संत रविदास जी का जीवन- दर्शन

 – डॉ कुलदीप मेहंदीरत्ता

भारत देश की पवित्र भूमि पर समय-समय पर ऋषि-मुनियों, संत जनों और महापुरुषों ने अवतार लिया है और अपने अद्भुत और अलौकिक ज्ञान से समाज का मार्गदर्शन किया है। संत-महात्माओं और ऋषि-मुनियों के ज्ञान और तप के कारण ही भारत को विश्वगुरु की उपाधि प्राप्त हुई। महात्मा या महापुरुष कहा ही उसे जाता है जो समाज में विद्यमान अज्ञान और अधर्म के अंधकार से निकालकर हमें प्रकाश की ओर ले जाता है। बृहदारण्यकोपनिषद् में वर्णित पवमान मन्त्र ‘ॐ असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतं गमय’ जिन महापुरुषों की जीवन शैली, जीवन चर्या और सामाजिक-आध्यात्मिक व्यवहार में साकार रूप ग्रहण करता प्रतीत होता है। ऐसे महापुरुषों में शीर्षस्थ महापुरुष हैं प्रातः स्मरणीय संत रविदास जी।

ऐसा माना जाता है कि महान संत रविदास जी का जन्म विक्रमी संवत् 1433 में वर्तमान वाराणसी के निकट गाँव सीर-गोवर्धनपुर में हुआ था। हालांकि जन्मस्थान और जन्मतिथि को लेकर कई मत समाज में विद्यमान हैं। यह भी कहा जाता है कि रविवार के दिन जन्म होने के कारण उनका नाम रविदास रखा गया था। वह समय ऐसा था जब हमारे देश और समाज में जात-पात, छुआ-छूत, पाखण्ड और अंधविश्वास का बोलबाला था। लेकिन इसी समय में सामाजिक परिष्कार और लोक-परिमार्जन की विशाल दृष्टि लेकर कई संत-महात्माओं का इस धरा पर आगमन हुआ जिन्होंने न केवल समाज में फैली कुरीतियों के विरुद्ध जनजागरण का कार्य किया बल्कि समाज को जोड़ने का भी कार्य किया। ऐसे महापुरुषों में संत कवि रविदास का नाम अग्रणी रूप में स्थापित और प्रतिष्ठापित है।

संत रामानंद के शिष्य और गुरुभाई कबीर की भाँति रैदास जी का व्यक्तित्व “कागद मसि छुऔ नहीं कलम गहौ नहिं हाथ” के औपचारिक शिक्षण की अपेक्षा व्यावहारिक और आध्यात्मिक अनुभूति से ओत-प्रोत था।

“पंडित गुनी कोई ढिग न बिठाये। वेद शास्त्र किन्हुँ न पढ़ाये।।

अंतरमुखी जाउ कीन्हों ध्याना। चारिउ जुगनि का पायो गियाना।।

कागद कलम मसि कछु नाही जाना। सतगुरु दीन्हो पूरन गियाना।।”

उपरोक्त शब्दों अभिव्यक्ति करते हुए संत रविदास जी ने गुरु-महिमा को प्रतिष्ठित किया और मानव जीवन के लिए गुरु की महता और आवश्यकता को रेखांकित किया।

भक्ति-भाव से परिपूर्ण संत रविदास परम ज्ञानी होते हुए भी इतने सरल  हैं कि ‘हौ पढयौ राम को नाम, ऑन हिरदै नहिं आनौ। अवर हुँ कछु न जानों, राम नाम हिरदै नहिं छाँड़ो।।’ थोड़े से ज्ञान को पाकर फूल जाने वाले लोगों के लिए यह आइना दिखाने जैसा है कि इतना बड़ा व्यक्तित्व कितना सहजता से स्वीकार कर रहा है ‘मैं रामनाम के सिवा कुछ नहीं जानता’। भौतिकतावाद और आधुनिकतावाद से उत्पीड़ित वर्तमान मनुष्य को जीवन की वास्तविकता से परिचय कराने वाला श्रेष्ठ उदाहरण हमें संत रविदास जी के जीवन से मिलता है।

सर्वजन हिताय, जीव मात्र के कल्याण और मानव मात्र के सम्मान की इच्छा – रैदास जी के जीवन दर्शन के अविस्मरणीय पहलू हैं।  रविदास जी कहते हैं कि ‘ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न। छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न’।  ऐसी समाज-कल्याण की भावना और शासक वर्ग से प्रजा के हितार्थ कार्य करने की अपेक्षा और प्रेरणा विश्व के अन्य किसी साहित्य में दुर्लभ है।

आध्यात्मिक चेतना संत रविदास तथा अन्य संत कवियों के काव्य-रचाव का विशिष्ट अंग है। रविदास जी का मानना था कि प्रभु का वास्तविक स्थान मनुष्य के हृदय में है। मनुष्य के ह्रदय में ही परमात्मा निवास करता है उन्होंने कहा कि “का मथुरा का द्वारका, का कासी हरिद्वार। ‘रैदास’ खोजा दिल आपना, तउ मिलिया दिलदार”।। इस बात का सीधा-स्पष्ट संदेश था कि बाह्याचारों और आडम्बरों से नहीं बल्कि सच्चे हृदय से परमात्मा की भक्ति कर ही परमात्मा को पाया जा सकता है।

जन्म और वर्ण आधारित व्यवस्था ने भारतीय समाज और चिन्तन को जितनी हानि पहुंचाई है उतनी हानि सम्भवतः हमारे समाज को विदेशी आक्रमण और संस्कृतियाँ नहीं पहुंचा पाई।  रविदास जी “जात-पाँत के फेर मंहि, उरझि रहई सब लोग। मानुषता को खात हइ, रैदास जात कर रोग।।” के उपचार की आकांक्षा रखते हैं। सामाजिक समरसता का स्वप्न और लक्ष्य हमारे समाज की चिर प्रतीक्षित अभिलाषा है। जन्म आधारित अंतर को चुनौती देते हुए रविदास जी कहते हैं  “रैदास जन्म के कारणै, होत न कोई नीच। नर को नीच करि डारि हैं, औछे करम की कीच।।” इस प्रकार मानव-मात्र को सत्कर्म की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि जन्म के कारण कोई नीच नहीं होता बल्कि गलत कर्म करने से व्यक्ति अच्छा या बुरा होता है।

सामाजिक सम्मान और समानता का उद्घोष रविदास जी के साहित्य सृजन का अभिन्न अंग है – “एकै माटी के सभै भांडे, सभ का एकै सिरजनहार। रैदास व्यापै एकौ घट भीतर, सभ को एकै घडै कुम्हार।।” प्रभु भक्ति का मार्ग न केवल व्यक्ति के बल्कि समाज के परिवर्तन और उत्थान का मार्ग है। आध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले पथिकों में जाति-पाति का भेद नहीं है – “जन्म जात मत पूछिए, का जात और पाँत। ‘रैदास’ पूत सम प्रभ के कोई नहिं जात-कुजात।।” इस प्रकार रविदास जी के विचारानुसार ‘रैदास एकै ब्रह्म का होई रहयों सगल पसार। एकै माटी सब घट सजै, एकै सभ कूँ सरजनहार’ प्रभु के यहाँ कोई जातिगत भेदभाव नहीं है, हम सब एक प्रभु के पुत्र हैं, एक प्रभु की रचना हैं, और मानव जाति से ही सम्बन्ध रखते हैं।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी को बनाने वाला वह एक ही ‘सिरजनहार’ परमात्मा है। ‘एक बूँद से सब जग उपज्या मन्त्र के महान साधक रविदास जी के अनुसार उस एक ही बूँद (प्रभु) का विस्तार ही यह संसार है। प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में उसी परमात्मा का अंश विद्यमान है, फिर किस आधार पर किसी एक को श्रेष्ठ तथा किसी दूसरे को निकृष्ट समझा जाए।

सामाजिक क्रांति के अग्रदूत संत रविदास ने हिंदू मुसलमानों में भावात्मक एकता स्थापना, समरस समाज, विषमताहीन समाज की स्थापना का एक भावचित्र हमारे सामने प्रस्तुत किया है और धार्मिक संकीर्णताओं, भेदभावों, मांसाहार, अनैतिकता, छुआछूत तथा वर्ण व्यवस्था, तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शोषण तथा धनलिप्सा के कारण अधर्म, दुराचरण जैसे सामाजिक दुर्गुणों का परिष्कार करने की प्रेरणा दी है। एक ऐसे समरस समाज के निर्माण का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है जब संत रविदास जी जैसे महान व्यक्तित्व के आदर्शों को जीवन में उतारते हुए हम सभी अपना पूरा प्रयास करें।

(लेखक चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी (हरियाणा) में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष है।)

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