– डॉ गिरिधर गोपाल शर्मा
भारतीय मनीषा का चरमोत्कर्ष ‘वेदान्त-दर्शन’ में प्राप्त होता है। ‘वेदान्त’ शब्द का अर्थ है- “उपनिषद्”। इन उपनिषदों में वेद के सिद्धान्तों को प्रतिपादित-व्याख्यायित किया गया है। अतः ‘उपनिषद्’ वैदिक रहस्यों के उद्घाटक एवं वैदिक साहित्य का अन्तिम प्रतिनिधि होने से ‘वेदान्त’ अभिधान से युक्त हैं। बाह्यतः सिद्ध दृश्यमान पदार्थ ‘जगत्’, अत्यन्त व्यापक – ‘ब्रह्म’ तथा ‘जीवात्मा’ के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती साहित्य की अपेक्षा अधिक स्पष्टता हमको ‘उपनिषद्-साहित्य’ में प्राप्त होती है। साथ ही जीव, जगत् एवं ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप विवेचन में अनेक परस्पर भिन्न एवं विरुद्ध आख्यान भी इन ‘उपनिषद्-साहित्य’ में विद्यमान हैं। ‘उपनिषद्-साहित्य’ की बहुत ही विस्तृत ग्रंथ परम्परा प्राप्त होती है। ‘मुक्तिकोपनिषद्’ एक सौ आठ(108) उपनिषदों का उल्लेख करता है।
‘उपनिषद्‘ शब्द का अर्थ है – ‘ब्रह्म से सम्बन्ध वैदिक ऋषि की प्रतिभा के चरम विकास के रूप में वह प्रच्छन्न एवं प्रकृष्ट ज्ञान, जिसे गुरुदेव के सान्निध्य में शिष्य प्राप्त करता है, और जिसको प्राप्त करके वह सांसारिकता से सर्वथा मुक्त होकर ब्रह्ममय हो जाता है’। यह दर्शन श्रुति-प्रधान ‘उपनिषद्’, स्मृति-प्रधान ‘भगवद्गीता’ तथा न्याय-प्रधान ‘ब्रह्मसूत्र’ रूपी प्रस्थानत्रयी पर आधारित है। ‘जीव’ तथा ‘ब्रह्म’ के पारस्परिक सम्बन्ध के विवेचन के आधार पर ही ‘वेदान्त-दर्शन’ के विभिन्न संप्रदायों-सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है। ‘उपनिषद’, ‘ब्रह्मसूत्र’ और ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ – वेदान्त के प्रस्थानत्रयी माने गये हैं। इनमें भी ‘उपनिषद्’ – साहित्य को मूल प्रस्थान माना जाता है, तथा शेष दोनों को उस पर आधारित माना जाता है।
वेदान्त के आचार्यों में, जिन्होंने ‘ब्रह्मसूत्र’ पर भाष्य लिखकर अपने-अपने वेदान्त सिद्धान्तों-संप्रदायों को प्रतिष्ठापित किया है उनमें शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्क आचार्य और वल्लभाचार्य प्रमुख आचार्य हैं।
शंकराचार्य अद्वैतमार्ग के प्रमुख आचार्यों में से एक हैं। जिनके सिद्धान्त को वेदान्त-दर्शन में ‘मायावाद’ के नाम से जाना जाता है तथा ‘ब्रह्मसत्य जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः‘ की स्थापना करता है। ‘अद्वैतवाद’ के अनुसार ‘ब्रह्म’ ही एक मात्र मूल तत्त्व है। संसार को असत्य मानते हुए वह ‘ब्रह्म’ की मायाशक्ति के द्वारा ही इसके अस्तित्व की प्रतीति सिद्ध करते हैं। माया अनिर्वचनीय है, तथा संसार का कारण है। माया से भ्रमित जीव अपने आपको ब्रह्म से भिन्न मानता है, तथा परम तत्त्व को नहीं देख पाता है। वह केवल अपनी देह तक सीमित रहता है। कृत-कर्म को अपना मानकर सुख-दुःख के कारण जन्म-मरण को भोगता रहता है। कल्प के अन्त में जब जगत् का प्रलय होता है, उस समय इस जीव का विचित्र विश्व माया में विलीन हो जाता है। फिर कोई उपाधि नहीं रहती, किन्तु फिर भी जीव जन्म-मरण को प्राप्त होते रहते हैं, जब तक कि स्वकर्म का प्रायश्चित्त नहीं कर लेते हैं । इस प्रायश्चित्तरूप कर्मकाण्ड की जटिलता होने से एवं उन क्रियाओं पर सभी का अधिकार न होने से वैष्णव-धर्म का सर्व कल्याणार्थ प्रादुर्भाव हुआ। जिसमें मानवमात्र को सरलता एवं सहजता के साथ भगवान् की प्राप्ति और मोक्ष का अधिकार प्राप्त हो गया। यहां जाति-पाति के बन्धन समाप्त हो गये – ‘हरि को भजे सो हरि का होई‘। कर्मकाण्ड की कृतिमता का कोई स्थान शेष नहीं रहा। ‘श्रद्धा’ और ‘भक्ति’ ही भगवान की प्रसन्नता के एकमात्र कारण थे।
इसी क्रम में ‘वैष्णव-संप्रदाय’ के चार स्तम्भों का प्राकट्य हुआ, जिनके नाम – श्रीवैष्णवसंप्रदाय, ब्रह्म-संप्रदाय, रुद्र-संप्रदाय और सनक-संप्रदाय हैं। इन वैष्णव-संप्रदायों का प्राकट्य भगवान् की प्रेरणा से क्रमशः लक्ष्मी, ब्रह्मा, रुद्र, और सनत्कुमार के द्वारा हुआ। इनमें श्रीवैष्णवसंप्रदाय के प्रमुख आचार्य श्रीरामानुज और उनका सिद्धान्त ‘विशिष्टाद्वैत’, ब्रह्म-संप्रदाय के प्रमुख आचार्य ‘मध्व’ और उनका सिद्धान्त ‘द्वैत’, रुद्र-संप्रदाय के प्रमुख आचार्य विष्णुस्वामी और उनके अनुयायी वल्लभाचार्य और उनका सिद्धान्त ‘शुद्धाद्वैत’ एवं सनक-संप्रदाय के आचार्य निम्बार्क तथा उनका सिद्धान्त ‘द्वैताद्वैतवाद’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
श्रीसंप्रदाय के मूर्धन्य आचार्यों में श्रीरामानुजाचार्य का उल्लेख प्राप्त होता है। इन्ही को ‘लक्ष्मण’ भी कहा जाता है। इनका जन्म सन् 1017 ईं. में मद्रास के समीप तेरुंकुदूर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम केशवभट्ट तथा माता का नाम कान्तिमती था। इनका विवाह सोलह वर्ष की अवस्था में हो गया था और विवाह के कुछ समय बाद ही इनके पिता का देहावसान हो गया था। तदनन्तर अध्ययनार्थ अपने गांव को त्यागकर सपरिवार कांची में अद्वैतवेदान्ती ‘यादवप्रकाश’ के समीप आ गये। उनके सान्निध्य में वेद-वेदान्त की शिक्षा ग्रहण करने लगे। किन्तु गुरु के साथ दार्शनिक परम्परा को लेकर विवाद होने से रामानुजाचार्य ने उनका परित्याग कर दिया, एवं अन्य वैष्णव-आचार्यों से विद्योपार्जन करने लगे। साथ ही कांची में हस्तिशैल पर ‘श्रीनारायण’ की उपासना करने लगे।
हस्तिशैल पर उन्होंने जब अपने मातुल ‘महापूर्ण’ के श्रीमुख से ‘यामुनाचार्य’ ‘आलवन्दार’ कृत ‘स्तोत्ररत्नम्’ को श्रवण किया तब उससे प्रभावित होकर उनसे विद्योपार्जन के लिए श्रीरंगम् की ओर चल दिये, किन्तु इनके श्रीरंगम् पहुंचने से पूर्व ही ‘आलवंदार’ ‘यामुनाचार्य’ का वैकुण्ठ गमन हो गया। ‘यामुनाचार्य’ के पार्थिव शरीर के हाथ की तीन उंगलियों को मुड़ा हुआ देखकर और उसको गुरु का आदेश मानकर कि गुरुदेव ‘ब्रह्मसूत्र’, ‘विष्णुसहस्रनाम’, और आलवारों के ‘दिव्यप्रबंधम्’ पर टीका लिखवाना चाहते हैं। श्रीरामानुजाचार्य इस प्रकार चिन्तन करते हुए काञ्ची वापस आ गये। वहां इन्होने ‘यामुनाचार्य’ के शिष्य ‘काञ्चीपूर्ण’ से दीक्षा लेकर 30 वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया।
रामानुजाचार्य ने अपने गुरु यामुनाचार्य के सांकेतिक आदेश के अनुसार स्वयं ‘ब्रह्मसूत्र’ पर विशिष्टाद्वैतमतानुसारी ‘श्रीभाष्य’ नामक भाष्य-ग्रंथ का प्रणयन किया। अपने प्रिय शिष्य ‘कुरेश’ के पुत्र ‘पाराशर भट्ट’ के द्वारा ‘विष्णुसहस्रनाम’ पर ‘भगवद्गुण दर्पण’ नामक टीका का प्रणयन करवाया, तथा अपने मातुल-पुत्र ‘कुरुकेश’ के द्वारा नम्मालवार के’ तिरुवायमोलि’ पर तमिल भाष्य की रचना करा कर ‘श्रीयामुनाचार्य’ ‘आलवन्दार’ के तीनों मनोरथों को पूर्ण किया। वस्तुतः श्रीरामानुजाचार्य ने यामुनाचार्य के इन सांकेतिक संकल्पों को पूरा करके श्रीवैष्णव समाज पर बड़ा ही उपकार किया।
श्रीवैष्णवजगत् में रामानुजाचार्य के सम्बन्ध में तीन घटनाऐं अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। प्रथम अपने गुरु से अष्टादशाक्षर मंत्र – ‘ॐ नमो नारायणाय‘ प्राप्त करना तथा गुरुदेव के गोप्य रखने की कहने पर भी परम कारुणिक रामानुजाचार्य ने लोक मंगल की कामना से इस मंत्र का उपदेश संसार के प्राणियों को किया। द्वितीय श्रीरंगम् के शैव राजा ‘कुलोतुंग’ के कारण श्रीरंगम् का त्याग करना तथा उस राजा ने सन् 1096 में श्रीरामानुजाचार्य को अपने दरबार में छद्म सम्मान के साथ बुलाने का निमंत्रण भेजा, उस समय आचार्य की लगभग 80 वर्ष की अवस्था थी। तब इनके पट्ट-शिष्य-भक्त ‘श्रीकुरेश’ ने इनको वहां जाने नहीं दिया और स्वयं रामानुजाचार्य का रूप धारण करके उस राजा के दरबार में चले गये। वहां पर ‘श्रीकुरेश’ के द्वारा वैष्णव-धर्म सिद्धान्तों की स्थापना में दिये गए अकाट्य प्रमाणों से क्रोधित होकर उस शैव राजा ने इनके दोनों नेत्रों को निकालने का आदेश दे दिया। परिणामतः ‘श्रीकुरेश’ के दोनों नेत्रों को निकाल दिया गया। इस प्रकार ‘श्रीकुरेश’ ने अपने गुरु रामानुजाचार्य की रक्षा की।
तृतीय घटना मैसूर के राजा ‘विट्टिदेव’ को वैष्णव-धर्म की दीक्षा देना और उसका नाम ‘विष्णुवर्धन’ रखना था। इस घटना का समय लगभग 1098 ई. था। इसके बाद रामानुजाचार्य ने 1100 ई. मेलकोट में भगवान श्रीनारायण के मन्दिर की स्थापना की, जहां आपने 16 वर्षों तक निवास किया। शैव राजा कुलोतुंग की मृत्यु के वाद 1118 ई. में आप पुनः श्रीरंगम् लौट आये और वहां पर 1137 ई. तक आचार्यपीठ को सुशोभित किया।
श्रीरामानुजाचार्य के द्वारा आलवार-संतों के द्वारा स्थापित भूमि में भक्ति के बीज को बोया और दक्षिण में श्रीवैष्णवसंप्रदायोक्त विशिष्टाद्वैत-दर्शन का खूब प्रचार-प्रसार किया। आलवार-संत तमिल भाषा में निबद्ध श्रीकृष्ण-नारायण भक्ति के पदों का भाव-विभोर होकर गायन करते थे। वहीं श्रीवैष्णव आचार्य संस्कृतनिष्ठ भाषा में भक्तिपरक पद्यों के द्वारा भगवान का स्तवन् करते थे। साथ ही भगवान की सेवा-पूजा में वैदिक विधि-विधानों का अनुष्ठानादि करते थे। इस प्रकार इस संप्रदाय में दो प्रकार से भगवान का अर्चन-पूजन होता था, एक आलवारोक्त तमिल-वेद के द्वारा तथा द्वितीय आचार्यों के द्वारा स्थापित संस्कृतनिष्ठ वैदिक विधि के द्वारा। वस्तुतः इन्हीं आचार्यों के द्वारा आलवार-संतों के द्वारा प्रकट भक्ति को शास्त्रीय पीठ पर अभिषिंचित किया, सुशोभित-पूजित किया। किन्तु रामानुजाचार्य के वैकुण्ठ प्रयाण के वाद विशिष्टाद्वैत संम्प्रदाय में श्रीनारायण की सेवा-पूजा दो भागों में विभक्त हो गयी।
प्रथम ‘टेंकलई’ मत, जो तमिल-वेद-पद्यों को ही सर्वोत्कृष्ट मानता था और उन्हीं के द्वारा भगवान श्रीनारायण का यजन करता था। तथा द्वितीय मत ‘वडकलै’ नाम से जाना जाता था। इस मत के अनुयायी-भक्त दोनों भाषाओं में निबद्ध पद्यों एवं मंत्रों से भगवान का पूजन-यजन करता और संस्कृत भाषा में विशेष आग्रह और आदर स्थापित करता है। इस भेद के साथ इन दोनों ‘टेंकलई’ एवं ‘वडकलै’ मतों में ‘प्रपत्ति’ विषयक भेद विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ‘टेंकलई’- मत के अनुयायी-भक्त एक मात्र ‘प्रपत्ति-शरणागति’ को ही मोक्षोपाय के रूप में स्थापित करते हैं तथा इसकी स्थापना करते हुए भगवान की प्राप्ति में सर्वसाधनराहित्य की स्थापना करते हैं। इसके विपरीत ‘वडकलै-वैष्णव-भक्त’ भगवान् की प्राप्ति-प्रपत्ति-शरणागति में जीव के लिए कुछ कर्मानुष्ठान की आवश्यकता की स्थापना करते हैं। उन वैदिक अनुष्ठानादि के द्वारा ही प्रपन्न-भाव उत्पन्न होता है और भक्त को भगवान की कृपा रूप प्रपत्ति-शरणागति की प्राप्ति होती है। श्रीवैष्णवसंप्रदाय में इस प्रपत्ति की उद्भावना को दो उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
प्रथम मार्जार-बिल्ली का बच्चा स्वयं कोई कर्म नहीं करता है। वह अपने आपको माता को समर्पित कर देता है। मार्जार-मां ही उसे अपने मुख के उन्हीं दांतों से उठाकर अपने साथ एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है, जिन दांतों से वह शिकारादि अनेक कठोर क्रियाएं सम्पादित करती है। इस मातृ सन्निधि-शरणागति में मार्जार-बालक का कोई पुरुषार्थ नहीं होता है। मात्र वह अपनी माँ को अपने आपको समर्पित कर देता है। उसी प्रकार भक्त केवल अनन्यभाव से अपने आपको भगवान को समर्पित कर देता है। भक्त भगवान की शरणागति-प्रपत्ति प्राप्त करता है, इसमें उस भक्त का कोई पुरुषार्थ रूप कर्मानुष्ठानादि नहीं रहता है।
द्वितीय कपि-वानर का बच्चा अपनी माँ को स्वयं जोर से पकड़ता है। माँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में खूब उछलती-कूदती है, किन्तु वह बच्चे को नहीं पकड़ती है अपितु कपि-बालक ही माँ को जोर से पकड़ता है। तथैव भक्त विविध कर्मानुष्ठानों के द्वारा भगवान की शरणागति-प्रपत्ति प्राप्त करता है। श्रीरामानुजाचार्य के बाद इन दोनों मतों में ‘टेंकलई’ मत के मूर्धन्य आचार्य श्रीलोकाचार्य हैं तथा इन्होने इस मत की स्थापना का विशद रूप से वर्णन ‘श्रीवचनभूषण’ ग्रंथ में किया है। ‘वडकलै’ मत के प्रमुख आचार्य श्रीवेंकटनाथ वेदान्तदेशिक हैं। श्रीरामानुजाचार्य ने श्रीवैष्णवमत के लिए प्रमुखतः आठ पीठों की स्थापना की, जिनमें छह पीठों के आचार्य संन्यास-दीक्षा लेकर तथा दो पीठों के आचार्य सद्ग्रहस्थ होकर विशिष्टाद्वैत वेदान्त का प्रचार-प्रसार कर अपनी शिष्य-परम्परा के द्वारा पूजित हो रहे हैं।
विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त के अनुसार तीन पदार्थ हैं – चिद्-जीव, अचिद्-जगत् और ईश्वर। इनके अनुसार चिद् जीवरूप से, अचिद् जगत् रूप से ब्रह्म-ईश्वर से ही प्रकट होते हैं। प्रलयकाल में चिद् रूप ब्रह्म और अचिद् रूप ब्रह्म – ये दोनों अपने कारणावस्था ‘परब्रह्म’ में निवास करते हैं। जब भगवान सृष्टि की इच्छा करते हैं तब नामरूपात्मक नाना प्रकार वाला यह चिद्-जीव और अचिद्-जगत् दोनों को अपने में से ही प्रकट कर देते हैं। इनके अनुसार ‘जीव’ एवं ‘जगत्’ यद्यपि नित्य तथा स्वतः स्वतंत्र पदार्थ हैं, किन्तु ईश्वर इन दोनों में अन्तर्यामी रूप से विद्यमान रहते हैं, जिससे ये दोनों ईश्वराधीन रहते हैं। ‘चिद्’ एवं ‘अचिद्’ से विशिष्ट ब्रह्म ही रामानुज दर्शन का ‘विशिष्टाद्वैत’ तत्त्व है। ‘विशिष्टयोरद्वैतम्’ अर्थात् विशिष्ट कारण और विशिष्ट कार्य की एकता। सूक्ष्मचिद विशिष्ट ब्रह्म कारण है और स्थूल चिद्-जीव और अचिद्-जगत् विशिष्ट ‘ब्रह्म‘ कार्य है, अर्थात् दोनों अवस्थाओं में एक हैं, अतः ‘विशिष्टाद्वैत‘ हैं।
ईश्वर का चिद् और अचिद् के साथ शरीर और आत्मा जैसा सम्बन्ध है। अर्थात् शरीर वह वस्तु है जिसे आत्मा धारण करता है एवं अपनी कार्य सिद्धि के लिए अनेकानेक कार्यों में प्रवृत्त करता है। उसी प्रकार ईश्वर चिदचिद् को आश्रित करता है, नियमन करता है, तथा अनेकानेक कार्यों में प्रवृत्त करता है। नियामक होने से ईश्वर प्रधान और विशेष्य कहा जाता है। नियमित और अप्रधान होने से जीव-जगत् विशेषण कहलाते हैं। विशेष्य की सत्ता पृथक रूप से सिद्ध है, परन्तु विशेषण विशेष्य के साथ सर्वदा सम्बद्ध होने से कभी अलग रूप में सत्ता युक्त नहीं हो सकता है। अतः त्रिविध तत्त्व के मानने पर भी रामानुज अद्वैतवादी हैं, किन्तु अंगभूत चिदचिद् की अंगीभूत ईश्वर से पृथक सत्ता न होने के कारण ब्रह्म अद्वैतरूप है, इसी वैलक्षण्य-विशेषता के कारण यह दर्शन विशिष्टाद्वैत-दर्शन कहलाता है।
(लेखिका पी.जी.डी.ए.वी महाविद्यालय नई दिल्ली में सहायक प्रोफेसर है।)
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