जगतगुरु आद्य शंकराचार्य का शिक्षा दर्शन

 – गिरीश जोशी

भगवान वेदव्यास द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र परम ज्ञान की प्राप्ति हेतु मानव के मन मस्तिष्क में जितने भी प्रश्न-जिज्ञासा हो सकती है उन सबका उत्तर देता है। यह ग्रंथ आध्यात्मिक क्षेत्र के साहित्य का सर्वोच्च ग्रंथ है। ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्मसूत्र का भाष्य पूरा होने पर भगवान वेदव्यास स्वयं आचार्य शंकराचार्य से भेंट करने आए और प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया कि तुम विभिन्न वादों-प्रतिवादों के सिद्धांतों को वेदांत मत से सहमत कर सारे मत वालों को पूर्ण करने का कार्य प्रारंभ करो। वेदांत की महिमा के साथ ब्रह्म तत्व के विज्ञान की पुनः प्रतिष्ठा करें।

महर्षि वेदव्यास के आशीर्वाद में ही आचार्य शंकर की शिक्षाओं का सार निहित है।

आचार्य की शिक्षा पद्धति को जानने के लिए उनके द्वारा रचित ग्रंथों से संदर्भ लेकर आगे बढ़ते है। आचार्य रचित ‘आत्मबोध’ के अनुसार जिस प्रकार किसी विषय विशेष का अध्ययन करने के पूर्व उस विषय के विशिष्ट शब्दों की परिभाषा जानना आवश्यक होता है। ऐसे पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या समझ लेने से विषय प्रवेश सहज हो जाता है। वेदांत जीवन के विज्ञान का विषय है जो मनुष्य जीवन के वास्तविक लक्ष्य की ओर ध्यान आकृष्ट करता है, ऐसे उपाय एवं योजना बताता है जिससे साधक अपनी जीवन यात्रा सहज रूप से आगे बढ़ाते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। आचार्य रचित ‘आत्मबोध’ वह कुंजी है जिनसे शास्त्रों को खोलकर उनमें निहित दिव्य ज्ञान को बाहर निकाला जा सकता है। ‘आत्मबोध’ वेदांत के परिभाषिक शब्दों की विशद व्याख्या करता है।

आत्मबोध के 68 श्लोकों में आचार्य ने कलिष्ट सिद्धांतों को समझाने के लिए दृष्टांतों का उपयोग किया है। प्रत्येक श्लोक एक प्रभावशाली चित्र के समान हमारे समक्ष प्रकट होता है। वेदांत के कठिन प्रतीत होने वाले सिद्धांतों को सरलता से समझाने के लिए आचार्य ने उपमाओ का प्रयोग किया है।

आत्मबोध के श्लोक-2 में आचार्य कहते हैं –

“बोधोS न्य साधनेभ्यो हि साक्शांमोक्षेक साधनं।

पाकस्य वन्हिवज्ज्ञानं विना मोक्षो न सिध्यति ।।”

अर्थात जैसे बिना अग्नि भोजन नहीं कर सकता वैसे ही बिना ज्ञान के मोक्ष नहीं मिलता। साधनों की तुलना में आत्मज्ञान मोक्ष का सर्वोच्च साधन हैं।

श्लोक-3 में आचार्य कहते हैं –

“अविरोधितया कर्म नाSविद्यां विनिवर्तयेत।

विद्याविद्याम निहंत्येव तेजस्तिमिरसंघवत।।”

अर्थात कोई कर्म अज्ञान का नाश नहीं कर सकता क्योंकि कर्म अज्ञान का विरोधी नहीं है।

प्रकाश का एक छोटा सा दीपक घनघोर अंधेरे को दूर करता है। वैसे ही अज्ञान का नाश ज्ञान से ही होता है।

वेदांत के विषय का प्रतिपादन करने हेतु आचार्य द्वारा रची गई अनेक रचनाओं में से एक उत्कृष्ट कृति है “विवेक चूड़ामणि”। चूड़ामणि वह अलंकार होता है जिसे मस्तक पर शीर्ष पर धारण किया जाता है। आचार्य द्वारा रचित यह ग्रंथ विवेक का मुकुट मणि है। इस ग्रंथ में 581 श्लोक हैं। इस ग्रंथ के माध्यम से आचार्य ने अनेक विषयों को स्पष्ट किया है। शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षकों-विद्यार्थियों के लिए कुछ विषय जैसे ज्ञान उपलब्धि के उपाय, गुरु सपसत्ति और प्रश्न विधि, शिष्य-प्रश्न निरूपण, प्रश्न विचार आदि महत्वपूर्ण है।

सामान्यतः शिक्षकों को इन विषयों के संबंध में एक आरंभिक ज्ञान प्रशिक्षण के दौरान एवं अपने अनुभव से मिलता है किंतु आचार्य ने विवेक चूड़ामणि में परम ज्ञान को प्राप्त करने के लिए जिस प्रकार से इन विषयों का विशद वर्णन किया है उनका अध्ययन एवं अनुपालन कर कोई भी शिक्षक किसी भी विषय के शिक्षण में आने वाली चुनौतियों का सामना अत्यंत सफलतापूर्वक कर सकता है।

आचार्य शिष्यों को संबोधित करते हुए कहते हैं –

“अतोविचारः कर्तव्यों जिज्ञासोरात्मवस्तुतः।

समासाद्य दयासिंधुम गुरम ब्रम्हविदुत्तमम।।”

श्लोक15 – विवेक चूड़ामणि

भावार्थ है सच्चे ज्ञान पिपासु जिज्ञासु को योग्य गुरु की शरण में जाकर उनसे आत्मा विचार एवं चिंतन करना सीखना चाहिए। वास्तव में देखा जाए तो शिष्यों को संबोधित यह श्लोक शिक्षकों का भी प्रबोधन करता है। यदि शिष्य ‘आत्मविचार एवं चिंतन कैसे करें’ यह सीखने के लिए गुरु के पास आता है तो गुरु को भी इन दोनों विधाओं में पारंगत होकर यह कुशलता विद्यार्थियों में विकसित करने की क्षमता स्वयं के भीतर विकसित करनी होगी। सही अर्थ में देखा जाए तो यही शिक्षा का उद्देश्य भी है।

आगे आचार्य कहते हैं –

“मन्दमध्यमरूपापि वैराग्येण शमादिना।

प्रसादेन गुरो: सेयं प्रवृद्धा सुयते फलं।।”

यदि विद्यार्थी मंद अथवा औसत हो तो यदि गुरु प्रयास करके शिष्यों को शम आदि षटसंपत्ति  से युक्त करें तो मंद अथवा आवश्यक विद्यार्थी भी तीव्र हो जाता है।

आचार्य के अनुसार परम ज्ञान को प्राप्त करने के लिए अपने विवेक को विकसित करना होता है। विवेक को विकसित करने के लिए मुमुक्षु अर्थात ज्ञान प्राप्ति हेतु इच्छुक विद्यार्थी को साधन चतुष्ट्य से संपन्न होना चाहिए। आचार्य कहते है –

“साधन चतुष्ट्यमं किंम? नित्या नित्य वस्तु विवेक: यहां मूत्रार्थफलभोग विराग: शमादि षटसम्पत्ति मुमुक्षत्वम चेति:।”

आचार्य के अनुसार चार ऐसे गुण है जिनको आत्मसात करने पर हमारा विवेक विकसित होता है।

  1. नित्य-अनित्य वस्तु का विवेक – इस बात को यहाँ हम लौकिक या व्यवहारिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करते है। विद्यार्थी जिस भी विषय का ज्ञान अर्जित करना चाहता है उसे अध्ययन अवधि में इस बात का विचार मन में सदैव रखना चाहिए कि कौन सी बात कार्य या विचार मेरे ज्ञान प्राप्ति में सहायक है और कौन सी बातें अवरोधक है। सहायक बातों का अनुराग रखते हुए निरर्थक बातों का त्याग कर देना चाहिए।
  2. कर्मों के फलभोग से विरक्ति – विद्यार्थियों को ज्ञान अर्जन का यथाशक्ति सम्पूर्ण प्रयास करना चाहिए। लक्ष्य सामने रखना ही चाहिये किंतु उस लक्ष्य को पाने का दुराग्रह मन में नहीं रखना चाहिए। आग्रह प्रेरक होता है, दुराग्रह से मन का बोझ बढ़ता है। दुराग्रह अधिक होने से यदि अनुकूल परिणाम नहीं मिलते तो विद्यार्थी निराशा के दुष्प्रभाव में पड़ कर किसी भी सीमा तक चले जाने को प्रवृत्त हो जाता है।
  3. शम आदि षटसंपत्ति – शम, दम, उपरिति, तितिक्षा, श्रद्धा, और समाधान इस प्रकार की छः संपत्तियां हैं।

१. शम – इसका का अर्थ होता है अपने मन का निग्रह अर्थात मन पर नियंत्रण। हमारे मन को यहां वहां भटकने का अभ्यास होता है, उसे भटकने के लिए नहीं छोड़ना चाहिए। हमने अपना जो लक्ष्य तय करके रखा है, जिस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हम प्रयासरत हैं उस ज्ञान को पाने के लिए अपने मन को केंद्रित करना चाहिये ताकि हमें ज्ञान प्राप्ति हेतु सभी आयामों से सहायता मिल सके।
२. दम – इस का अर्थ है अपनी इंद्रियों पर आधिपत्य प्राप्त करना। इंद्रियों का निग्रह इस प्रकार से करना कि वह हमारे लक्ष्य के अनुकूल विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित हो एवं उसके लिए किए जाने वाले प्रयासों को यथासंभव सहयोग करे।
३. उपरिती –  इसका का अर्थ है अपने धर्म का पालन करना। यहां धर्म से तात्पर्य शिक्षकों के लिए शिक्षक के धर्म एवं विद्यार्थियों के लिए विद्यार्थी धर्म से है। यानि अपने शिक्षक के कर्तव्य अथवा विद्यार्थी के कर्तव्य का प्राणपन से निष्पादन करना, नवीन विचारों नवीन प्रणालियों, नवीन साधनों का अनुसंधान करना जिससे विद्यार्थी अध्ययन में रुचि ले एवं ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उनके लिए सरल हो सके।
४. तितिक्षा – इसका अर्थ है प्रत्येक प्रकार की आंतरिक एवं बाहरी प्रतिकूलताओं को सहन करने की शक्ति। जिस समाज जीवन में हम जीवन यापन करते हैं यहां पर अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं का सामना हमें दैनंदिन जीवन में करना पड़ता है। यदि हमारे भीतर इन प्रतिकुलताओं को सहन करने की शक्ति नहीं होगी तो हम अपने मार्ग से भटक सकते हैं। हमारा ज्ञान अर्जन का प्रयास प्रभावित हो सकता है। आचार्य ने प्रतिकूलता के संबंध में अपनी सहनशीलता को बढ़ाने का आग्रह किया है। आचार्य के जीवन में भी अगर हम देखें तो उन्हें अनेक प्रकार की प्रतिकुलताओं का सामना करना पड़ा लेकिन उसके बाद वे अपने लक्ष्य से कभी नहीं डिगे।
५. समाधान – यहां समाधान से तात्पर्य चित्त की एकाग्रता से है। शिक्षकों एवं विद्यार्थियों को अपने चित्र की एकाग्रता पर ध्यान केंद्रित करना अत्यंत आवश्यक होता है। शिक्षा देने एवं शिक्षा ग्रहण करने दोनों प्रक्रियाओं के लिए चित्त का एकाग्र होना अति आवश्यक है।

आचार्य के अनुसार चौथा गुण भी अत्यंत महत्वपूर्ण है ।

  1. मुमुक्षत्व ज्ञानार्जन के लक्ष्य को प्राप्त करने की अभिलाषा एवं अचल निष्ठा। यदि शिक्षक विद्यार्थी के ज्ञानार्जन की अभिलाषा जागृत कर देते हैं तथा ज्ञान के प्रति विद्यार्थियों के मन में अचल निष्ठा की स्थापना कर देते हैं तो शिक्षण कार्य सहज हो जाता है।

आचार्य शंकर ने चार गुणों एवं छह संपत्तियों से विद्यार्थियों को युक्त करने के लिए गुरुओं से आग्रह किया है। आचार्य द्वारा प्रतिपादित वेदांत दर्शन की शिक्षा तथा लौकिक जगत की शिक्षा प्रदान करने का शास्त्रों में वर्णित उपाय आचार्य ने पुनर्स्थापित किया है।

आचार्य अन्य मतावलमबियों को अपने मत से सहमत करवाने के लिए शास्त्रार्थ की पद्धति का उपयोग किया करते थे। जो विद्वान उनके समक्ष अपने मत की महत्ता एवं केवल उनके मत की अधिमान्यता को स्वीकार करने के आग्रह से प्रस्तुत होते थे, आचार्य उनके मत को पूरा सम्मान पूर्वक सुना करते, उसके बाद उस मत की पूर्णता के लिए वेदांत की आवश्यकता प्रतिपादित कर उन्हें पूर्ण रूप से सहमत कर लिया करते थे।

आचार्य शंकर परम ज्ञान की प्राप्ति के लिए जिन सिद्धांतों एवं प्रक्रियाओं को अपनाने का आग्रह शिक्षक एवं विद्यार्थियों से करते हैं उनका पालन कर शिक्षक एवं विद्यार्थी दोनों ही अपने अपने लक्ष्य को सहजता से प्राप्त कर सकते हैं।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय में सहायक कुलसचिव के पद पर कार्यरत है।)

और पढ़ें : जगतगुरु आद्य शंकराचार्य का जीवन दर्शन

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