– प्रशांत पोळ
पिछले लेख में हमने भारत के पश्चिमी दिशा में भारतीय संस्कृति के पदचिन्ह खोजने का प्रयास किया था। ‘बेरेनाईक परियोजना’ जैसे पुरातात्विक उत्खनन के माध्यम से, केल्टिक एवं यजीदी संस्कृति के प्रदर्शन एवं पश्चिम के अनेक संग्रहालयों में रखी हुई भारतीय वस्तुओं, अवशेषों इत्यादि के माध्यम से भारतीयों के पदचिन्ह बिलकुल स्पष्ट और मजबूती से दिखाई देते हैं।
परन्तु भारत के पूर्वी भाग की परिस्थिति बिलकुल अलग है। विश्व के इस क्षेत्र में भारतीयों के प्राचीन अस्तित्त्व चिन्ह खोजने की आवश्यकता ही नहीं है। ‘अंगकोर वाट’ जैसा विश्व का सबसे बड़ा प्रार्थना स्थल समूचे विश्व के सामने सीना तानकर भारतीय संस्कृति का अकाट्य प्रमाण दे रहा है। कम्बोडिया जैसा देश अपने राष्ट्रध्वज पर ‘अंगकोर वाट’ जैसे हिन्दू मंदिर का चिन्ह रखकर गर्व से इस तथ्य को रेखांकित करता है।
अक्षरशः हजारों मंदिर, हजारों शिलालेख, हजारों शिल्पाकृति, अनेक कागज़ यह सभी आग्नेय दिशा में फैली हुई भारतीय संस्कृति के तथ्यों को मजबूती से विश्व के सामने रखते हैं।
हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारे स्कूलों में बच्चों को कोलंबस की जानकारी होती है, उसके द्वारा खोजे गए अमेरिका की जानकारी होती है, नेपोलियन पता है, अमेरिका के बड़े शहर पता हैं, वास्कोडिगामा की भी जानकारी है। परन्तु अपनी ही संस्कृति को अभिमान के साथ दर्शाने वाले कम्बोडिया की राजधानी के बारे में कोई नहीं जानता। जावा-सुमात्रा, यवद्वीप, श्रीविजय, यशवर्मन, अंगकोर वाट इत्यादि शब्द इनके लिए ग्रीक अथवा हिब्रू भाषा जैसे प्रतीत होते हैं। क्योंकि इन बच्चों को कभी भी भारत के विशाल सांस्कृतिक-धार्मिक साम्राज्य के बारे में बताया ही नहीं गया।
दक्षिण-पूर्व (अर्थात् आग्नेय) एशिया में अपनी भारतीय संस्कृति आज भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है, महसूस होती है। परन्तु भारतीय संस्कृति का प्रभाव विश्व के इस क्षेत्र में कब से आया, इस बारे में कोई स्पष्ट जानकारी कहीं भी उपलब्ध नहीं है। कुछ शिलालेखों से थोड़ी जानकारी मिलती है, परन्तु इन देशों में सबसे पहला भारतीय व्यक्ति कब और कैसे आया, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता।
कम्बोडिया नामक देश, भारत से जमीनी मार्ग एवं समुद्री मार्ग, दोनों से ही जुड़ा हुआ है। भारत के पूर्वी दिशा में है ‘ब्रह्मदेश’ (बर्मा। वर्तमान – म्यांमार) और उससे सटा हुआ है थाईलैंड और उसके आगे कम्बोडिया। प्राचीनकाल में ‘कम्बुज’ नाम से पहचाने जाने वाले इस देश में भारतीयों का प्रवेश कैसे हुआ, इस बारे में एक दंतकथा बताई जाती है, जो इस देश में काफी प्रचलित है।
ईस्वी सन् आरम्भ होने से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व, कौण्डिन्य नामक एक भारतीय ब्राह्मण कुछ लोगों के साथ यहां आया था। इस ‘शैलराज कौण्डिन्य’ को युद्ध नहीं करना था। तब वहां के स्थानीय नाग लोगों को इस बात का बहुत आश्चर्य हुआ। नाग समुदाय की राजकन्या कौण्डिन्य से प्रेम करने लगी। कौण्डिन्य इस देश का दामाद बन गया। ऐसा कहा जाता है कि आगे चलकर वह राजा भी बना और उसने अपनी हिन्दू संस्कृति इस देश को दी। कौण्डिन्य द्वारा स्थापित किए गए राज्य की राजधानी थी – व्याधपुर। इस सन्दर्भ में कुछ शिलालेख वहां पर प्राप्त हुए हैं। अंगकोर वाट के विश्वप्रसिद्ध मंदिर में पाए गए एक शिलालेख पर लिखा हुआ है –
कुलासीद भुजगेन्द्र कन्या सोमेती सा वंशकरी पृथिव्यां।
कौण्डिन्यनाम्ना द्विजपुन्गवेन कार्यार्थ पत्नीत्व मनायियापी।।
चीनी इतिहासकारों ने भी कौण्डिन्य के बारे में काफी कुछ लिखा है। इसलिए इसे केवल काल्पनिक कथा नहीं कहा जा सकता। कौण्डिन्य द्वारा स्थापित राज्य का चीनी नाम है, ‘फुनान साम्राज्य’। इसका हिन्दू नाम उपलब्ध नहीं है। इसीलिए विश्व इतिहास में यह ‘फुनान साम्राज्य’ के नाम से ही पहचाना जाता है। ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि लगभग ईस्वी सन 631 तक यह फुनान साम्राज्य अस्तित्व में था। इस कालखंड में भारत के अनेक युवक इस साम्राज्य में स्थायी निवासी हुए और उन्होंने स्थानीय नाग युवतियों से विवाह भी किए, ऐसे तथ्य मिलते हैं। इसी कालखंड में इन भारतीयों ने अपने कृषि ज्ञान का उपयोग करते हुए इस साम्राज्य में बड़ी-बड़ी नहरें बनाईं। यह नहरें आज भी उपग्रह से कम्बोडिया के चित्र लेने पर स्पष्ट दिखाई देती हैं।
लगभग सातवीं शताब्दी के आरम्भ में फुनान राजवंश में अराजकता निर्मित हुई, इस कारण भारत से वहां गए हुए ‘कम्बू’ नामक क्षत्रिय ने वहां पर शासन और सत्ता के सूत्र अपने हाथों में लिए। तभी से यह देश ‘कम्बुज’ के नाम से पहचाना जाने लगा। आगे चलकर इसी शब्द से कम्बोडिया बना। इस कम्बुज वंश ने लगभग तीन सौ – साढ़े तीन सौ वर्षों तक देश में शासन किया। इसी कालखण्ड में भववर्मन, महेंद्रवर्मन जैसे महापराक्रमी राजा भी हुए।
आगे नौवीं शताब्दी में जयवर्मन (द्वितीय) ने खमेर साम्राज्य की स्थापना की। इसी राजा के नाती यशवर्मन ने यशोधरपुर नामक नई राजधानी का निर्माण किया। इसी वंश के सम्राट सूर्यवर्मन ने विश्व के सबसे बड़े प्रार्थना स्थल, हिन्दू मंदिर ‘अंगकोर वाट’ का निर्माण किया।
कहने का तात्पर्य यह है कि ईस्वी सन् की पहली शताब्दी से लेकर अगले हजार/बारह सौ वर्षों तक इस विशाल साम्राज्य में हिन्दू संस्कृति अत्यंत गर्व एवं वैभव के साथ फलती-फूलती रही। भारत से काफी दूर स्थित इस देश में लगभग छह सौ/सात सौ वर्षों तक संस्कृत ही राजभाषा के रूप में सम्मानजनक स्थान पर रही। लगभग एक हजार वर्षों तक भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ। उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता जैसे कई पवित्र ग्रंथ इस देश के प्रत्येक घर का अविभाज्य अंग रहे। अर्थात् एक सामर्थ्यशाली, वैभवशाली, ज्ञानशाली रहा हुआ यह विशाल हिन्दू राष्ट्र, लगभग हजार/बारह सौ वर्षों तक सुख-समृद्धि से भरपूर रहा। परन्तु हम ही ऐसे दुर्भागी हैं कि हमें हमारी शिक्षा पद्धति में इस गौरवशाली इतिहास के बारे में किसी ने कुछ बताया ही नहीं, पढ़ाया ही नहीं। यूरोप के छोटे-छोटे से देशों का इतिहास एवं भूगोल को याद करने वाले हम लोग, हमें अपने ही इस तेजस्वी इतिहास की जानकारी नहीं है।
यह तो हुआ ‘कम्बुज’ देश का उदाहरण। ऐसे ही यवद्वीप के बारे में भी है। यवद्वीप, अर्थात् आज का जावा, अर्थात् इंडोनेशिया का एक भाग, किसी समय पर सम्पूर्ण हिन्दू राष्ट्र था। यहां तक कि रामायण और ब्रह्मपुराण में भी यवद्वीप का उल्लेख मिलता है। यहां भी भारतीय वंश के लोग कब पहुंचे, इसका कोई सटीक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। परन्तु कई हजार वर्षों से यहां पर हिन्दू संस्कृति का प्रादुर्भाव है, यह निश्चित है। जावा के लोगों की मान्यता है कि भारत से आए हुए ‘आजिशक’ नामक पराक्रमी योद्धा ने यहां से स्थानीय राक्षसों के देवता माने जाने वाले राजा का वध करके, यहां पर सामर्थ्यशाली राजवंश का निर्माण किया था।
जैसे जावा, वैसे ही सुमात्रा। यह क्षेत्र प्राचीन काल में सुवर्णद्वीप अथवा सुवर्णभूमि के नाम से प्रसिद्ध रहा है। यह आधुनिक इंडोनेशिया का सबसे बड़ा द्वीप है। इस द्वीप पर लगभग सातवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक हिंदुओं का ‘श्रीविजय साम्राज्य’ स्थापित था। अत्यंत वैभवशाली एवं सम्पन्न इस साम्राज्य के बारे में आधुनिक संसार को सन् 1920 तक कोई भी जानकारी नहीं थी, यह हमारा बड़ा दुर्भाग्य है। 1920 में एक फ्रांसीसी शोधकर्ता ने इस साम्राज्य के बारे में कई जानकारियां दुनिया के सामने लाईं। इसके बाद ही इस साम्राज्य की ओर लोगों का ध्यान गया। और फिर विभिन्न माध्यमों से कई प्रकार की जानकारी सामने आने लगी।
इत्सिंग नामक एक चीनी बौद्ध प्रवासी, बौद्ध धर्म का अध्ययन करने सातवीं शताब्दी में (इस्वी सन् 671 में) भारत स्थित नालन्दा के लिए निकला। परन्तु नालन्दा में अध्ययन करने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान आवश्यक है, यह बात उसे पता थी। इसीलिए वह चीन के ‘ग्वांझावू’ प्रांत से यात्रा करते हुए श्रीविजय साम्राज्य में आकर रुका और संस्कृत में पारंगत हुआ। इत्सिंग ने अपने कुल पच्चीस वर्ष के प्रवास में 6 से 7 वर्ष श्रीविजय साम्राज्य में बिताए। उसने इस साम्राज्य के बारे में काफी कुछ लिखा है।
श्रीविजय साम्राज्य के कालखण्ड में ही त्रिमूर्ति प्रमबनन (परब्रह्म शब्द का अपभ्रंश) नामक भव्य हिन्दू मंदिर, जावा द्वीप पर ईस्वी सन 850 में बनाया गया। दुर्गादेवी, गणपति एवं अगस्त्य ऋषि की त्रिमूर्ति वाला यह मंदिर अत्यधिक भव्य है और इतनी शताब्दियों पश्चात आज भी वहां पर व्यवस्थित रूप से उपासना-पूजा निरंतर जारी है।
विश्व में सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या वाला इंडोनेशिया नामक देश आज भी अत्यंत गर्व के साथ अपनी हिन्दू पहचान एवं इतिहास का प्रदर्शन करता है। इस देश का नाम आज भी कहीं-कहीं ‘दीपान्तर’ (समुद्र पार का भारत) प्रचलित है। यहां के स्थानीय नोटों पर भगवान गणेश का चित्र है। इनकी विमान सेवा का नाम ‘गरुड़ा एयरवेज’ है। यहां बैंक को कोषागार कहते हैं और इनकी बहासा (भाषा) इंडोनेशिया में (यहां की अधिकृत भाषा में) सत्तर प्रतिशत संस्कृत शब्द मिलते हैं। इंडोनेशिया का राष्ट्रीय बोधवाक्य है –
‘भिन्नेका तुंगल इका’ (अर्थात् विविधता में एकता) ।
इंडोनेशिया का बाली द्वीप प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर विश्वप्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। आज भी बाली की 90 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दू है और हिन्दू आचरण-पद्धति के अनुसार जीवन व्यतीत कर रही है। बाली द्वीप पर प्राप्त सबसे पहला हिन्दू शिलालेख ब्राह्मी लिपि में है और यह ईसा पूर्व 150 वर्ष का है।
वियतनाम नामक देश को हम एक कम्युनिस्ट देश के रूप में जानते हैं, जिसने सत्तर के दशक में अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्र को झुका दिया था। परन्तु यह वियतनाम एक समय पर पूर्ण हिन्दू राष्ट्र था। इस देश का नाम उस समय चंपा था, और इसके पांच प्रमुख विभाग थे –
१. इन्द्रपुर
२. अमरावती (चंपा)
३. विजय (चंपा)
४. कौठर
५. पांडुरंग (चंपा)
ईस्वी सन् की पहली शताब्दी से आगे लगभग एक हजार वर्षों तक यह देश पूर्णतः हिन्दू संस्कृति एवं आचार-विचार के आधार पर समृद्ध रहा। श्री भद्रवर्मन, गंगाराज, विजयवर्मन, रुद्रवर्मन, ईशान्वर्मन जैसे महापराक्रमी राजाओं के कारण इस देश की वृद्धि-समृद्धि हुई। ईस्वी सन् की पाँचवी शताब्दी के आरम्भ में भद्रवर्मन के पुत्र गंगाराज ने सिंहासन का त्याग करके अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्ष भारत में आकर गंगा किनारे व्यतीत किए। आगे चलकर पांडुरंग वंश ने भी कई वर्षों तक शासन किया।
इस सम्पूर्ण कालावधि में, ‘चम्पा’ के इतिहास में भारतीय संस्कृति को सच्चे अर्थों में लागू किया गया। भारतीय पद्धति के अनुसार सेनापति, पुरोहित, ब्राह्मण, पंडित वगैरह की रचना की गई। महसूल वसूली की व्यवस्था भी भारत देश के समान ही रखी गई थी। मंदिर अधिक भव्य नहीं थे, परन्तु कलात्मकता से भरपूर थे। यज्ञ, याग, अनुष्ठान बड़े पैमाने पर किए जाते थे। भारतीय ग्रंथों, पुराणों को विशेष महत्त्व दिया जाता था। इस ‘चाम’ संस्कृति के कुछ अवशेष आज भी बाकी हैं, जिन्हें ‘चम’ के नाम से जाना जाता है। मूलतः ‘चम’ लोग हिन्दू रीति रिवाजों का पालन करने वाले लोग हैं। कम्बोडिया एवं वियतनाम इन दोनों ही देशों में ‘चम’ समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है।
इसी प्रकार लाओस नामक देश भी एक कालखंड में हिन्दू संस्कृति को मानने वाला देश रहा है। लाओस के इतिहास में सबसे पहले जिस हिन्दू राजा का नाम आता है, वह हिन्दू राजा था, श्रुतवर्मन। इस राजा द्वारा स्थापित राजधानी का नाम था ‘श्रेष्ठपुर’। लाओस देश में सभी हिन्दू उत्सव बड़े ही उत्साह एवं भव्यता के साथ मनाए जाते रहे हैं। आज भी लाओस, वियतनाम, कम्बोडिया जैसे आसपास के देशों में हिन्दू पद्धति का कैलेण्डर चलता है। बुद्धिस्ट कैलेण्डर में भारतीय महीने (चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़…) होते हैं एवं इस क्षेत्र के अनेक देशों में यह कैलेंडर चलता है। विशेष बात यह है कि हमारे वर्ष प्रतिपदा (गुड़ी पाड़वा) के समय पर ही लाओस का नवीन वर्षारंभ उत्सव मनाया जाता है और यह उत्सव समूचे लाओस में अक्षरशः प्रत्येक घर में मनाया जाता है।
प्राचीनकाल का ‘सयाम’, अर्थात् आज के समय का ‘थाईलैण्ड’। इस सयाम नामक देश में भी एक अयोध्या (उनकी भाषा में अयुथ्या) है और इन्हें यही अयुथ्या भगवान राम की मूल अयोध्या लगती है। प्रभु राम का आज भी यहां पर अत्यधिक प्रभाव है। थाईलैंड के राजा स्वयं को प्रभु राम का वंशज कहते हैं। बैंकाक के सभी प्रमुख मार्गों के नाम में ‘राम’ का नाम शामिल है।
सिंगापुर का मूल नाम है ‘सिंहपुर’। सिंगापुर के निवासियों को इसका अभिमान है। इस देश के अधिकृत पर्यटन सूचना पत्रक में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है। प्राचीनकाल में सिंहपुर के लोग संस्कृत भाषा का उपयोग दैनंदिन जीवन में कैसे करते थे, इस बात का जिक्र सिंगापुर के लोग बड़े अभिमान के साथ करते हैं। सिंहपुर नाम होने के कारण सिंगापुर ने अपने देश की पहचान के रूप में ‘सिंह’ को स्वीकार किया है।
कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण दक्षिण-पूर्व एशिया, लगभग हजार-बारह सौ वर्षों पूर्व तक हिंदुत्व का गुणगान करता था। यहां के लोग हिन्दू जीवन पद्धति का पालन करते थे। इस क्षेत्र के देशों में भव्य एवं कलात्मक मंदिरों का निर्माण होता था। यज्ञ-याग किए जाते थे, भगवान को स्मरण किया जाता था। वेद और उपनिषदों से, पुराणों की ऋचाओं से, आसमान गूंजता था। सम्पूर्ण विश्व को शान्ति के संस्कार देने वाली हिन्दू एवं बौद्ध संस्कृति इन सभी देशों में लोगों को सुख, समाधान एवं शान्ति से जीवन व्यतीत करना सिखाती थी।
इन हजारों वर्षों के प्रवास में भारत ने अपनी वर्ण-व्यवस्था उन देशों में नहीं पहुँचाई। अपनी खाद्य संस्कृति भी इन देशों पर थोपने का प्रयास नहीं किया। इन देशों को अपना उपनिवेश भी कभी नहीं समझा। व्यापार करने के लिए इन देशों को भारत ने कभी भी बाध्य अथवा विवश नहीं किया। इन देशों के निवासियों को कभी तुच्छ नहीं माना, और ना ही कभी युद्ध करके इन देशों पर विजय प्राप्त करने का कोई प्रयास किया!
यह सब कुछ बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि हिन्दू संस्कृति के बाद आने वाले छह-सात सौ वर्षों में अंग्रेजों, डच, पुर्तगाली, फ्रेंच, स्पेनिश लोगों ने एशिया के इन देशों में जैसे-जैसे अपने उपनिवेश स्थापित किए, उन्होंने उपरोक्त बातों में से एक भी बात का पालन नहीं किया।
हमारा दुर्भाग्य यह है कि, इस वैभवशाली, शक्तिशाली, उदात्त और अभिमानास्पद इतिहास के बारे में हमें अपने देश में ही कोई जानकारी नहीं है और हमारे राजनेताओं ने आज तक इस जानकारी को भावी पीढ़ी तक पहुंचाने की कोई इच्छा तक नहीं दिखाई है!!
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