– रवि कुमार
10 मई 1857 को प्रारंभ हुआ स्वतंत्रता समर 1859 आते-आते समाप्त हो गया। क्या देशभक्ति का ज्वार मात्र दो वर्ष में ही भाटे में बदल गया? 1857 की क्रांति के बारे यह कहा जाता है कि यह क्रांति विफल हुई। क्या यह मानना उचित होगा कि क्रांति विफल रही? क्रांति के परिणामों के विषय में कहा जाता हैं कि ब्रिटिश राज की नीतियों में बदल हुआ और राष्ट्रीय आन्दोलन को नई दिशा मिली। क्या देशव्यापी क्रांति का परिणाम मात्र इतना ही हुआ? 1857 की क्रांति को, सैनिक विद्रोह जो बाद में जन विद्रोह में बदल गया, कहा जाता है। क्या भारतीय इतिहास के पन्नों में इस प्रथम स्वातंत्र्य समर को केवल इतना स्थान मिलना न्यायोचित होगा?
1857 के स्वतंत्रता संग्राम का मूल्यांकन करते समय यह विचार करना आवश्यक है कि इस संग्राम में हमने क्या खोया और क्या पाया? इस महासंग्राम का प्रतिसाद क्या-क्या रहा? केवल खोया ही है ऐसा कहना ठीक नहीं होगा। क्या-क्या पाया इसे जानना एवं नवीन पीढ़ी को बताना भी आवश्यक है। डॉ० वेदप्रताप वैदिक ने उचित ही कहा है – “यह संग्राम अंग्रेजों का तख्ता नहीं पलट पाया, यह ठीक है, लेकिन इसने ही उनके तख्ता पलट की मजबूत नींव रख दी थी”।
अंग्रेज भारत में व्यापार करने आए थे। व्यापार के साथ-साथ सत्ता की अनुकूलता मिलने पर उन्होंने यहाँ की सत्ता हाथ में ले ली। व्यापार और सत्ता के साथ-साथ उनका एक बड़ा उद्देश्य और भी था, और वह था भारत का ईसाईकरण करना। इंग्लैण्ड की ब्रिटिश सरकार, ईस्ट इंडिया कंपनी के फौजी अफसर, भारत में कार्यरत ईसाई पादरी और मिशनरीज इस कार्य में निरंतर लगे हुए थे। भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रचलित करने के पीछे भी उनकी यही मंशा थी। ऐसा करके अंग्रेज भारत में अपनी सत्ता को स्थाई करना चाहते थे। मिशनरियों के बारे में कहा गया है कि “इनके काम का उद्देश्य हिन्दू धर्म का विनाश और पूर्वी व उत्तरी भारत के 13 करोड़ लोगों को ईसाई बनाना था”। फौजी अफसर लेफ्टिनेंट कर्नल व्हीलर ने बैरकपुर के ब्रिगेडियर को एक पत्र 4 अप्रैल 1857 को लिखा था कि “हिन्दुस्थान के सब लोग ईसाई हो जाएं तो इससे उसे बड़ी प्रसन्नता होगी, क्योंकि तब सरकार का वह विरोध न दिखाई देगा जो हाल में दिखाई देता है”।
भारतीय सैनिकों और समाज में ईसाई मिशनरीज के इस कार्य के प्रति तीखी प्रतिक्रिया हुई। इस कारण अंग्रेजों के इस कार्य की गति मंद पड़ गई थी या यूँ कहें कि कुछ समय के लिए धर्मांतरण के इस कार्य में अवरोध उत्पन्न हो गया था। इसे महासंग्राम की विशेष उपलब्धि माना जा सकता है। धर्मांतरण के इन प्रयासों के विरुद्ध इस तीखी प्रतिक्रिया को ब्रिटिश सरकार ने गंभीरता में लिया था। महारानी विक्टोरिया ने नवम्बर 1858 में अपनी घोषणा में कहा – “किसी के धार्मिक विश्वासों या धार्मिक रीति रिवाजों में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा”।
1857 के महासंग्राम की उपलब्धि के रूप में यह भी माना जा सकता है कि अंग्रेज इस संग्राम से इतने भयभीत हो गए थे कि वे चाहकर भी यहाँ स्थाई रूप से अपनी बस्तियां नहीं बना सके। अंग्रेज चाहते थे कि दक्षिण अफ्रीका आदि देशों की तरह हिन्दुस्थान में भी वे अपनी पृथक बस्तियां बनाकर रहें और धीरे-धीरे स्थानीय लोगों को अंग्रेजियत की ओर लुभाते रहें। ‘1833 के चार्टर एक्ट’ में उन अंग्रेजों को विशेष सुविधाएँ देने का प्रावधान भी किया था जो यहाँ आकर बसना चाहते थे।
1857 के महासंग्राम में भारत की जनता ने बिना किसी भेदभाव के, एकता के साथ भाग लिया था। बिना राष्ट्रीय एकता के क्रांति का विचार कर पाना संभव नहीं हो सकता। डॉ० रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘सन् सत्तावन की राज्यक्रांति’ में उद्धृत किया है कि देश की जनता 57 के संग्राम के दौरान ठेर-ठेर ‘अंग्रेज राज ख़त्म हो गया, अंग्रेजों का नाश हो’ का नारा लगती थी। इसका अर्थ स्पष्ट है कि जनता अपने देश को अंग्रेजों द्वारा और अधिक पद दलित किया जाना देखने को तैयार नहीं थी। सर जॉन शोर का कथन है कि “मैंने कई देशी राज्यों की यात्रा की। मैं पूरे विश्वास के साथ यह दावा करता हूँ कि लोगों को जो चीज सबसे ज्यादा नापसंद है वह अंग्रेजों राज की अधीनता में आना है”।
यह महासंग्राम अपनी खोई हुई स्वाधीनता की पुनः प्राप्ति के लिए देश के सभी जाति-पंथों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध एक सामूहिक संघर्ष था। इस दृष्टि से यह संघर्ष हमें राष्ट्रीय एकता का पहला पाठ पढ़ाने वाला सिद्ध होता है। फारेस्ट अपने ग्रन्थ की भूमिका में लिखता है – “भारतीय क्रांति से इतिहासकारों को अनेक शिक्षाएं मिल सकती हैं; किन्तु उसमें इससे बढकर कोई अन्य महत्त्वपूर्ण शिक्षा नहीं हैं कि भारत में ब्राह्मण और शुद्र, हिन्दू और मुसलमान हमारे (अंग्रेजों के) विरुद्ध संगठित होकर क्रांति कर सकते हैं”।
शहीद भगत सिंह के अनन्य सहयोगी एवं प्रसिद्ध समाजवादी नेता राजाराम शास्त्री ने ‘अमर शहीदों के संस्मरण’ नमक अपनी रचना में लिखा है – “वीर सावरकर द्वारा लिखित ‘1857 का स्वातन्त्र्य समर’ पुस्तक ने भगत सिंह को बहुत अधिक प्रभावित किया था”। 1929-30 में भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों की गिरफ़्तारी के समय उनमें से अधिकांश के पास इस पुस्तक की प्रतियाँ पुलिस को प्राप्त हुईं। आजाद हिन्द फ़ौज के निर्माण में ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक की भारी भूमिका रही। आजाद हिन्द फ़ौज के मूल संस्थापक रास बिहारी बोस क्रांति पथ पर सावरकर को अपना गुरु मानते थे। इन उद्धरणों से अनुमान लगा सकते हैं कि 1857 के प्रथम स्वातन्त्र्य समय का राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन पर क्या प्रभाव रहा होगा।
1857 के इस महासमर में जिन हुतात्माओं ने अपने प्राण न्योछावर किए, उससे प्रेरणा प्राप्त कर आगामी 90 वर्षों में भारतीय समाज स्वतंत्रता की उत्कट इच्छा के साथ सेनानी की तरह खड़ा रहा। जो स्वप्न 1857 के महासमर के योजनाकारों ने देखा होगा, उसे पूर्ण करने का कार्य अगली पीढ़ियों ने राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रीय एकता के साथ पूर्ण किया। 10 मई 1857 को प्रारंभ इस स्वातंत्र्य समर का प्रतिसाद 1947 में भारत की स्वतंत्रता के रूप में देखने को मिला।
(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
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