संत कबीर जी का शिक्षा दर्शन : निहितार्थ

–  डॉ० कुलदीप मेहंदीरत्ता

आदिकाल से ही भारत विचारकों, ऋषि-मुनियों, संतों और मनीषियों की जन्मभूमि तथा कार्यभूमि रही है। यह भारत का सौभाग्य रहा है कि विशाल भौगोलिक और सांस्कृतिक फलक के चलते भारत को इन महापुरुषों का सान्निध्य निरंतर प्राप्त होता रहा है। ऐसे ही एक महान संत हुए है – महात्मा कबीर जी। कबीर जी की पहचान केवल एक संत अथवा महात्मा के रूप में नहीं होती बल्कि उन्हें अपने ज्ञान और योगदान के लिए युगद्रष्टा तथा क्रांतिकारी कवि, दार्शनिक, समाज सुधारक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक चेतना जागृति के अग्रदूत के रूप में भी जाना और स्वीकारा जाता है। संत कबीर जी की वाणी को हिंदी साहित्य तथा गुरुग्रंथ साहिब में विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है।

‘मसि कागद छूवो नहीं, क़लम गही नहिं हाथ’ की स्पष्ट स्वीकारोक्ति करने वाले कबीर जी की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से है। रचाव (रचना) की दृष्टि से उनके साहित्य के तीन भाग प्रमुख रूप से माने जाते हैं – रमैनी, सबद तथा साखी सारवी। कबीर जी की भाषा को सधुक्कड़ी भाषा भी कहा जाता है क्योंकि उनकी भाषा में पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रज भाषा आदि कई भाषाओं का मिश्रण है। कबीर जी की हर बात, हर साखी और हर दोहा जनता के हित की कामना लिए  हुए है। उनकी हर बात में कोई न कोई उपदेश, शिक्षा, सलाह और सीख शामिल है, जिसका उद्देश्य जनकल्याण अथवा जनपरिष्कार करना रहा है।

कबीर जी के द्वारा रचित साहित्य में गुरु और शिक्षा का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। कबीर जी ने गुरु के मार्गदर्शन और सम्यक ज्ञान को मानव जीवन के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना है क्योंकि गुरु और उचित शिक्षा के बिना मानव अपने जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। शिक्षा एक प्रक्रिया है जो गुरू-शिष्य सम्बन्धों के आधार पर निष्पादित की जाती है। कबीर जी ने गुरु को परम आदरणीय मानते हुए सर्वोच्च स्थान पर रखा है। कबीर जी  ने गुरु को मानव जीवन के परम लक्ष्य माने जाने वाले मूल्य ‘मोक्ष’ की प्राप्ति का साधन माना है। कबीर जी ने ‘गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय’ की अभिव्यक्ति कर गुरु को परमात्मा से भी ऊँचा स्थान दिया है।

कबीर जी के गुरु और हमारे आज के शिक्षक में जो मूल्यगत और विचारगत अंतर आ गया है, उसे समझने और ठीक करने की आवश्यकता है। कबीर  जी कहते हैं ‘सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय। सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय’। वर्तमान प्रसंग में यह दोहा कबीर जी की एक शिक्षक से समाज की अपेक्षाओं और उसके सामाजिक दायित्व को प्रकट करता है। बल्कि यह हमारे समाज के शिक्षकों में आ रहे परिवर्तन के प्रति हमें सचेत भी करता है और साथ ही साथ हमें प्रेरणा भी देता है कि हम कबीर जी द्वारा हमारे समक्ष रखे गये मापदन्डों को प्राप्त करने का यथासम्भव प्रयास करें। वास्तव में शिक्षा की सार्थकता गुरु और शिक्षक के परस्पर सम्बन्धों पर ही अवलम्बित है। यदि आज वर्तमान भारत तथा शेष विश्व, जिन अप्रत्याशित सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा पर्यावरण के संकट से गुजर रहा है, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण है वर्तमान शिक्षा प्रणाली में भौतिक मूल्यों पर अधिक बल दिया जाना। पारम्परिक भारतीय शिक्षा प्रणाली के अंतर्निहित गुरु-शिष्य परम्परा के विचार के पोषक कबीर जी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों का गहन विवेचन आज के शिक्षा जगत के लिए आवश्यक है।

कबीर जी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। उनकी शिक्षा-दृष्टि में अन्तकरण से साक्षात्कार कराने वाली आध्यात्मिक अनुभूति को शिक्षा कहा गया है। जीवन के इस आध्यात्मिक पक्ष की अवहेलना करने से ही मानव जाति आज कोविड-19 जैसी बिमारियों को झेल रही है। आत्म- संतुष्टि का भाव जागृत करने और आवश्यकताओं को सीमित रख पाने की क्षमता विकसित करने का  गुण केवल आध्यात्मिकता से ही प्राप्त हो सकता है। आज धारित अथवा सतत विकास की जो बात की जा रही है उसे सैंकड़ों सालों पहले कबीर जी जैसे संतों ने अपने दर्शन में उद्भासित कर दिया था। केवल पुस्तक आधारित शिक्षा को कबीर जी ने वास्तविक शिक्षा नहीं माना है। कबीर  जी ‘पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय’ के विचार के पोषक हैं। उनका प्रेम कोई फ़िल्मी कहानी का संकुचित प्रेम नहीं है बल्कि, वे समस्त मानवता और परमात्मा से प्रेम की बात करते हैं। वे व्यक्ति को व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने वाले माध्यम को शिक्षा मानते हैं। शिक्षा व्यक्ति में विवेक- जागरण का माध्यम है।

कबीर जी ने कर्मकांड, रुढ़ियों तथा गलत परम्पराओं में उलझी शिक्षा को मिथ्या शिक्षा (ज्ञान) कहा है। प्रत्येक समाज में समय के साथ ऐसी बहुत सी विकृतियाँ आ जाती हैं जिनसे समाज का मानस खराब हो जाता है। इन त्रुटियों और विकृतियों के परिष्कार का उत्तरदायित्व भी समाज की शिक्षा प्रणाली और उससे जुड़े विचारवेत्ताओं का है। समाज में व्याप्त असमानता, भेदभाव और अन्धविश्वास के परिष्कार कर विद्यार्थियों में परस्पर स्वीकार्यता और बन्धुत्व का भाव जगाने का कार्य शिक्षा-व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। यही नहीं बल्कि कबीर जी ने शारीरिक और चारित्रिक सुदृढ़ता प्रदान करने वाली शिक्षण प्रक्रिया पर भी बल दिया गया है। चित्त-वृत्तियों के निरोध के लिए कबीर जी ने अपनी साखियों में बार-बार इसका उल्लेख किया है। कबीर जी इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थे कि मनुष्य जीवन तभी सार्थक और सफल हो सकता है जब प्रत्येक मनुष्य अथवा विद्यार्थी अपनी चित्त की वृत्ति का न केवल निरोध करे बल्कि अपने जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करने में समर्थ हो सके।

सुश्री प्रीति जाटव ने अपने शोधपत्र में लिखा है कि कबीर जी के अनुसार शिक्षा प्राप्ति की चार मुख्य विधियां है –

१. चिन्तन अथवा विचार- विमर्श

२. सिद्धांतों के अनुसार जीवन-यापन

३. सत्संगति

४. अनुभव द्वारा ज्ञानार्जन

गहनता से विचार किया जाये तो ये समग्र शिक्षा प्राप्त करने का उचित माध्यम अथवा मार्ग है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में पुस्तकों अथवा सूचनाओं का बोझ ज्यादा है और कहीं-कहीं तो इतना है कि विद्यार्थी तनाव अथवा अवसाद की चपेट में आ जाते हैं। विद्यार्थी को विचार अथवा चिन्तन करने का समय मिले, ये बालक के बौद्धिक, आध्यात्मिक, भावात्मक तथा मानसिक विकास के लिए आवश्यक है। विद्यार्थी जीवन में सत्संगति को कबीर जी ने अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है। उनके ‘सज्जन सो सज्जन मिले, होवे दो दो बात’ में यह बात स्पष्ट है कि सत्संगति अर्थात् अच्छे लोगों अथवा साधु प्रकृति के लोगों के साथ से न केवल लौकिक जीवन सुधरता है बल्कि आध्यात्मिक क्षेत्र में भी प्रगति होती है जिसे वर्तमान शिक्षा प्रणाली में उपेक्षित रखा गया है। बालक केवल रटकर पैसा कमाने की मशीन न बने और अपना जीवन सिद्धांतों के अनुसार संस्कारित होकर और विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त कर अपने सामाजिक उत्तरदायित्व भी पूरे करे।

हमारे विद्यार्थियों के आचरण में रूढ़िवादिता, अनैतिकता और असत्य आदि नकारात्मक प्रवृत्तियों का उन्मूलन हो तथा सत्य, स्वच्छता, शारीरिक-श्रम, समाज-सेवा, वैज्ञानिक चिन्तन और आत्मनिर्भरता जैसे सद्गुणों का समावेश हो। कबीर जी के विचार प्राचीन भारतीय विचार परम्परा के पोषक हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकार शिक्षित बनाया जाता था कि वह जीवन के चार लक्ष्यों अथवा पुरुषार्थों यथा ‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष’ की प्राप्ति कर सके। इस प्रकार शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा के सम्पूर्ण और बहुमुखी विकास की  परिकल्पना कबीर जी ने की थी। अत: आज आवश्यकता इस बात की है कि इन विचारों के परिदृश्य में शिक्षा प्रणाली में अपेक्षित परिवर्तन किये जाएँ, ताकि पुन: भारत को जगद्गुरू के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सके।

(लेख शिक्षाविद है और चौ० बंसीलाल विश्वविद्यालय भिवानी (हरियाणा) में सहायक प्रोफेसर है।

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