– डॉ० ऋतु
भारतीय चिंतन परंपरा में ज्ञान अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्राचीन वाङमय में इस चिंतन की सुदीर्घ परंपरा उपलब्ध है। अनेक मनीषियों ने इस पर गहन चिंतन-मनन किया है। ज्ञान मनुष्य का परिष्कार करते हुए उसके विवेक को जागृत करता है और यही विवेक, सत्य-असत्य के बीच अंतर करने चिंतन परंपरा में ज्ञान अत्यन्त भारतीय महत्वपूर्ण है। प्राचीन वाङमय में इस चिंतन की सुदीर्घ परंपरा उपलब्ध है। अनेक मनीषियों ने इस पर गहन चिंतन-मनन किया है। ज्ञान की यह यात्रा अंधकार से प्रकाश की ओर की प्रयाण यात्रा है – ‘असतो मा ज्योतिर्गमय’। ज्ञान प्रकाशपुंज है जो अज्ञान के तिमिर का नाश करता है।
कबीरदास संत काव्यधारा के शिरोमणि है। उनकी वाणी में ज्ञान के अनेक आयामों पर विशद चर्चा उपलब्ध होती है। कबीरदास का व्यक्तित्व और विचार समूचे भक्तिकाव्य मे अनुपम है। कबीर का जीवन फक्कड़ है और उनके विचार अत्यंत सपष्ट। दूसरे शब्दों में कहे तो कबीर स्थापित मान्यताओं को चुनौती देते से प्रतीत होते हैं। कबीर मानते हैं कि ज्ञान की साधना अत्यंत कठिन एवं दुष्कर है। कबीर वाणी का अधिकांश अध्यात्म केंद्रित है किंन्तु तदयुगीन समय-समाज भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं रह पाया है। कबीर की साधना आंतरिक हैं। तभी उनकी वाणी में बाह्य आडम्बरों का तीव्र विरोध है। वे प्रथमतः भक्त हैं और ईश्वर की अनुकंपा प्राप्त करना उनका उनका अभीष्ट। उनके द्वारा रचित काव्य इस मार्ग का पाथेय है।
उनकी ज्ञान यात्रा में प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रश्ननाकुलता, कबीर वाणी का मूल स्वर है। जो कुछ जैसा है उसे वैसे ही स्वीकार करना – कबीर का मार्ग नहीं है। कबीर उसे तर्क की कसौटी पर परख कर स्वीकर करने के आग्रही हैं – ‘पीछे लगा जाई था’। वे इस मानसिकता को परिवर्तित करना चाहते हैं। वे तर्क और विवेक के आधार पर अपना मार्ग निश्चित करना चाहते हैं। प्रश्न करना उनके ज्ञान दर्शन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है – ‘तू कहता है कागद लेखी’ के स्थान पर कबीर के लिए ‘मैं कहता हूँ आंखें देखी’ अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय है। यह उनका घोष वाक्य है। वे अनुभव को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं और यही कारण है कि उनका स्वर नितान्त भिन्न है।
आचरण – कबीर की ज्ञान यात्रा का दूसरा महत्तवपूर्ण निकष है।
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
कबीर की यह साखी उनकी शिक्षा को बहुत सरल और सारगर्भित रूप से समझाने में समर्थ है। उनके अनुसार ज्ञान यदि आचरण में ना उतरे तो वह व्यर्थ है। दूसरों को उपदेश देने में हम सभी पारंगत हैं। सोच-विचार कर अपने मार्ग का निर्धारण करना विवेकी का लक्षण है। ‘शब्द विचारे पथ चले ज्ञान गली दे पांव।’ ज्ञान का ग्रहण मात्र ही पर्याप्त नहीं है, वह तो उसका पहला पड़ाव है। महत्वपूर्ण है चिंतन मनन, जिसे ‘गुनना’ कहा गया।
अपनी एक रमैनी में कबीर इसे बहुत ही सहज प्रतीक के माध्यम से स्पष्ट करते हैं – ‘ग्यान दीपक ले ल हाथ सजनवाँ।’
यही ज्ञान भ्रम, झूठ की भीत हटा देता है जिससे उस पार ईश्वर के दर्शन हो सके –
संतों आयी ग्यान की आँधी भ्रम की टाटी सबे उड़ानी
जिन सिद्धांतों का पालन जीवन में न होता हो कबीर की दृष्टि में वह ज्ञान व्यर्थ है। कथनी और करनी में अंतर उन्हें स्वीकार नहीं। ज्ञान ही सारग्रही विवेक उत्पन्न करता है जिससे थोथा उड़ा देने की सामर्थ्य प्राप्त होती है। किंन्तु यह सारग्रहण उपादेयता की कसौटी पर आधारित होना चाहिये। छोड़ने और ग्रहण करने का पुष्ट आधार हो। कबीर गहरे अर्थों में जीवन की सम्पूर्णता के कवि है। जीवन अपनी संपूर्णता और विविध छवियों में उनके यहाँ उपस्थित होता है। मनुष्य की आत्मा और अस्मिता उनके उनकी विचार-सारणी के केंद्र में है। मैं क्या हूँ? और क्या होना चाहिए। इसकी दिशा ज्ञान के द्वारा ही निश्चित होती है। मनुष्य होना कबीर की कविता की पहली शर्त है, तभी वह जाति पाति, असमानता एवं शोषण पर तीखे प्रश्न पूछते हैं – एके रकत, एके गूदा कितना समान्य, परकितना मारक प्रश्न है। कबीर का यह प्रश्न, तथाकथित विद्वानों को प्रायः निरूत्तर कर देता है। कबीर के ज्ञानदर्शन में गुरु का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है – ‘बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊं’ भारतीय परंपरा में गुरु के बिना ज्ञान की कल्पना असंभव है। गुरु का स्थान यहाँ सर्वोच्च हैं। कबीर की प्रसिद्ध साखी है –
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाएं
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दीयो मिलाय
किंन्तु कबीरदास को मात्र गुरु नहीं अपितु ‘सतगुरु’ अभीष्ट है। सतगुरु को चिन्हने की दृष्टि ज्ञान ही प्रदान करता है। कबीर चेताते है कि केवल ‘भेख’ देख कर भ्रमित ना हों – ‘भेष देखते मत भूलिए, बुझ लीजिए ग्यान।’ किन्तु सतगुरु की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है।
यदि गुरु योग्य ना हो तो क्या होता है – ‘जा का गुरु है अंधड़ा, चेला है जाचंद्ध अंधा अंधा ठेलीया का, दोनों कूप परंत गुरु।’
वह निर्मल जल है जो शिष्य को पवित्र कर देता है – ‘कुमति कीच चेला भरा, गुरु ग्यान जल होय।’
भारतीय गुरुकुल परंपरा विश्व विख्यात है। हमारे अनेक पौराणिक संदर्भ ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं जहां गुरुओं ने अपने शिष्यों को दुर्लभ ज्ञान दिया। किन्तु इसके लिए शिष्य का सुपात्र होना भी अनिवार्य है – ‘गुरु के सनमुख जो रहे, सहै कसौटी दुःख कहैं कबीर ता दुख पर वारों कोटिक सुख।’ क्योंकि यह वह दुख ही आगामी सुखों का हेतु होगा।
गुरु अपने प्रिय शिष्य पर स्नेहिल होकर उसे अपना सर्वश्रेष्ठ देता है – ‘सतगुरु हमसू रीझकर, कह्यया एक प्रसंग बरसा बादल प्रेम का, भीज गया सब अंग।’ कबीर कहते है गुरु के स्नेहरूपी बादल का बरसना दिव्य अनुभव है।
किंतु प्रश्न यह है कि ज्ञान का अभिप्रेत क्या है? उसका सार्थक, बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग जिससे मानव मात्र का जीवन मंगलमय हो सके। पंचतंत्र की वह प्रसिद्ध कथा याद करें जब गुरुकुल से लौटते हुए चार विद्यार्थी मृत सिंह के कंकाल को देख कर, अपनी अपनी विद्या का प्रदर्शन उस पर करना चाहते हैं। कोई उसमें रक्त, कोई मज्जा तो कोई प्राण डाल देना चाहता है। किंतु चौथा सिंह के पुनर्जीवित होने के परिणाम को समझता है। वह कहता है, मुझे पेड़ पर जाने दो उसके पश्चात तुम्हें जो करना हो वो करो। शेष कथा से हम सभी परिचित है। ज्ञान अर्जन के साथ ही उसका विवेकपूर्ण उपयोग भी उतना ही महत्वपूर्ण है। जिससे समष्टि एवं व्यष्टि जीवन और अधिक सुखद हो सके। मानव इतिहास में हम सभी ज्ञान के अनेक ध्वंसक प्रयोगों से परिचित हैं। जिसने समूचे मानव जाति को अनेक बार संकट में डाल दिया।
वस्तुतः कबीर का ज्ञान-चिंतन जीवन को उसकी समग्रता में देखता है, खंड-खंड नहीं। उनका ज्ञान-दर्शन सनातन है। वह मानव जाति का पथ सदा आलोकित करता रहेगा।
(लेखिका मध्यकालीन साहित्य एवं संस्कृति की अध्येता है और शिक्षिका है।)
और पढ़ें : संत कबीर का शिक्षा-दर्शन
बहुत खूब।
Thank you Mam..
बड़ी सुंदर व सरल भाषा का उपयोग हर किसी के समझने मे सहायक हैं ।
ह्रदय की अनन्त गहराईयों से आपका धन्यवाद करता हुं ।
(Raju Beniwal )
(University of Allahabad)