– डॉ विकास दवे
प्रिय बिटिया!
दीपोत्सव के पाँच दिवसीय हर्षोल्लास का एक दिन समर्पित होता है गौमता को। तुम एकदम सही समझी, मैं बात कर रहा हूँ ‘गोवर्धन पूजा’की। इस दिन के अनेक पौराणिक संदर्भ हैं, जिनमें भगवान कृष्ण और ब्रजवासियों द्वारा इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा करना एक है। वास्तव में यह सन्देश है, “व्यक्ति नहीं प्रकृति महत्वपूर्ण”इस बात का। पर्यावरण को पूरी तरह समर्पित इस दिन गोधन अर्थात् गाय, बैल आदि की पूजा का भी अपना महत्व है।
क्या केवल एक दिन गौमाता को पूजा हमारे लिए पर्याप्त है या सामान्य दिनों में भी माता का पूरा-पूरा ध्यान रखना अपेक्षित है? सच्चे गोभक्त क्या पौराणिक कथाओं में ही होते हैं? आपको जानकर आश्चर्य होगा आज भी आपके आस-पास ऐसे गोभक्त हैं, जिन्हें देखकर ही प्रेरणा प्राप्त की जा सकती है।
अपने देवपुत्र कार्यालय के पास ही रहते हैं श्री कुट्टीमेनन जी (पूरा नाम है तच्चेरिल गोविन्दन् कुट्टी मेनन)। भारत सरकार ने उन्हें पद्यश्री सम्मान से विभूषित किया है। प्रसंग उस समय का है जब श्री मेनन कस्तूबाग्राम, इन्दौर की व्यवस्थाओं से जुड़ हुए थे, और गौशाला में गऊओं की सेवा में दिन-रात लगे रहते थे। 1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई का इन्दौर आगमन हुआ। कस्तूरबाग्रामकी गौशाला की उन्होंने बहुत प्रशंसा सुनी थी इसलिए वे उसे देखना चाहते थे। (वे प्रधानमंत्री भी धन्य हैं जिनके प्रवास में गौशाला देखना भी एक कार्यक्रम होता है)। प्रधानमंत्री जी के कहते ही व्यवस्थाएँ करने, जिलाधीश दौड़ पड़े। सूचना दी गई, दोपहर में दो बजे प्रधानमंत्री जी गौशाला देखने आ रहे हैं। सभी प्रसन्न थे किन्तु श्री मेनन जी ने जिलाधीश महोदय से आग्रह किया, “दोपहर में मेरी सभी गाएं विश्राम करती हैं।उनकी नींद के समय में माननीय प्रधानमंत्री जी न आएँ तो अच्छा रहेगा।”अधिकारी चौंके।
उनके लिए पशुओं के दोपहर विश्राम का प्रधानमंत्री जी की इच्छा के आगे कोई महत्व ही नहीं था। श्री मेनन ने आग्रह किया- “आप लोग केवल एक बार मेरा संदेश प्रधानमंत्री जी तक पहुँचा दें और आश्चर्य! एक गोभक्त ने तुरंत भांप लिया और प्रधानमंत्री जी अपने अन्य कार्यक्रमों में परिवर्तन कर गायों के विश्राम के समय के पूर्व सुबह 10.30-11.00 बजे ही गोशाला दर्शन हेतु पहुँचे।
श्री मेनन ने एक-एक गाय से प्रधानमंत्री जी की ऐसे भेंट कराई जैसे परिवार के सदस्यों से मिलवा रहे हों।
तो देखा न बेटे, गोभक्त आज भी हमारे आस-पास मौजूद हैं। बस वे प्रचार-प्रसार से दूर रहते हैं। हम सब इतना कुछ भी कर सकें तो प्रयत्न करें – गोमाताएँ हमारी फैंकी पॉलीथीन की थैलियाँ खाकर मरें नहीं और कसाईयों के हाथों मारी न जाएँ। यही होगी सच्चे अर्थों में ‘गोवर्धन पूजा’।
- तुम्हारे पापा
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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