– गोपाल माहेश्वरी
“जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीश तिहुँ लोक उजागर।।
रामदूत अतुलित बलधामा। अंजनिपुत्र पवन सुत नामा।”
विवेक की आवाज सारे घर में गूँज रही थी।पास के कमरे से सुधा तुनकती हुई आई, “भैया!हनुमान जी धीरे-धीरे बोलने पर भी सुन लेंगे, इतनी जोर-जोर से मत पढ़ो। मुझे पढ़ाई करना है।” विवेक ने जानबूझ कर आँखें बंद कर लीं जैसे सुधा की बात सुनी ही नहीं। सुधा कुछ पल खीजकर उसे देखती रही फिर पलटी और अपनी पुस्तक लेकर बैठक वाले कक्ष में चल दी। जाते-जाते दरवाजा इतनी जोर से बंद किया कि कमरे की चीजें थरथरा उठीं।
बात यह थी कि दादी-दादा जी ने कई बार विवेक को समझाया था कि प्रतिदिन नियम से कम से कम पाँच मिनट ही सही पर भगवान को स्मरण करना ही चाहिए। नियम पालन और ईश्वर भक्ति के कई लाभ और प्रसंग सुनाए पर विवेक को सुबह जल्दी उठना, नहाना, पूजा-पाठ यह सब अभ्यास में नहीं आ रहा था। वह देर तक सोने, फिर नहाए या बिना नहाए हड़बड़ी में विद्यालय भाग जाने का अभ्यासी हो चुका था। एक दिन दादा जी से डाट पड़ गई। जाने क्यों वहीं खड़ी सुधा मुस्कुरा रही है ऐसा विवेक को लगा। बस, इसी ने उल्टी सीधी भिड़ाकर डाट पड़वाई है, उसने ऐसा ही निश्चय कर लिया। दादी ने उसी समय कह दिया कि “देख, सुधा भी तो सुबह जल्दी उठकर नहा-धोकर, नियमित पाँच मिनिट ही सही पर भगवान का भजन करती है और पढ़ने बैठ जाती है।” इतना सुनकर तो आग में घी पड़ गया।
“ऊँह, भजन करती है बड़ी। ऊँघती रहती है।” अविश्वास और व्यंग की धार तेज थी। सुधा बोल पड़ी, “नहा लेने पर भी ऊँघने की कला मुझे नहीं आती।”
दादा जी का हाथ उठ गया विवेक पर, मारा नहीं पर कड़ी चेतावनी दे दी, “स्वयं कुछ करना नहीं, दूसरों से भिड़ते रहना। कान खोलकर सुन लो, कल से सुबह उठकर, नहा कर, हनुमान चालीसा पढ़े बिना कुछ खाना पीना नहीं मिलेगा, समझ गए? इस विषय पर अब और कोई बात नहीं होगी।” बस इस घटना में अपनी कमी जानने की अपेक्षा सारा दोष सुधा का मान कर ही वह आज जोर-जोर से हनुमान चालीसा पढ़ रहा था। विवेक ने एक आँख खोल कर देखा मुस्कुराया फिर और भी तेज स्वर मैं “जै जै जै हनुमान गुसाईं….” बोलने लगा।
बैठक कक्ष में अनिरुध्द जी बैठे थे, सामने टी वी पर उनकी कार्टून फिल्म चल रही थी। उनके हाथ से रिमोट छीनना असंभव होता है, यदि कोई ऐसा दुस्साहस करे तो चीख चिल्लाहट, तोड़-फोड़ जैसे उग्र आंदोलन रोकने में घर के सारे बड़े तक असमर्थ से हो जाते है। इसीलिए तो मात्र चार वर्ष के होकर भी सब उनके नाम के आगे ‘जी’ लगाते थे। सुधा बहुत गुस्से में थी। विवेक बड़ा भाई था उसे कुछ कह नहीं सकते, फिर पूजा-पाठ पर तो टोकना माने दादी से पच्चीस बातें सुनना। इधर परसों मासिक परीक्षा है इसके अंक वार्षिक परीक्षा में जुड़ते हैं।
बस, तमतमाते हुए आई और विवेक का गुस्सा अनिरुद्ध पर निकालते हुए झपट कर रिमोट छीना और टीवी बंद। “अम्मा! दीदी टीवी नई देखने दे लही” उसने चीखते हुए शिकायत की और सुधा के रिमोट वाले हाथ पर काट भी लिया। माँ अपने कामों में लगी थीं। अनिरुद्ध की चीख सुनी तो तेजी से आई और “अरी! करने दे उसे अपना काम, दे उसे रिमोट। अभी सारे घर में तूफान आ जाएगा। तू तो समझदार है न?” माँ ने रिमोट सुधा से लिया और अनिरुद्ध को पकड़ा दिया। विजयी अनिरुद्ध ने टीवी की आवाज और तेज कर दी। सुधा क्या करे?
घर के सामने सार्वजनिक बगीचा था, सोचा वहीं चला जाए। बगीचे में पहले ही क्रिकेट मंडली जमी थी। उसकी परेशानी घर के लोग ही नहीं समझे तो बाहरी बच्चों से क्या अपेक्षा करती। एक ही मार्ग था। वह हाथों में पुस्तक लिए चलते-चलते पढ़ती हुई बगीचे में चक्कर लगाने लगी। खेल में व्यवधान हुआ तो रोक-टोक हुई। सुधा ने अनसुनी, अनदेखी की। तभी एक गेंद आकर लगी और पुस्तक छूट कर जमीन पर गिर गई। पुस्तक उठाते-उठाते वह समझ गई कि यही निशाना उसके सिर पर भी लग सकता है। खिलाड़ियों के जोरदार ठहाके को पीछे छोड़ते हुए फिर घर में आ गई।
हनुमान चालीसा शायद आज अधिक बार ही पढ़ा जाएगा और कार्टून फिल्में दिनभर भी चल सकतीं हैं। पढ़ाई का तो मन और वातावरण दोनों न बचे। सुधा ने खूब जोर-जोर से पढ़ने का रास्ता अपनाया। अब पढा़ई नहीं, पढ़ाई न करने देने वालों को पाठ पढ़ाने का ही लक्ष्य था। वह पूजा वाले कमरे में जाती तो इतनी जोर से पढ़ती कि रटारटाया हनुमान चालीसा भी भुलाया जाने लगा और बैठक में बार बार टीवी के सामने से निकलना अनिरुद्ध जी के लिए चुनौती बन गया।
बस, सबने अपने-अपने काम छोड़े और आपस में गुत्थमगुत्था। माँ ने थोड़े समय युद्धविराम के लिए सबको थप्पड़ लगा दिए। अब टीवी बंद, पूजा बंद और पढ़ाई भी बंद, घर में सिसकती हुई शांति छा गई।
तभी दरवाजे की घंटी बजी। एक भी बच्चा हिलने को तैयार न था। दरवाजा माँ ने ही खोला। सामने उसके भैया यानि बच्चों के वकील मामा खड़े थे। अनिरुद्ध न उठा पर विवेक ने उनके पैर छुए। सुधा भी पैर छूने को झुकी पर मामा ने बीच में ही रोक कर स्नेह से अपने से चिपटा लिया “अरे सुधारानी! पैर तो हमें आपके छूना चाहिए। आप हमारी भानजी हैं, फिर लड़कियाँ साक्षात दुर्गा, सरस्वती।”
“ऊँह! क्या दुर्गा, क्या सरस्वती मामा जी!,अभी अभी पूजा कर दी है आपकी बहन जी ने, बिना हमारी कोई गलती के?” माँ की ओर व्यंग्यभरी दृष्टि फेंकते हुए शिकायती स्वर में बोल पड़ी सुधा।
“बाल अधिकारों का हनन, गंभीर अपराध है, क्यों बहन जी! जानती नहीं तुम?” हँसते हुए बहिन से पूछा तो लगा वकालती अंदाज से कहा गया यह वाक्य वातावरण को सामान्य करेगा, उदास रोनी सूरत लिए बच्चे खिलखिला पड़ेंगे, पर आज ऐसा नहीं हुआ। वकील मामा समझ गए, मामला अधिक गंभीर है। सुबह का समय था, सब अपने-अपने कामों को करने में व्यस्त हो गए।
शाम को परिवार के बाल सदस्यों के साथ बैठक में मामा जी की मंडली जमी। यह हँसी-ठहाकों और तर्क-वितर्कों का का ऐसा समय होता था कि कब तक मंडली जमी रहेगी कोई नहीं जानता। बड़े भी इसमें आ सकते थे पर बच्चों को अभी कोई रोक-टोक नहीं कर सकता था।
“मामा जी! सबसे पहले यह बताइये, मुझे पढ़ने का अधिकार है न?” सुधा ने ही शुरू किया।
“हाँ, हर बच्चे को पढ़ने का अधिकार है।” मामा जी ने उत्तर दिया।
“तब तो किसी को उसका अधिकार प्राप्त करने से रोकने वाले अपराधी हुए?” सुधा का स्वर तीखा हो गया। सब समझ गए कि सुबह का गुस्सा अभी तक कम नहीं हुआ है। वह अपने भाइयों की और भौहें चढ़ाकर देख रही थी।
अनिरुद्ध को तो कुछ समझ न आया, वह सुबह की बात भूल-सा गया था पर विवेक ने तपाक से कहा, “मामा जी! हर नागरिक को अपने ढंग से पूजा-पाठ का अधिकार है क्या कहते हैं उसे? हाँ ‘धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार’। घर मेरा है इसमें मैं जो भी चाहूँ कर सकता हूँ।”
“घल मेला बी है न? “छोटे से अनिरुद्घ जी इतना अवश्य समझते थे कि सब बात कर रहे हों तो बीच-बीच में कुछ न कुछ बोलना चाहिए नहीं तो लोग छोटा-सा बुद्धू बच्चा समझकर उसकी ओर ध्यान ही न देंगे। ऐसा हुआ तो उसे नींद आ जाएगी, फिर जाने क्या-क्या बातें हो जाएँगी, उसे पता ही नहीं रहेगा। दीदी, भैया ‘ऐसा तय हुआ जब तुम सो गए थे’ के नाम पर उसे कुछ भी बताकर रौब झाड़ेंगे, रोक-टोक करेंगे। समझ में चाहे कुछ न आए पर अपने हितों की रक्षा में वह सतर्क सदस्य था घर का।
अनिरुद्ध की बात से मामा जी को अवसर मिला। हँसते हुए बोले “घर सभी का है, सबके अपने-अपने अधिकार हैं। अधिकार हैं तो उनका उपयोग भी कर सकते हैं।”
“समझे सब?” विवेक और सुधा एक साथ अंगुली दिखाते हुए बोले उनकी बात पूरी होती तब तक “छमजे?” कहते हुए अनिरुद्घ भी नकल करते हुए बोल पड़ा। मामा जी हँस पड़े। हँसी की हल्की रेखा तो विवेक व सुधा के होठों पर भी आ गई पर उन्होंने उसे होंठों में ही दबा लिया।
माँ व पिता जी भी आकर चुपचाप बैठ चुके थे।
“भैया! सबके अधिकार बता दो, सब उनको लेकर ये महाभारत छेड़ते रहें, मैं बेचारी क्या करूँ? कैसे सम्हालूँ। यहाँ तुम्हारे कोर्ट की तरह ‘आर्डर आर्डर’ कहते ही सब चुप नहीं हो सकते।” माँ बोली।
“फिर भी सब बैठ कर तय कर लो। कुछ नियम, व्यवस्था जिससे हर दिन नया बखेड़ा न हो।” पिता जी ने भी कहा।
वकील साहब बोले “सबके अधिकार हैं। घर सबका है तो सबके कुछ कर्तव्य भी हैं। एक दूसरे के अधिकारों में टकराहट न होने देने के लिए आपसी समझ, एकता, समानता भी आवश्यक है।”
“ऐसे तो फिर कुछ नहीं चलेगा, पूरे दिन लड़ना-भिड़ना होता रहेगा।” माँ सच में परेशान थी।
“हाँ, तुम्हारी वकालत जरूर चलती रहेगी वकील साहब! “पिता जी ने जोड़ा तो सब के ठहाकों से बैठक गूँज उठी। यह सुनकर लाठी टेकते दादा जी और माला जपते दादी भी वहाँ आने से अपने आप को रोक न सके। सोफे पर उनके लिए ससम्मान जगह बना दी गई थी। वकील मामा को कुछ कहते पर दादा जी – दादी जी के आने से सम्मानवश रुक गए।
“कहते रहो बेटा! जो कह रहे थे।” दादा जी ने बैठते हुए कहा। वकील साहब बोले “नीति, नियम अधिकार, कर्तव्य निश्चित कर कानून बनने से इतना बड़ा देश चल सकता है तो घर क्यों नहीं?”
“कानून समझदारों के लिए है, दंगाइयों के लिए थोड़े हैं।” बच्चों की ओर संकेत था माँ का।
“अपने अधिकारों से अधिक दूसरे के अधिकारों का और दूसरे के कर्तव्यों से अपने कर्तव्य का ध्यान रखने पर ऐसा नहीं होगा। कर्तव्य और अधिकार सिक्के के दो पहलू हैं, एक सहज रूप में अपने सामने आता है तो दूसरा सामने वाले के।” मामा जी के हाथ में एक सिक्का था जिसे वे उलट-पलट कर बच्चों को दिखा रहे थे।” सिक्का एक ओर खराब हो तो बाजार में चलेगा?”
“नहीं।” बच्चों के सिर हिले।
“सिक्के के दोनों पहलू ठीक तो सिक्का खरा नहीं तो …?”
“ खोटा।” सुधा व विवेक एक स्वर में बोले।
चलाने के पहले सिक्के के दोनों पक्ष चलाने वाले को देख लेना चाहिए तो झगड़ा ही पैदा न हो। संविधान यही होता है।”
“ तो वकील सा.! बना दो हमारे घर का भी संविधान।” पिता जी हँसते हुए बोले।
“ना जीजा जी! देश का संविधान देश के लोगों ने सोच-विचार कर अपनी परंपरा, आवश्यकता सबको तोल-मोल कर बनाया है। मैं हूँ बाहरी, मित्र की तरह सहयोग कर सकता हूँ पर परिवार का संविधान तो आप परिवार के लोग ही बनाएँ, यही ठीक है।” मामा जी बोले।
“बेटा! मैं बात-बात पर तुम्हारी तरह संविधान बाँचने न बैठ सकूँगी?” दादी सचमुच चिंतित लगीं।
“देश होता है बहुत बड़ा, सब-बार-बार तो क्या, एक बार भी एक साथ नहीं बैठ सकते, इसलिए संविधान लिखना पड़ा। फिर भी उसमें जनता के प्रतिनिधि समय-समय पर चर्चा करके एकमत होकर या बहुमत से बदलाव ला सकते हैं। घर का संविधान अलिखित होता है। परिवार प्रतिदिन साथ बैठता है, यहाँ का संविधान बिना पोथी बनाए पीढ़ीयों से चलता है। उसमें समय-समय पर सुधार भी करते हैं। इसे ही कुल परंपरा कहते हैं जो एक पीढ़ी अगली को सिखाती जाती है। अपने परिवार की परंपरा निर्वाह करते समय भी पड़ौसियों, मोहल्ले वालों का ध्यान रखते ही हैं कि उन्हें परेशानी न हो।” मामा जी अपने प्रवाह में बोल गए।
“और कोई मनमानी करे तो?” सुधा सब स्पष्ट कर लेना चाहती थी।
“तो जैसे देश में न्यायालय, वैसे घर में दादा जी, माँ, पिताजी? ये जो निर्णय दें, सब मानें।” वकील साहब मुस्कुराए।
“माँ जिला न्यायालय, पिता जी उच्च न्यायालय और दादा-दादी जी उच्चतम न्यायालय।” विवेक ने कहा तो सब हँस पड़े।
“चलो, सोने का समय हो गया।” माँ ने कहा।
“आपत्ति है जज साहब! सोने का नहीं जागने का समय, आज 26 नवम्बर संविधान दिवस पर हमने उसे थोड़ा-सा समझा जो है। जागरूकता, जागने का समय।” सुधा ने कहा तो एक और ठहाके के साथ सब उठ गए।
सुधा और विवेक अनिरुद्घ का एक एक हाथ पकड़े सोने के कमरे की ओर जा रहे थे। घर के सभी बड़े मुस्कुरा उठे।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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