वैसा ही उपद्रव इस राष्ट्रजीवन में मचा हुआ है। अतः उपनिषदों के अध्ययन का एक उद्देश्य भारतीय जीवनदृष्टि को समझना है। यदि अध्ययन करते समय यह उद्देश्य नहीं रहा तो अध्ययन की पद्धति में अन्तर आ जाता है।

उदाहरण के लिए हमारे देश में अनेक विश्वविद्यालयों में उपनिषदों का अध्ययन होता है। यह अध्ययन संस्कृत विभाग के अन्तर्गत होता है, कुछ मात्रा में दर्शन विभाग में भी होता है। परन्तु यह अध्ययन अत्यन्त अल्पमात्रा में होता है, जिसका कोई सन्दर्भ नहीं है। जैसे संस्कृत भाषा और साहित्य विभाग में ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य का कुछ अंश अध्ययन हेतु निश्चित किया जाता है, उसके कुल पन्द्रह सूत्रों का अध्ययन किया जाना है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि दर्शन का यह विषय भाषा और साहित्य विभाग में क्यों रखा गया है? केवल इसलिए कि वह संस्कृत भाषा में लिखा हुआ है। इसी प्रकार दूसरा प्रश्न यह कि केवल पन्द्रह सूत्र ही क्यों रखे गए हैं? एक अध्ययन सत्र में इतने सूत्र ही पढ़े जा सकते हैं, इसलिए। इन पन्द्रह सूत्रों को पढ़ने से क्या होगा ? इस प्रश्न का उत्तर देश के हजारों छात्रों को नहीं मिलता, क्योंकि देश के सैंकड़ों अध्यापकों और पाठ्यक्रम निर्धारित करने वालों के पास भी इसका उत्तर नहीं है। इस प्रकार अनिश्चित उद्देश्य और आलम्बन के बिना अध्ययन की वर्तमान पद्धति हमें बदलनी ही होगी।

प्रचलित अध्ययन पद्धति बदलना

हमारे देश में मठ, मन्दिर, आश्रम और उनमें रहने वाले संन्यासी पर्याप्त संख्या में हैं। ये सभी संन्यासी अपने-अपने सम्प्रदायों के अनुसार वेदों, उपनिषदों व दर्शन ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं। अनेक वर्षों तक यह अध्ययन चलता है, परन्तु यह अध्ययन या तो अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए होता है या मोक्ष प्राप्त करने के लिए होता है। उनका अध्ययन समाज की जीवनशैली बदलने के लिए नहीं होता। आज संन्यासियों की अध्ययन पद्धति में भी परिवर्तन करने की महती आवश्यकता है।

दूसरी ओर हमारे देश में संस्कृत को छोड़कर अंग्रेजी में भारतीय शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन करने की पद्धति चली है। यह अध्ययन पाश्चात्य पद्धति के अनुरूप जो व्यवस्थाएँ बनी हुई हैं, उनमें हमारे शास्त्रग्रन्थ कितने व किस रूप में उपयोगी हैं, यह बताना उनका उद्देश्य है। उदाहरण के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता का अध्ययन कर यह बताना कि इसमें अध्यापन की कितनी पद्धतियाँ हैं, अथवा गीता में प्रबन्धन के कितने अच्छे सूत्र मिलते हैं। ऐसे सूत्र बताकर गीता की उपयोगिता सिद्ध की जाती है। शिक्षा की या प्रबन्धन की प्रस्थापित पद्धति को बदलने का निर्देश नहीं होता, मूल सूत्र तो वही रहते हैं उनको समृद्ध कैसे किया जाय विचार तो इसी बात का होता है। इसलिए इस पद्धति को भी बदलना आवश्यक है।

हमारे देश में वेदों और उपनिषदों को प्रतिष्ठित करने के कुछ सफल प्रयोग भी हुए हैं। उदाहरण स्वरूप रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शिक्षा चिन्तन पूर्णतया उपनिषदीय चिन्तन के प्रकाश में ही विकसित हुआ है। श्री अरविन्द समग्र जीवन चिन्तन- विचार और व्यवहार वेद और उपनिषदों के आधार पर ही प्रतिष्ठित हुआ है। आचार्य विनोबा भावे भी उसी मालिका के मोती हैं। महात्मा गांधी भी उसी विचार से अनुप्राणित होकर अपना व्यवहार चिन्तन प्रस्तुत करते हैं। अध्ययन की यह पद्धति हमारे लिए पथप्रदर्शक  बन सकती है।

अध्ययन का उद्देश्य व स्वरूप

हमने अध्ययन के कुछ प्रचलित उदाहरण जानें और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उन्हें बदलना अनिवार्य है। उन्हें बदलने से पहले हमें अध्ययन के उद्देश्य और आलम्बन को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करना होगा। हमारे उद्देश्य अधोलिखित हैं –

  1. भारतीय जीवनदृष्टि को समझना, यह प्रथम उद्देश्य है।
  2. उस जीवनदृष्टि से व्यक्ति व समाज की प्रत्येक व्यवस्था और व्यवहार का दर्शन करना, यह दूसरा उद्देश्य है।
  3. इसी प्रकार पाश्चात्य व्यवस्था और व्यवहार का दर्शन करना तथा दोनों की तुलना करना यह तीसरा उद्देश्य है। इन उद्देश्यों के आधार पर जीवन की प्रत्येक व्यवस्था और व्यवहार में परिवर्तन करना ही अध्ययन का आलम्बन है।

अतः अध्ययन और अनुसन्धान की प्रक्रिया साथ-साथ चलाना आवश्यक है। एक ओर यह समझना है कि उपनिषदों में क्या कहा गया है? उसका तत्त्वार्थ समझना, वेदों में सृष्टि का निरूपण, व्यक्ति एवं सृष्टि के सम्बन्ध किस प्रकार निरूपित किये गए हैं, श्रीमद्भगवद्गीता कौनसी जीवन दृष्टि समझा रही है, इसका तत्त्वार्थ समझना आदि हमारे अध्ययन के विषय हैं। दूसरी ओर वर्तमान व्यवस्थाओं में और व्यवहार में किस प्रकार आमूलचूल परिवर्तन होगा, इसका निरूपण करते जाना ही हमारा अनुसन्धान कहलायेगा। यह मात्र कागजी अनुसन्धान न होकर व्यावहारिक अनुसन्धान होगा। आज वास्तव में ऐसे ही अध्ययन और अनुसन्धान की महती आवश्कता है।

तत्त्वचिन्तन व व्यवहार चिन्तन साथ-साथ चले

विशेष ध्यान रखने की बात यह है कि हमें समग्रता में अध्ययन और अनुसन्धान की योजना बनानी होगी। केवल वेद और उपनिषदों के अध्ययन से काम नहीं चलेगा। जीवन के अध्ययन के लिए वेद और उपनिषदों से निर्देशक सूत्र भी प्राप्त करने होंगे। प्राचीन समय में रचे गए इन ग्रन्थों के आधार पर वर्तमान जीवन कैसे चलेगा? इसका चिन्तन करना भी आवश्यक है। अर्थात् तत्त्वचिन्तन और व्यवहार चिन्तन दोनों साथ-साथ चलाने होंगे, तभी सब लोग उससे लाभान्वित हो सकेंगे।

हमारे शास्त्रों में श्रुति और स्मृति नामक दो शब्द प्रचलित हैं। तत्त्व को श्रुति कहा गया है और व्यवहार को स्मृति कहा गया है। तत्त्व शाश्वत सत्य है, उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता। परन्तु व्यवहार में देश, काल व परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता है। इस नित्य परिवर्तनीय जगत में व्यवहार बदलना ही चाहिए। अतः शाश्वत तत्त्व के प्रकाश में वर्तमान व्यवहार कैसा हो, इसका निरूपण करना अर्थात् स्मृति की रचना करना है। यही कारण है कि हमारे देश में समय-समय पर स्मृति ग्रन्थों की रचना होती रही है। सार रूप में कहा जाए तो तत्त्वचिन्तन हमारे अध्ययन का आलम्बन है और स्मृति की रचना करना हमारा अनुसन्धान है। ये दोनों साथ-साथ चले, यह अनिवार्यता है।

अध्ययन और अनुसन्धान के साथ ही उसे व्यवहार योग्य बनाने के उपायों का निरूपण करना, यह तीसरा आयाम है। इस प्रकार तत्त्वचिन्तन, स्मृति रचना और क्रियान्वयन के उपाय इन तीनों आयामों में हमारा ज्ञान व्यवहार चलना अपेक्षित है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 101 (भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा – भारतीय जीवनदृष्टि एवं शोधदृष्टि)

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