गीता में वर्णित भगवान श्रीकृष्ण के उत्तर – ‘श्री भगवानुवाच’

✍ विजय गणेश कुलकर्णी

श्रीमदभगवद्गीता श्रीकृष्ण-अर्जुन का दिव्य संवाद है। संजय के अनुसार यह अद्‌भूत रहस्य मूल एवं रोमांचकारक भी है। इतना ही नहीं तो यह संवाद प्रश्नोत्तररूप है। अर्जुन के प्रश्न, शंका, जिज्ञासा का भगवान श्रीकृष्ण ने यथायोग्य, विस्तृत उत्तर, समाधान दिया है। भगवान ने उत्तर के रूप में, समाधान के रूप में क्या कहा इसकी चर्चा करेंगे।

इसमें पहली विशेषता यह ध्यान में आती है कि भगवान अर्जुन के प्रश्नों के उत्तरों के साथ बहुत कुछ ज्ञान की बातें बता रहे हैं। अर्जुन ने कुल 85 श्लोकों में 21 प्रश्न किये हैं। और इनके उत्तर के रूप में भगवान 574 श्लोक बोल रहे हैं। इसका अर्थ यह हो सकता है कि अर्जुन की जिज्ञासा को देखते हुए भगवान उदार होकर अधिक बोल रहे है। दूसरी बात यह भी है कि भगवान का अर्जुन के प्रति अधिक प्रेम था। जब गुरु का शिष्य के प्रति अधिक प्रेम होता है तो वह अपने ज्ञान का भण्डार मुक्त मन से खोल देता है।

तीसरी बात यह भी ध्यान में आती है कि भगवान श्रीकृष्ण को अर्जुन को निमित्त बनाकर भारत की सनातन ज्ञान सम्पदा को विश्व के सभी मानवों के लिए वितरित करने की इच्छा उत्पन्न हुई होगी। चौथी बात यह भी मान सकते है कि कुरुक्षेत्र का रणांगण, जिसको धर्म क्षेत्र कहा है, इस क्षेत्र पर मानव जाति को धर्म का शाश्वत उपदेश देने का यह सुवर्ण अवसर था। जिसका भगवान सदुपयोग करना चाहते थे। पाँचवीं एक महत्वपूर्ण बात यह भी हो सकती है कि कुरुक्षेत्र के रणांगण में अर्जुन की जो किंकर्तव्यविमूढ़, मोहग्रस्त मनोदशा हो गई थी और वह भगवान की शरण आ गया था, यह उपदेश देने का अच्छा अवसर था। अँग्रेजी में कहते है कि Hit the iron when it is hot. ऐसे उपयुक्त समय पर उपदेश देने से वह निश्चित परिणाम होगा ऐसा भगवान ने समझा होगा।

गीता का आरम्भ वास्तव में अद्भुत है। युद्ध के मैदान में, जबकि रणभेरी बज चुकी है, कोई सेनापति कहे कि मैं युद्ध नहीं करूंगा और रथ में बैठ जाए यह कल्पनातीत है। किंतु ऐसा हुआ। इस समय भगवान श्रीकृष्ण घोडों के लगाम पकड़ कर रथ में बैठे है और देख रहे है व अर्जुन का प्रवचन सुन रहे होंगे। अर्जुन अपने प्रवचन में भगवान को भी लपेट लेता है, वैसे तो भगवान उसके केवल सारथी नहीं थे तो सखा-मित्र थे। मित्र के साथ तो सब बातें हो सकती है। अर्जुन ने कहा – ‘किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा’ (1.32) हे गोविन्द! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है और आगे अर्जुन कहता है, ‘अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्’। (1.45) हाँ! शोक ! हम लोग बुद्धिमान‌ होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये है। अर्जुन चाहता है कि भगवान मेरी बात में हाँ भर दे। मानसिक दुर्बलता आने पर अपने को कोई समर्थक मिल जाए तो थोड़ी राहत मिल ही जाती है। अर्जुन की मनोदशा इसी स्थिति में पहुँची थी।

गीता के प्रथम अध्याय में भगवान कुछ बोले नहीं। किंतु उन्होंने यह ‘नाटक’ जरूर देखा और सुना होगा, क्योंकि वे उसी रथ का सारथ्य कर रहे थे। उन्होंने इस गंभीर परिस्थिति को समझ लिया होगा। समस्या को समझे बिना समाधान कैसा निकलेगा। अर्जुन भयग्रस्त नहीं था, वह मोहग्रस्त हो गया था। इस विपरीत परिस्थिति में भगवान को कुछ बोलना आवश्यक था। अपने सेनापति की इस प्रकार की दुर्दशा देखकर भगवान अर्जुन के प्रति दो श्लोकों में दो टूक बोले। उनको लगा होगा कि इतने से काम हो जाएगा। भगवान ने अर्जुन को ‘परंतप’, शत्रु को ताप देने वाला ऐसा संबोधन करते हुए, ‘हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।’ एक प्रकार भगवान ने अपने शिष्य को आज्ञा दी, ‘हे परंतप! उत्तिष्ट!

किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। भगवान ने सोचा होगा की इस दो-टूक बात से काम हो जाएगा। इसी दृष्टि से भगवान ने काफी कड़वी दवा दी। इतना ही नहीं तो अर्जन को ‘क्लेब्य’ क्रीव भी कहा। अनार्य शब्द का उपयोग किया। थोड़ा हितोपदेश भी किया। युद्ध न करना तुम्हारे लिए अकीर्तिकर है। अर्जुन इतना घोर विषाद-ग्रस्त था कि उसके ऊपर भगवान ने की हुई भर्त्सना या सुवच‌नों का कोई परिणाम नही हुआ। और अर्जुन ने फिर से अपने तर्कों का जाल बिछा‌या। इसके साथ एक प्रकार से हार मानकर, मैं कार्पण्य दोष से हत स्वभाव‌ वाला हो गया हूँ यह स्वीकार करते हुए, धर्मसम्मूढ़ अर्जुन ने भगवान से प्रार्थना की, मुझे जो निश्चित कल्याणकारक होगा वह कहिए। अर्जुन ने अपने को शिष्य और शरणागत कहकर मुझे भगवान से उपदेश की प्रार्थना की।

अर्जुन की इस प्रार्थना के बाद ‘श्री भगवानुवाच’ के रूप में भगवान का उपदेश प्रारम्भ होता है। अभी अर्जुन ने अपने को संवार लिया, तो स्थिरचित्त हुआ। और भगवान ने एक ही श्लोक में उपदेश दे दिया। वास्तविक इसी श्लोक में दूसरे अध्याय का सार आ गया है। बाकी श्लोक इस विषय का विस्तार है। शिष्य का पूरा समाधान नहीं होने तक गुरु को तो बोलना ही है। अर्जुन एकाग्रता के साथ सुन रहा था। अर्जुन जैसा धैर्यशील श्रोता दुर्लभ है। जो अच्छे से सुनता है उसके मन में प्रश्न उपस्थित होता है। ऐसा ही हुआ और अर्जुन ने ‘स्थितप्रज्ञ’ के बारे में जानना चाहा। यहाँ अर्जुन ने प्रश्न किया – स्थिर बुद्धि पुरुष का लक्षण क्या है? वह कैसे बोलता है? कैसे बैठता है? और कैसे चलता है?

श्रीभगवानुवाच – भगवान ने उत्तर के रूप में एक ही श्लोक में सब बता दिया। प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।। 2.55 ।। भगवान की उत्तर देने की शैली अद्‌भुत है। वस्तुत: इसी एक ही श्लोक में प्रश्न का उत्तर आ गया। बाकी उसका विस्तार है, जो अन्य सब लोगों के लिए है। यह बात भगवान विस्तार से नहीं बताते तो अठारह अध्यायों की गीता हमें इन ‘स्थितप्रज्ञ लक्षण’ के अठारह श्लोको में  सार रूप में नहीं मिलती। संत विनोबा भावे अपने आश्रमवासियों को इन श्लोको का नित्यपाठ कराते थे। इन श्लोकों का मराठी भाषा में जो पद्य अनुवाद है, वह हम प्राथमिक विद्यालय में दैनिक प्रार्थना के रूप में बोलते थे। ये अठारह श्लोक गीता प्रेमी लोगों के लिए प्रेरणादायक है।

तीसरे अध्याय में भग‌वान दो बार बोले है। अध्याय के आरम्भ में ज्ञान और कर्म में श्रेष्ठता के बारे में पूछे हुए प्रश्न का उत्तर भगवान सार रूप में एक ही श्लोक में बता रहे है।

श्रीभगवानुवाच – लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।। 3.3 ।।

हे निष्पाप अर्जुन! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है। बाकी श्लोकों में निष्काम कर्मयोग की बात कही है।

मनुष्य को राग-द्वेष से मुक्त होना चाहिए। इसके कारण कल्याण नहीं होता। यह सुनकर अर्जुन ने पूछा कि मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है? इस प्रश्न का उत्तर भी भगवान एक ही श्लोक में दे रहे है।

श्री भगवानुवाच – काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।। 3.37 ।। काम और क्रोध को शत्रु कहकर उन्हें मार डालने को कहा है। बाकी श्लोकों में विस्तार से समझाया है।

चौथे अध्याय में भगवान एक बार बाले हैं। अर्जुन का प्रश्न जिज्ञासापूर्ण था। आप अर्वाचीन काल में जन्में है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है- अर्थात् कल्प के आदि में हो चुका था, तब मैं इस बात को कैसे समझू कि आपही ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था। काल गणना के दृष्टि से यह प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण है। इसके उत्तर में भगवान ने कहा, अपने जन्म का रहस्य बता दिया। भगवान ने कहा- जन्म कर्मच मे दिव्य – “अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।”

मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन कर के अपनी योग माया से प्रगट होता है। आगे दसवें अध्याय में भगवान अपनी विभू‌तियों के बारे में बताते हुए कालः कलयतामहम्। मैं गणना करने वालों में काल हूँ।

पांचवे अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते समय भगवान कहते है- श्री भगवानुवाच – संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ।। 5.2 ।। यहाँ भी भगवान ने कर्मसंन्यास और कर्मयोग ये दोनों परम कल्याण के करने वाले है, परंतु इन दोनों में भी कर्मसंन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है। आगे के श्लोकों में भगवान ने इस बात को अधिक स्पष्ट किया है। वास्तव में अर्जुन के प्रश्न का उत्तर इस श्लोक में पूरा हो गया था। किंतु भगवान को इस उपलक्ष्य में बताना आवश्यक लगा होगा। इसलिए उन्होंने विस्तार किया।

छठवाँ अध्याय श्री भगवानुवाच से ही आरम्भ हुआ है। इसका अर्थ यह हो सकता है कि पांचवें अध्याय के बाद और कुछ करने का बाकी रहा था। वह है योग और योगी के बारे में बताने के लिए भगवान ने बताना शुरु किया। योग की बातें सुनकर अर्जुन ने दो प्रश्न पूछे उनके उत्तर में भगवान ने जो संक्षिप्त-सुनिश्चित उत्तर दिये है कि सभी मानवों के लिए मार्गदर्शक है। जैसे इस अध्याय के 33 व 34वें श्लोक में अर्जुन ने मन की चंचलता और उसके निग्रह के बारे में प्रश्न किया। यहाँ भगवान ने दो श्लोकों में उत्तर दिया। पहले तो अर्जुन के प्रश्न को स्वीकार किया। कहा कि हे महाबाहो। निःसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। किंतु कठिन के होने पर भी असम्भव नहीं। अभ्यास और वैराग्य से यह वश में हो सकता है। और मन को वश में करने की सलाह ‌भी दी।

इसके बाद अर्जुन ने सभी साधकों की ओर से जो संशय उपस्थित किया यह भी अद्‌भुत है। योगी की साधना सिद्धि को प्राप्त होने के पूर्व मृत्युआदि किसी कारण से अपूर्ण रह गई तो उसका क्या होगा? और प्रश्न के साथ अर्जुन ने भगवान पर विश्वास जताया कि इस मेरे संशय को नष्ट कर सके ऐसा आपके सिवाय दूसरा कोई मिलना संभव नहीं। प्रश्नकर्ता को उत्तर देने वाले पर पूरा विश्वास हो जाता है तो उत्तर भी अकारय हो जाता है। भगवान ने कहा – ‘पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते। न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति ॥ 6.40 ।।

इस उत्तर के द्वारा अर्जुन के माध्यम से भगवान ने सारे मानवों को आश्वस्त किया। कहा कि अच्छे कर्म कभी व्यर्थ  नहीं जाते होते। भगवान ने और स्पष्ट कर दिया कि ‘पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स।’ साधक उसके किये हुए पहले अभ्यास से ही निःसंदेह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है। इसके दो प्रगट उदाहरण है योगी श्री अरविन्द एवं उनकी शिष्या श्री माँ।

सातवें अध्याय में भगवान ने स्वयं ज्ञान-विज्ञान की बातें कही। अर्जुन के पूर्व प्रश्नों से प्रभावित होकर, ज्ञान देने के लिए योग्य सत्पात्र पाकर भगवान उदार होकर अर्जुन को उपदेश देने लगे। भगवान तो ज्ञान सागर है। वे एक-एक रहस्य खोल रहे हैं। अध्यात्म की बातें सुनकर अर्जुन भी प्रभावित हुआ। गुरु-शिष्य की यह जोड़ी अद्‌भुत है। इसीलिए गीता शांत और अद्भूत रस की रत्नाकर बन गई। अर्जुन तो इस रसपान का सुवर्ण अवसर छोडने वाला नहीं था। इस दृष्टि से अर्जुन ने आठवें अध्याय के शुरु में ही अपने प्रश्नों का पिटारा खोल दिया। मानो भगवान के ऊपर प्रश्नों की  बौछार कर दी।

शिष्य के प्रश्न आने पर गुरु का उत्साह बढ़ जाता है। अर्जुन ने श्लोकों में किए प्रश्नों का उत्तर भगवान दीर्घ 26 श्लोक बोलकर दे रहे है। और इसके बाद नववें अध्याय में भगवान के अमृतवाणी का प्रवाह अव्याहन बहते रहा। भक्ति की गंगा बहा दी। दसवें अध्याय के 11वें शलोक तक भगवान रुके नहीं।

दसवे अध्याय में अर्जुन ने प्रश्न किया की हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन कर‌ता हुआ आपको जानूँ और आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य है! हे जनार्दन! अपनी योग शक्ति को और विभूति को विस्तारपूर्वक कहिये। इस जिज्ञासा पर भगवान बोले- हे कुरुश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियाँ है; उनको तेरे लिए प्रधानता कहूँगा; क्योंकि मेरे विस्तार का अन्त नहीं हैं। अर्जुन की जिज्ञासा पर भगवान ने अपनी विभू‌तियां प्रारम्भ किया। काफी विभूतियाँ बताने के बाद कहा कि ‘नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ।। 10.40 ।।
अंत में कह दिया कि मैं इस सम्पूर्ण जगत को अपनी योग शक्ति के एक अंशमास से धारण करके स्थित हूँ।

भगवान ने अर्जुन को निमित्त कर सभी मानवों को एक सूत्र बना दिया। वह है- जो जो भी विभू‌तियुक्त (ऐश्वर्ययुक्त) कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस उसको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान।

जहाँ कोई विशेष, अलौकिक बात दिखाई देती है, उसमें ईश्वर का अंश है ऐसा समझना चाहिए। कारण एक अंश रूप में ईश्वर सब मनुष्य, वस्तुओं में व्याप्त है।

ग्यारहवें अध्याय में भगवान तीन बार बोले हैं। दसवें अध्याय में भगवान की विभूतियों को सूनने के बाद अर्जुन के मन में भगवान का विश्वरूप देखने की इच्छा जगी। और कहा, हे पुरुषोत्तम! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से युक्त एश्वर्य रुप को (विश्व रूप को) में प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ। इसको सुनकर भगवान ने एक अलौकिक रूप की झलक दिखाई और कहा कि अर्जुन तू अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में समर्थ नहीं इसलिए मैं तुझे दिव्य अर्थात अलौकिक चक्षु देता हूँ, इससे तू मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख। दिव्य चक्षु पाकर अर्जुन ने जो ऐश्वर्यरूप देखा उसका वर्णन किया।

भगवान का भयानक उग्र रूप देखने पर अर्जुन के मन में प्रश्न उत्पन्न हुआ। उसने पूछा कि आप उग्र रूप वाले कौन है? यह प्रश्न सुनकर भगवान ने उग्ररुप का रहस्य बताया। श्री भगवानुवाच – ‘कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो।’ में लोको का नाश करने वाला बड़ा महाकाल हूँ। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। तुम्हारे प्रतिपक्ष के योद्धा तेरे बिना भी मरेंगे, इसलिए तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्। मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ।। 11.33 ।। भगवान सब कुछ करने में समर्थ होते हुए भी अर्जुन के द्वारा करवाना चाहते थे। इसलिए अर्जुन को निमित्तमा होने को कहा। बाद में अर्जुन ने भगवान का काफी स्तुति-गान किया। और भगवान को कहा, ‘दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तवसौम्यं जनार्दन’। आपको शांत सौम्यरूप को देखकर अब मैं स्थिरचित्त हो गया है। तब भगवान ने कहा- मेरा जो चतुर्भुजरूप तुमने देखा है, यह का बड़ा दुर्लभ है। यह  ‘भक्त्या त्वनत्यया शक्य’ अनन्य भक्ति से ही देख पाना सम्भव है। अर्जुन भगवान का अनन्य भक्त था उसको ही दिव्य रूप देखने को मिला। और भगवान के किसी भक्त को नहीं मिला इस अध्याय का अंतिम श्लोक ‘मरकर्म कृत्वात्परमो’ – गीता का साररूप श्लोक है।

भक्तियोग नामक गीता का बारहवाँ अध्याय अर्जुन के प्रश्न से आरंभ होकर भगवान 19 श्लोकों में भक्त और भक्ति की महिमा बता रहे है। अर्जुन ने सगुण-साकार और निर्गुण निराकार उपासना करने वाले भक्तों में काम, उत्तम योगवेत्ता (योगवित्तमाः) है यह प्रश्न किया। यहाँ भगवान ने एक ही श्लोक में अपना मत बता दिया। अन्त के 13-20 श्लोकों में अपने प्रिय भक्त के लक्षण बताये। उसको ‘धम्र्यामृतम्’ कहा। यहाँ भक्तियोग की समाप्ति हो गयी।

त्रयोदश अध्याय में भगवान क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के बारे में बता रहे हैं। साथटि अमानित्व… आदि पाँच श्लोकों में ज्ञान के लक्षण बताकर इसके विपरीत बातों को अज्ञान कहा। सत्रहवें अध्याय के 1 से 20 श्लोक तक भगवान ने त्रिगुणों के बारे में विस्तार से बताया। यह सुनकर अर्जुन ने चिरगुणातीत पुरुष के लक्षण क्या है यह जानना चाहा। उत्तर में भगवान ने सार रूप में कहा- मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते। स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। 14.26 ।। अर्थात् जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मुझको निरंतर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भलीभाँति लांघकर सच्चिदानन्द धन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिए योग्य बन जाता है।

पन्द्रहवें और सोलहवें अध्याय में पुरुषोत्तम योग एवं दैवासुर सम्पाद्विभाग योग की बात कही है। सत्रहवें अध्याय में  आरंभ में भिविध श्रद्धा के बारे में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में संख्यकी, राजसी, तामसी श्रद्धा के बारे में विस्तार से व्याख्यान किया है।

अठाहरवें अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन ने अपनी जिज्ञासा प्रगट करते हुए कहा कि मै संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक-पृषक जानना चाहता हूँ। इसके उत्तरे में भगवान ने 2 से 72 श्लोकों में तत्त्व विवेचन करते हुए अपने उपदेश की परिसमाप्ति की। गीता के इस अध्याय को संत ज्ञानेश्वर ने ‘एकाध्यायी गीता’ कहा है। अर्थात यह एक अध्याय भी ठीक से समझ ले तो गीता पाठ का फल मिल जाता है। साथ ही श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने अठारहवें अध्याय को ‘कलश अध्याय’ बताया है। प्रथम अध्याय गीता रूपी प्रसाद की नींव है तो अठारहवाँ अध्याय प्रसाद का कलश, जिसके ऊपर धर्म की ध्वजा फहराई है।

इस अध्याय पर 72वें श्लोक में भगवान ने अर्जुन को एक-दो प्रश्न पूछे है। हे पार्थ! क्या मेरे बताये हुए उपदेश को तूने एकाग्रचित्त श्रवण किया? और दूसरा, हे धनंजय। क्या तेरा अज्ञानजनित मोह-नष्ट हो गया? केवल पाठ पढ़ाने से गुरु का काम पूरा नहीं होता। ये दोनों प्रश्न बड़े महत्त्व के है। शिष्य में मन की एकाग्रता हो तो वह ठीक से सुनेगा और समझेगा। इस दृष्टि से भगवान-गुरु को यह जानना आवश्यक होता है। आज की शिक्षा पद्धति में एकाग्रता कैसी करना यह सिखाया नहीं जाता। इसी कारण छात्र ठीक से सुनते नहीं और समझते नहीं। दूसरी बात यह है कि भगवान को अर्जुन का अज्ञान जनित मोह दूर करने के लिए गीता सुनानी पड़ी। इसलिए उनका यह उद्देश्य सफल हुआ या नहीं यह जानना आवश्यक था। गीता में अर्जुन ने 21 बार भगवान को प्रश्न किए है। और भगवान को दीर्घ 574 श्लोकों में उत्तर सुनाने पड़े। अंत में शिष्य की भी तो परीक्षा होनी चाहिए। हो सकता है इसीलिए भगवान ने अर्जुन को उक्त दो प्रश्न किये। अर्जुन ने स्वीकार किया कि हाँ मेरा मोह नष्ट हो गया। और अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। इसके साथ अर्जुन ने भगवान की कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया, मैने स्मृति प्राप्त कर ली, अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूँ। जो पहले अध्याय में रथ में बैठ गया था वह अर्जुन अब खड़ा हो गया। यही गुरु का कार्य पूरा हो गया। शिष्य पूर्णरुप से संशय रहित होने तक गुरु को विश्राम कहाँ? अर्जुन के मुख से ‘करिष्ये वचनं तव’ तब सुनने पर गुरु को विश्राम मिला। इस प्रकार भगवान ने अर्जुन के प्रश्नों का, जिज्ञासा का उत्तर देते हुए मानव जाति के लिए गीतामृत का वितरण किया।

(लेखक वरिष्ठ प्रचारक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के पूर्व सह-सचिव है।)

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