– डॉ विकास दवे
जाग उठे हैं गिरी-वनवासी, जाग उठा है हिन्दुस्थान
नहीं वस्त्र भोजन के भूखे, वनवासी चाहें सम्मान
प्रिय बिटिया!
एक बार स्वामी सत्यमित्रानन्द जी के प्रवचन में एक अत्यन्त मार्मिक प्रसंग का उल्लेख हुआ था। सामान्यतया स्वामी जी जहाँ कहीं प्रवचन देने जाते हैं वहाँ एक कार्यक्रम इस प्रकार का बनता ही है कि वे वनवासी बंधुओं से मिलने या हरिजन बस्तियों में भ्रमण, मिलन और प्रसाद ग्रहण करने जाते हैं।
ऐसे ही एक कार्यक्रम के दौरान वे अत्यधिक पिछड़े हुए विपन्न वनवासी ग्राम में पहुँचे। सारा गाँव गद्-गद् हो अपने द्वार आए संत का पलक-पावड़े बिछाकर स्वागत कर रहा था। स्वामी जी इसी क्रम में एक घर में प्रवेश करने लगे तो द्वार पर ही उस वनवासी बंधु ने उन्हें रोक लिया। स्वामी जी को आश्चर्य हुआ। सब तो उन्हें घर में बुला रहे थे और यह बंधु उन्हें स्वयं आने से मना कर रहा है?
पूछने पर अत्यंत संकोच के साथ उस बंधु ने बताया – मेरे घर में दो महिलाएं हैं परन्तु वस्त्र केवल एक ही जोड़ा है। जब एक बाहर जाती है तो दूसरी को घर में ही रहना होता है। इस समय यही स्थिति है इसलिए अपने घर की लाज बचाने के लिए मैं आपको अंदर आने से मना कर रहा हूँ।
बेटे यह घटना सुनाते समय प्रवचनकार (स्वामी सत्यमित्रानंद जी) की आँखों से अक्षरश: झर-झर आँसू बह रहे थे और वे शहरी समाज से आह्वान कर रहे थे- “हमारे अपने इन बंधुओं की इस विपन्नता के लिए हम ही जवाबदार हैं। अब समय आ गया है आगे बढ़कर इन्हें गले लगाने का।”
- तुम्हारे पापा
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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