धर्म व संविधान परस्पर विरोधी नहीं, अपितु पूरक हैं

 ✍ प्रणय कुमार

लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका प्रहरी की होती है। व्यवस्था के सभी घटकों की निगरानी का दायित्व उस पर ही होता है। न्यायपालिका के शीर्ष पदों पर आसीन व्यक्तियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सार्वजनिक जीवन में अपनी वाणी एवं आचरण के प्रति अतिरिक्त सजगता एवं सतर्कता बरतें। उनसे ऐसे किसी वक्तव्य की आशा नहीं की जाती जो विवादों को तूल दे, जो राष्ट्र की मूल, परंपरागत व सांस्कृतिक अस्मिता एवं संवैधानिक मान्यताओं के प्रतिकूल हो। ऐसे वक्तव्य वर्तमान के साथ-साथ देश एवं समाज के दूरगामी हितों को भी बाधित एवं प्रभावित करते हैं। परंतु दुर्भाग्य से पिछले दिनों कुछ न्यायाधीशों के ऐसे वक्तव्य सामने आए, जिन्हें पढ़-सुनकर यही प्रतीत हुआ कि संबंधित विषय को गहराई एवं समग्रता से समझे-विचारे बिना वे शीघ्रता अथवा उतावलेपन में दिए गए हों। जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को सतही-सरलीकृत निष्कर्ष एवं लोकप्रियता के लोभ-आकर्षण आदि से यथासंभव बचना चाहिए।

गत 4 मार्च को पुणे में एक न्यायालय के भवन की आधारशिला रखते हुए ‘भूमि-पूजन’ समारोह के दौरान सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अभय एस ओका ने कहा कि न्यायालय-परिसर में आयोजित किसी भी कार्यक्रम में पूजा-अर्चना या दीप-प्रज्ज्वलन जैसे अनुष्ठान बंद कर देने चाहिए। उनका कहना था कि इसकी बजाय न्यायालय के किसी भी आयोजन में संविधान की प्रस्तावना की प्रति रखनी चाहिए और उसी के आगे सिर झुकाना चाहिए। इसी कार्यक्रम में न्यायाधीश बी.आर. गवई ने जस्टिस ओका के मत से पूर्ण एवं मुखर सहमति जताते हुए कहा कि “किसी धर्म विशेष की पूजा करने के स्थान पर हमें अपने हाथों में फावड़ा लेकर नींव के लिए निशान लगाना चाहिए और दीप-प्रज्ज्वलन की बजाय पौधों को पानी देकर कार्यक्रम का उद्घाटन करना चाहिए। इससे पर्यावरण के मामले में समाज में एक अच्छा संदेश जाएगा।” इससे एक सप्ताह पूर्व, 28 फरवरी को सेवानिवृत्त न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय के ध्येय-वाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ को बदल देना चाहिए, क्योंकि सत्य ही संविधान है, जबकि धर्म सदा सत्य नहीं होता। उन्होंने प्रश्न उठाया कि जब अन्य सभी उच्च न्यायालयों और राष्ट्रीय संस्थानों में आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ है तो सर्वोच्च न्यायालय का आदर्श वाक्य भिन्न क्यों है? रोचक है कि वर्ष 2018 में एक संगोष्ठी में जस्टिस जोसेफ़ ने कहा था कि “कैथोलिक चर्च ने हमेशा दुनिया भर की अन्य परंपराओं एवं विश्वासों को अपने-आप में आत्मसात किया है। यह हमारे संविधान की प्रस्तावना की तरह ही है, जो हम (वी) शब्द से प्रारंभ होती है।” प्रकारांतर से यहाँ उन्होंने कैथोलिक चर्च की तुलना भारत के संविधान की प्रस्तवना से की थी।

सामान्यतः ऐसे तर्कों एवं वक्तव्यों के मूल में या तो रिलीज़न, मजहब एवं संप्रदाय आदि को धर्म का पर्याय मानने की भूल होती है या सेकुलरिज्म की भ्रामक एवं मिथ्या अवधारणा। हमें याद रखना होगा कि ‘सेकुलरिज्म’ मूलतः भारतीय संविधान का हिस्सा नहीं था। इसे आपातकाल के दौरान 42वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से सम्मिलित किया गया था, जब पूरा विपक्ष जेल में था। स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि संविधान-परिषद ने ‘सेकुलरिज्म’ को प्रस्तवना में सम्मिलित नहीं करने का विकल्प क्यों चुना था और बाद में ऐसी कौन-सी परिस्थितियाँ निर्मित हुईं कि इसे रातों-रात सम्मिलित करने की विवशता आ पड़ी?

उल्लेखनीय है कि संविधान की मूल प्रति में शताब्दियों से चली आ रही राष्ट्रीय, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक परंपरा की महत्ता एवं अस्मिता को रेखांकित करने के लिए 22 चित्र थे, जिनमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसे सार्वकालिक महानायकों से लेकर लक्ष्मण जी, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, महाराज विक्रमादित्य, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई, यज्ञ कराते वैदिक ऋषि आदि प्रमुख हैं। मौलिक अधिकार भाग-3 में श्रीराम, सीता जी एवं लक्ष्मण जी का चित्र है, जो लोगों के अधिकारों के सर्वोच्च संरक्षक के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की श्रद्धेय स्थिति की सार्वजनिक अभिव्यक्ति एवं स्वीकृति है। यहाँ यह बताने की अलग से आवश्यकता नहीं कि संविधान-परिषद के तत्कालीन सदस्य, ‘सेकुलरिज्म’ के आज के तथाकथित झंडाबरदारों की तुलना में कहीं अधिक ‘सेक्युलर’ तथा नीति एवं नीयत को लेकर अत्यधिक स्पष्ट, निष्पक्ष एवं पारदर्शी थे। क्या यह सत्य नहीं कि भारत अपनी मूल प्रकृति एवं स्वभाव से ही पंथनिरपेक्ष है? क्या इसमें भी कोई दो राय हो सकती है कि भारत पंथनिरपेक्ष रह सका है, क्योंकि यहाँ हिंदू बहुसंख्या में हैं? सच यही है कि संविधान की प्रस्तवना में ‘सेकुलरिज्म’ शब्द जुड़ने के सदियों पूर्व से ही सनातन संस्कृति की कोख में सह-अस्तित्व की कामना व भावना पलती रही है।

एकत्व का भाव

वस्तुतः ‘सेकुलरिज्म’ एक ऐसी अवधारणा है, जिसे यूरोप से भारत में आयातित किया गया है। इस अवधारणा का जन्म यूरोप में मध्य युग में हुआ था, जब चर्च और राज्य सत्ता अपने-अपने प्रभाव व कार्य-क्षेत्र के लिए आपस में टकराई थी। वहाँ की परिस्थिति विशेष के लिए वह एक उचित समाधान रहा होगा, परंतु हमारे यहाँ कभी भी मज़हबी राज्य नहीं था, न ही राज्य-सत्ता व धर्मसत्ता के मध्य कभी कोई टकराव ही देखने को मिला, इसलिए उस संदर्भ में सेकुलरिज्म की बात ही अर्थहीन है। हमारे देश में धर्माचार्यों के शासन की नहीं, प्रत्युत अनुशासन की परंपरा अवश्य रही है।

धर्म को रिलीज़न अथवा मजहब के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि धर्म समग्र जीवन-पद्धति से भी विशालतर अवधारणा है – यह एक ब्रह्मांडीय विचार है, यह वैविध्य में एकत्व देखने की अंतर्दृष्टि है। एक में विस्तार है तो दूसरे में सीमाबद्धता, एक व्यष्टि से लेकर समष्टि व परमेष्ठि तक फैला हुआ है तो दूसरा अपने समुदाय विशेष तक सीमित एवं संकुचित है। मज़हब या रिलीजन एक ग्रंथ, एक पंथ, एक प्रतीक, एक पैगंबर को मानने के लिए बाध्य करता है। वह इनके अलावा अन्य किसी मत या सत्य को स्वीकार नहीं करता। जो-जो उनसे असहमत या भिन्न मत रखते हैं, उनके प्रति उनमें निषेध या अस्वीकार ही नहीं, अपितु कई बार घृणा, वैमनस्यता एवं शत्रुता तक पाई जाती है। भिन्न प्रतीकों-चिह्नों या पार्थक्य-बोध को ही वे अपनी अंतिम व एकमात्र पहचान बना लेते हैं। जबकि धर्म पार्थक्य में एकत्व ढूँढ़ने, चेतना-संवेदना को विस्तार देने तथा आंतरिक उन्नयन के प्रयास करता है। वह समरूपता का पोषक नहीं, विविधता, वैशिष्ट्य एवं चैतन्यता का संरक्षक है। वह किसी मत-विशेष या सत्ता को येन-केन-प्रकारेण प्रतिष्ठापित करने का बाह्य-आक्रामक अभियान नहीं, अपितु सत्य का सतत अनुसंधान है। वह करणीय-अकरणीय, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के सम्यक बोध या उत्तरदायित्व का दूसरा नाम है। यथा – राजा का धर्म, प्रजा का धर्म, पिता का धर्म, संतान का धर्म, गुरु का धर्म आदि। धर्म मूल प्रकृति या गुण के रूप में भी प्रयुक्त होता रहा है। जैसे अग्नि का धर्म उष्णता, जल का धर्म शीतलता, मनुष्य का धर्म परोपकारिता-परदुःखकातरता आदि। सनातन संस्कृति में धर्म एक व्यापक अवधारणा है, जो मानव मात्र के लिए है, किसी समूह या जाति विशेष के लिए नहीं। इसीलिए हर यज्ञ-अनुष्ठान के बाद सनातन संस्कृति में – “धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो” – जैसी मंगलकामनाएँ व्यक्त की जाती हैं। वहाँ किसी विशेष मत, पंथ, संप्रदाय एवं समुदाय आदि की जय-जयकार नहीं की जाती।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण भी यही कहते हैं कि “जब-जब धर्म का नाश होता है, अधर्म बढ़ता है, मैं अवतरित होता हूँ।” ध्यान रहे कि उन्होंने यह नहीं कहा कि जब-जब किसी मत या पंथ का नाश होता है, तब-तब उनका अवतरण होता है। धर्म धारण किया जाता है और मज़हब एवं रिलीज़न ‘क़बूल’ या स्वीकार (एक्सेप्ट) किया जाता है। धर्म में सहयोग, समावेश, समन्वय, सह-अस्तित्व पर ज़ोर रहता है। वह समरसता के सिद्धांत पर अवलंबित होता है। धर्म व्यक्ति, समाज, प्रकृति, परमात्मा व अखिल ब्रह्मांड के मध्य सेतु-समन्वय स्थापित करता है। वह सबके कल्याण एवं सत्य के सभी रूपों-मतों को स्वीकारने की बात करता है।

धर्म कहता है- “एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति।” अर्थात सत्य एक है, लेकिन इसकी अभिव्यक्तियाँ अलग-अलग हैं।

“आनो भद्र कृतवो यंतु विश्वतः।” अर्थात सभी दिशाओं से अच्छे विचार मेरे पास आएँ।

“उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।” अर्थात उदार चरित्र वाले लोग संपूर्ण वसुधा को ही अपना परिवार मानते हैं।

“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।” अर्थात सभी सुखी हों, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को दुःख का भागी न बनना पड़े।

मनु ने धर्म की व्यख्या करते हुए जो दस लक्षण बताए- “धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।”– उसमें किसी के प्रति अस्वीकार या असहिष्णुता तो दूर, कहीं रंच मात्र संकीर्णता, संकुचितता या अनुदारता के संकेत तक नहीं। जबकि सभी अब्राहमिक मतों में उनके पैग़ंबरों की वाणी को ही अंतिम, अलौकिक और एकमात्र सत्य माना गया है, जबकि शेष को लौकिक व मिथ्या घोषित कर दिया गया है। इतना ही नहीं, अपितु वहाँ उस मत, मज़हब, रिलीजन के भीतर भी नवीन ज्ञान व अनुभवजनित सत्य के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा गया। वहाँ मानव जाति के सोचने की सामर्थ्य व संभावनाओं पर ही सिरे से विराम या प्रतिबंध लगा दिया गया है। क्योंकि उनकी स्पष्ट घोषणा है कि सत्य अंतिम रूप से जाना या पाया जा चुका है। अब जो कुछ कहना या जानना है उसे इन ‘पवित्र क़िताबों’ के दायरे में ही सोचना या जानना होगा यानी भिन्न, मौलिक एवं स्वतंत्र सोच पर ही पूरी तरह से पाबंदी लगा दी गई है। इस श्रेष्ठता-ग्रंथि, भेद-बुद्धि, बंद दिमाग, संकुचित दायरे और आरोप-आक्रमण-विस्तार की नीति के कारण ही वह हरेक से संघर्षरत है। न केवल औरों के साथ बल्कि उनके अपने मत के भीतर भी अधिक शुद्ध, अधिक सच्चा व अधिक  धार्मिक को लेकर लगातार एक संघर्ष देखने को मिलता है। इस्लाम की दारुल हरब, दारुल इस्लाम, जेहाद-जन्नत-दोज़ख-माले गनीमत जैसी संकीर्ण एवं विभाजनकारी धारणाओं तो ईसाइयत की यीशु के शरण में आने पर ही दुनिया के कल्याण की एकांगी-मनमानी मान्यताओं-व्याख्याओं ने  स्थिति-परिस्थिति को और विकट, भयावह एवं संघर्षपूर्ण बना दिया है।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि धर्म उन व्यवस्थाओं अथवा नियमों के समुच्चय का नाम है जो व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं मानव जीवन के विभिन्न अंगों को धारण किए रहता है। वहीं मज़हब एवं रिलीजन का संबंध कुछ निश्चित आस्थाओं-मान्यताओं से होता है। जब तक कोई व्यक्ति उनको मानता है, वह उस ‘रिलीजन’ या ‘मजहब’ का सदस्य बना रहता है। ज्यों ही वह उन आस्थाओं-मान्यताओं को छोड़ता है, वह उनसे बहिष्कृत हो जाता है। वहीं धर्म केवल आस्थाओं पर आधारित नहीं होता। किसी धार्मिक आस्था में विश्वास न रखने वाला व्यक्ति भी धार्मिक अर्थात सद्गुणी हो सकता है। ‘सेक्युलर’ का अनुवाद ‘धर्मनिरपेक्ष’ किये जाने के कारण बहुत-से भ्रम पैदा हुए हैं। धर्मनिरपेक्ष होने का अभिप्राय धर्म से उदासीन होना नहीं होता। भारतीय ज्ञान-परंपरा में धर्म का जो व्यापक अर्थ निहित है, क्या उससे कभी उदासीन रहा जा सकता है?

भारत की दृष्टि

हमें यह समझना होगा कि राजकीय समारोहों के उद्घाटन के अवसर पर दीप-प्रज्ज्वलन की परिपाटी या नए जहाज के जलावतरण की मंगलमय बेला में नारियल तोड़कर प्रसन्नता प्रकट करना अथवा नवनिर्माण से पूर्व भूमि-पूजन कर धरती माता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना किसी उपासना पद्धति का भाग न होकर भारतीय संस्कृति और परंपरा का अंग है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अंधकार से प्रकाश की ओर – यह मानव की प्रगति-यात्रा का दिशानिर्देश है।

चिरकाल से मनुष्य नन्हा-सा दीप जलाकर अंधकार की सत्ता को चुनौती देता आया है। हम आलोकधर्मी संस्कृति के वाहक हैं। अंधकार किसी भी समूह, समाज अथवा समुदाय का अभीष्ट नहीं हो सकता, न ही होना चाहिए। ज्ञात हो कि नए संसद-भवन के ऊपरी तल पर लगाए गए अशोक स्तंभ के अनावरण-अनुष्ठान के शुभ अवसर पर सबसे पहला मंत्र “ॐ वसुंधराय विद्महे भूतधत्राय धीमहि तन्नो भूमिः प्रचोदयात्” बोला गया। अब जो पृथ्वी सबका भरण-पोषण करती है, उससे आशीर्वाद की कामना भी भला संकीर्ण, अनुदार व सांप्रदायिक हो सकती है? क्या धरती, आकाश, सूर्य, चाँद, नदी, पर्वत, जल और प्रकाश जैसे प्राकृतिक उपादानों का भी भला कोई पंथ या मज़हब हो सकता है? बल्कि इनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है, इनकी सबके लिए समान उपादेयता होती है। हाँ, विभिन्न सभ्यताओं द्वारा इन्हें देखने का एक भिन्न एवं विशेष दृष्टिकोण अवश्य होता है। जीवन और जगत को देखने का हम भारतीयों का भी अपना भिन्न एवं विशेष दृष्टिकोण है। उसे ही बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में भारतीय संस्कृति कहकर संबोधित किया जाता है।

इन दिनों भारतीय संस्कृति में मान्य एवं प्रचलित ऐसे तमाम प्रतीकों को लांछित या अपमानित करने का चलन-सा चल पड़ा है। इसीलिए केवल दीप-प्रज्ज्वलन अथवा भूमि-पूजन ही क्यों, कभी सरस्वती पूजा, कभी गणेश-वंदना, कभी विद्यालयों में होने वाली प्रातः वंदना, कभी वैदिक मंत्र, कभी सूक्ति-श्लोक, कभी राष्ट्र-गान, कभी राष्ट्रगीत, कभी राष्ट्रीय ध्वज, कभी सेंगोल (राजदंड) तो कभी अशोक-स्तंभ जैसे राष्ट्रीय प्रतीकों को लेकर भी अनावश्यक विवाद पैदा किया जाता है या जान-बूझकर इनकी उपेक्षा और अवमानना की जाती है। राष्ट्रीय प्रतीकों अथवा युगों से चली आ रही सांस्कृतिक परंपराओं को मज़हबी या कथित सेक्युलर चश्मे से देखना न तो न्यायसंगत है, न ही विवेकसम्मत। कई बार ऐसे भी दृष्टांत सामने आए हैं कि किसी शुभ मुहूर्त्त या आयोजन के उपलक्ष्य पर बनाई जाने वाली रंगोली, उकेरे गए मांगलिक चिह्न, शंख-ध्वनि, पुष्पार्चन आदि पर भी निरर्थक विवाद खड़े किए जाते हैं। यहाँ तक कि भारत माता की जय बोलने पर भी बहुतों को आपत्ति होती है। जबकि यह सहज स्वीकार्य सिद्धांत होना चाहिए कि मज़हब बदलने से पुरखे और संस्कृति नहीं बदलती।

सांस्कृतिक जीवन के अभिन्न अंग

न्यायाधीश महानुभावों से लेकर हर प्रबुद्ध-साधारण को यह समझना होगा कि ये प्रतीक एवं परंपराएँ हमारे राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक जीवन के अभिन्न अंग हैं, न कि धार्मिक जीवन के। इनका संबंध पंथ विशेष की पूजा-पद्धतियों या मान्यताओं से न होकर राष्ट्र की अविच्छिन्न सांस्कृतिक परंपराओं से है, जीवन और जगत को देखने के चिरंतन दृष्टिकोण से है। इंडोनेशिया का उदाहरण हमारे सामने है। सर्वाधिक जनसंख्या वाला मुस्लिम देश होने के बावजूद उन्होंने अपनी संस्कृति नहीं बदली। उन्होंने अपनी सार्वजनिक संस्थाओं एवं उपक्रमों के नाम पूर्ववत व पारंपरिक ही रखे। उनकी विमान-सेवा का प्रतीक-चिह्न (लोगो) ‘गरूड़’ है। उनकी जलसेना का ध्येय वाक्य “जलेष्वेव जयामहे” यानी ‘जल में ही जीतना चाहिए’ है। रामायण और रामलीला वहाँ अत्यंत लोकप्रिय हैं। एक इस्लामिक देश में यदि यह सब संभव है तो भारत में इन पर अनावश्यक विवाद क्यों?

आज जिन्हें ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ से आपत्ति है, कोई आश्चर्य नहीं कि कल उन्हें ‘सत्यमेव जयते’ से लेकर अन्य संगठनों-संस्थाओं के ध्येय-वाक्य से भी आपत्ति होगी। इस देश में तथाकथित सेकुलरों का एक ऐसा गिरोह सक्रिय है, जिन्हें संस्कृत से सांप्रदायिकता समझ आती है। उनकी छद्म पंथनिरपेक्षतावादी मानसिकता भारत के ‘स्व, स्वत्व एवं संस्कृति’ को ठेस पहुँचाकर ही तुष्ट होती है। चूँकि संस्कृत भारत के ‘स्व, स्वत्व एवं संस्कृति’ का मूल स्रोत है, इसलिए उन्हें इससे भी आपत्ति है। क्या-क्या बदलेंगें? ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’, ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’, ‘सेवा अस्माकं धर्मः’, ‘नभः स्पर्शम दीप्तम्’ ‘कोश मूलो दंड’, ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ जैसे अधिकांश ध्येय-वाक्यों का संबंध तो सनातन शास्त्रों एवं संस्कृत से ही है, तो क्या केवल इसी आधार पर इन्हें बदल देना चाहिए? विचारणीय है कि यदि कोई वैदिक मंत्र हमें ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ (साथ चलने, साथ बोलने और साथ सोचने) की शक्ति व प्रेरणा देता है तो उस पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए?

स्मरण रहे कि भारतीय ज्ञान-परंपरा में धर्म व सत्य में भेद नहीं, अंतर्निहित संबंध हैं। धर्म जहाँ परिणामोन्मुखी व निर्देशात्मक होता है, वहीं सत्य वस्तुनिष्ठ होता है। यदि सत्य इस प्रश्न का उत्तर देता है कि “क्या है” तो धर्म इस प्रश्न का उत्तर देता है कि “क्या होना चाहिए।” धर्म संविधान में निहित न्याय, निष्पक्षता और समानता के अंतर्निहित मूल्यों को मजबूत करता है। धर्म सुनिश्चित करता है कि वैधानिक निर्णय न केवल विधिसम्मत हों, अपितु नैतिक   कसौटी पर भी खरे उतरने वाले हों। संविधान जहाँ देश के सर्वोच्च कानून के रूप में कार्य करता है, वहीं धर्म नैतिक दिशा-निर्देश प्रदान कर इसके अनुप्रयोग को बढ़ाता है। यह कानूनी व्याख्या व निर्णय लेने में सहायक एवं मार्गदर्शक भूमिका निभाता है। धर्म को विधिक प्रक्रिया, तर्क एवं व्याख्या में सम्मिलित कर न्यायाधीश नैतिक दुविधाओं को संबोधित एवं जटिल मुद्दों को हल कर सकते हैं। अंततः यह कहना सर्वथा उचित होगा कि ‘धर्म व संविधान’ तथा ‘धर्म व सत्य’ में परस्पर विरोध या टकराव न होकर सहयोग व पूरकता है।

(लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तंभकार है।)

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