भारत भारती

✍ गोपाल माहेश्वरी

भारत और भारती का मन आज आनंद से उछल -उछल जा रहा था। एक पुराने फिल्मी गाने की एक पंक्ति है न “मुझे खुशी मिली इतनी कि मन में न समाय” बस वैसी ही अवस्था थी उनकी। कारण यह था कि वे अपने परिवार के साथ छोटी भुआ के विवाह में अपने गाँव जा रहे थे। मध्यप्रदेश में मालवा के छोटे से गाँव शिप्रा में उनकी खेती थी। दादा जी-दादी जी और काका-काकी वहीं रहते थे। छोटी भुआ उनके साथ ही रहती थी पर अब उसका विवाह है तो वह भी नागपुर चली जाएगी।

शिप्रा नदी के किनारे देवास और इन्दौर नगरों के बीच बसा यह गाँव बच्चों को बहुत अच्छा लगता था। भारत-भारती के पिता सरस्वती विद्या मंदिर खंडवा में प्राचार्य थे। अतः भारत-भारती भी उन्हीं के साथ खंडवा रहने लगे थे। घर में प्रायः गाँव की दादा-दादी की सबकी बातें होती रहती थीं। एक दो दिन छोड़कर फोन पर भी बात हो जाती थी पर गाँव तो होली, दीवाली, राखी आदि पर ही जाना होता था।

इस बार गाँव जाने की बात कुछ विशेष थी। पूरे आठ दिन रहना था वहाँ, वह भी सर्दियों के मौसम में। ठंड में हरे-भरे खेत खाने की कई प्राकृतिक चीजों, सब्जियों से भरे रहते थे, पर यह सब भी समय समय पर मिलता ही रहता था। मूल रूप से कृषक परिवार, देश का अन्नदाता, धरती मैया उसे किसी बात के लिए तरसने न देती, बस परिश्रम रूपी पूजा माँगती है। गाँव का निश्छल, निर्मल प्रेम भारत, भारती के लिए दुर्लभ न था पर वे इतने उत्साहित और आनंद से उछले जा रहे थे इसका कारण था भुआ का विवाह, गाँव में मांडा कहते हैं इसे।

वे एक ही विद्यालय में एक ही कक्षा में पढ़ते थे दोनों जुड़वाँ जो थे। अभी विद्यालय आरंभ होने में थोडा़ समय था। आज उनकी कक्षा में वे आठ दिनों की छुट्टी लेकर जा रहे हैं यह जानकर उनकी मित्र मंडली ने उन्हें घेर रखा था। ‘क्यों जा रहे हो?’ ‘कहाँ जा रहे हो?’ ‘कब आओगे?’ ऐसे जिज्ञासा भरे प्रश्नों की बौछारें होने लगीं। सबको आश्चर्य भी था कक्षा में बहुत कम छुट्टी लेने वाले ये भाई-बहिन आठ दिन की छुट्टी ले रहे हैं!!

“अरे! हमारी छोटी भुआ का विवाह है। उनकी ससुराल नागपुर जाएँगी वे।” भारत ने कहा।

“धत्! विवाह के बाद तो भुआ ससुराल चली जाएगी, तुम्हें हर बार तो गाँव में नहीं मिलेगी, सुना है नागपुर है भी दूर, महाराष्ट्र में।” राधिका बोल पड़ी। उत्तर आने के पहले ही सुखबीर ने जोड़ दिया “तो फिर प्रसन्नता की क्या बात!”

विचार उठा बात तो सोचने वाली है। भारत ने कहा “पर एक दिन तो उन्हें ससुराल जाना ही होगा न? हमें भी तो रतलाम आना पड़ा, गाँव का घर छोड़ कर, तो इसमें ऐसा दुःख भी क्या मनाना? दूर रह कर भी हैं तो हम हमारे गाँव के ही।”

भारती ने बताया “प्रसन्नता इस बात कि इतने दिनों सारे रिश्तेदार एक साथ मिलेंगे।”

“रिश्तेदार! ऊँह! तुम इतना खुश हो रही हो! मुझे तो रिश्तेदारों के साथ बिलकुल अच्छा नहीं लगता। भगवान बचाए उस भीड़भाड़ से।” तितिक्षा की प्रतिक्रिया एकदम रूखी थी। कुछ और बच्चों ने भी उससे सहमति सूचक सिर हिलाया, कुछ असहमत भी दिखे। इस पर भारत-भारती ने अपने परिवार का जो विवरण दिया उसे सुनकर सब आश्चर्यचकित थे।

भारत-भारती का परिवार अनूठा था। दादा जी के चार लड़के, तीन लड़कियाँ। दूसरे क्रम पर हैं पिताजी, जो अब खंडवा जाकर मालवी से मानोनीमाड़ी भी हो गए हैं। सबसे छोटे काका दादाजी के साथ गाँव में रहते हैं पर काकी है गुजरात के वडोदरा की। ताऊ जी यानि पिताजी के बड़े भाई हरियाणा में पानीपत रहते हैं तेल रिफाइनरी में काम करते हैं तो बड़े काका रहते इन्दौर हैं पर काकी हैं केरल की। और सुनिए, बड़ी भुआ कर्नाटक के मैसूर में ब्याही पर फूफाजी नौकरी करते हैं वन विभाग में और अभी वे लोग रहते हैं शिमला, हिमाचल प्रदेश में। छोटी भुआ अब मराठी हो रहीं हैं पर सुना है नए फूफा जी काश्मीर के सेब बागान का काम करना चाहते हैं। अब काश्मीर सब भारतवासियों के लिए रहने-बसने को खुला जो हो गया है तीन सो सत्तर और पैंतीस ए धाराएँ जो हट चुकीं हैं। पिता जी के मामाजी का कोलकाता पश्चिम बंगाल में व्यापार हैं और मामी जी मतलब उनकी पत्नी मारवाड़ी हैं मतलब राजस्थानी। दादा जी  भी चार भाई, दो दिवंगत हुए पर एक बचे हैं वे सेना के जवान रहे असम में और पंजाब में रहे। दादीभुआ यानी पिताजी की भुआ दादाजी की बहिन मथुरा में रहती हैं। ताऊजी के बेटे हमारे भैया रायपुर रहते हैं छत्तीसगढ़िया होकर।

“इतने लोग! सब अलग अलग प्रांतों में! गप्प मार रहे हो?” नीरज विश्वास नहीं कर पा रहा था। उसे टोकते सुना तो पंकज ने हँसते हुए सहयोग किया “अखिल भारतीय परिवार है भाई इनका तो” सब हँस पड़े तो वह और उत्साहित हुआ” कोई प्रांत छूट तो नहीं गया? छूटा हो तो जोड़ लो अपनी गप्पकहानी में” एक खिलखिलाहट और आपस में धौलबाजी वातावरण को हल्का कर गई। भारत-भारती मौन रहना ठीक समझ रहे थे पर बच्चे झूठी या सच्ची, पर यह बातें और सुनना चाहते थे। वैसे सभी जानते मानते थे कि ये भाई-बहिन गपौड़ी नहीं हैं।

“हमारी रिश्तेदारियाँ तो रतलाम-मंदसौर में ही हैं, हमारे दादा जी किसी को दूरजाने या दूर रिश्तेदार बनाने की अनुमति न दी।” भावना ने बात आगे बढ़ाने के लिए कहा।

“पुराने जमाने में जब आवागमन के साधन सीमित थे तब राजा महाराजा, व्यापारी और संत महात्मा ही दूर-दूर यात्रा कर पाते थे। साधारण लोग कहीं जाते भी तो तीर्थयात्री बन कर। संदेश भी पहुँचाने में महिनों लग जाएँ तो रिश्तेदार एक दूसरे के सुख-दुख में भी समयपर न पहुँच सकें। इसलिए तब दूर सम्बन्ध न बनाने का आग्रह था।” भारत ने स्पष्ट किया।

“लेकिन हमारे दादा जी कहते हैं अब युग बदल गया है। न आना-जाना कठिन रहा न सूचना-संदेश। अब तो विदेशों में भी पलभर में बात कर लो, तो देश में तो बात ही क्या है?” भारती ने तर्क दिया।

“हाँ, ग्लोबल विलेज। वो क्या कहते हैं हिन्दी में विश्वग्राम का युग है।” गोबिंद आज पहली बार बोला था भुवनेश्वर उड़ीसा से आया था उसका हिन्दी जरा अलग लगता था।

“हमारा दादा कहता सारा विश्व एक परिवार होता जी वसुधैव कुटुम्बकम्।” चैन्नई के मूल निवासी कृष्णमूर्ति ने बताया तो उसके बोलने के ढँग पर कुछ बच्चे मुस्कुराए पर कुछ ने इसे बुरी बात बताकर तुरंत मना भी किया।

“हाँ, पर विश्व की बात अभी छोड़ भी दें तो भारत के गाँवों में भी भारत के लोग तो रिश्तेदार बन ही सकते हैं न?” भारती ने स्पष्ट किया।

“पर इससे लाभ क्या?” राधिका ने टोका।

“हमारे साथ चलकर देखो तो जल्दी समझ आ सकेगा, चाहो तो चल सकती हो हमारे साथ।” भारती ने उत्तर दिया।

राधिका का जन्म जबलपुर में हुआ था पर पिता परिवार आन्ध्रप्रदेश के और माँ ग्वालियर की। उसका नाम उसके पिता जी के मित्र ने रखा था। भाग्लक्ष्मी यह बात जानती थी, उसने राधिका से हँस कर कहा” चली जा, एक आन्ध्र से भी हो जाएगा वहाँ।” फिर सब हँस पड़े।

भारत बताने लगा “सचमुच अद्भुत है हमारा परिवार। दादा जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक हैं। उनकी सोच ही अलग है। कहते हैं, सारा राष्ट्र एक है, अनेक भाषाएँ, वेशभूषाएँ, खानपान और हर प्रांत की पर्व त्योंहार मनाने  की पद्धति परंपराएँ अलग पर संस्कृति एक भारतीय हिन्दू संस्कृति बस। हर प्रदेश के जलवायु अलग, प्रकृति में भिन्नता, सबको देखने समझने के अवसर बढ़ जाते हैं फैली हुई रिश्तेदारियों से। “

“सच में। जैसे हम अभी जा रहे हैं, वहाँ हर रिश्तेदार के पास से कोई अलग स्वाद का अलग नाम का विशेष नमकीन मीठा निकलेगा।” भारत की बात सुनी तो मुँह में पानी आने लगा। बात का रंग जम रहा था। उसने आगे कहा “देखना वहाँ गाँव में पलाश के पत्तों के पत्तल दोने ही मालवी होंगे पर एक दिन दाल-बाटी, फिर बाकी दिन तो अखिल भारतीय व्यंजन मेला ही लगेगा।”

“हिंदी की बातचीत में कितने शब्द मराठी, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, राजस्थानी, मालवी आदि के इतनी सहजता से मिलते जाएँगे कि पता भी न चले।” भारती के कथन पर मंडली में आश्चर्य फैल गया।

“पर वे समझ में आते होंगे क्या?” पंकज ने जिज्ञासा प्रकट की।

“आत्मीयता गहरी तो बाधाएँ समाप्त। सब समझ आने लगता है, फिर थोड़ा कोई अटके भी तो दूसरा तपाक से बता देता है, और एक ने बताया कि चार छः तुरंत दुहरा देतें हैं। बस हो जाता है एक नया शब्द याद।” भारती ने स्पष्ट कर दिया। “हमारे यहाँ एक परंपरा है लौटते समय लिफाफे में कुछ रुपए दिए जाते हैं।” भारती बता रही थी कि “हाँ हाँ विदाई। हमारे यहाँ भी होता है मिठाई कपड़े वगैरह भी देते हैं ।” भावना ने बीच में ही बोल पड़ी।

“तू चुपकर, भारती को बताने दे।” भावना ने टोका तो वह मुँह बनाकर चुप हो गई। भारती ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर “यह सही कह रही है” कहते हुए भावना को फिर सहज कर लिया। राधिका भी आँखों ही आँखों में क्षमा माँग चुकी थी, जिसे भावना की मुस्कुराहट ने स्वीकार भी लिया था।

“रुपए, मिठाई तो ठीक, मुझे तो वे लिफाफे बहुत पसंद आते हैं। उन पर हमारे नाम लिखे होते है एक तो यही खुशी, दूसरे बहुत सी भाषाएँ तो देवनागरी में यानि हिन्दी जैसी ही लिखी जाती हैं पर कन्नड़, मलयालम, गुजराती, पंजाबी  वगैरह अलग तरह से। मैं आठ-दस भाषाओं में तो अपना नाम लिखना पढ़ना सीख ही गई हूँ, उनमें कई छोटे-छोटे वाक्य भी बोल लेती हूँ।” भारती आनंद और गर्व से भर उठी।

“और क्या होता है, बताओ न?” भाग्यलक्ष्मी स्वयं को रोक न पाई।

“ लगभग एक ही उम्र के कई बच्चे इकट्ठा होते हैं हम। एक दूसरे के कपड़े पहनो, सबकी अलग अलग पद्धति अलग अलग शोभा। कभी कभी माता-पिता भी दूर से अपना बच्चा समझ कर किसी और को बुला लें और पास आने पर भेद खुले तो खिलखिला पड़ें। ऐसे अलग-अलग प्रांतों की पहचान एकमएक होने लगती है। “भारती ने बताया तो जैसे सब बच्चों की आँखों के आगे कोई फिल्म सी चलने लगी हो, सब कल्पना में खो गए।

“बच्चे क्या एक-सी कद काठी के बड़े भी एक दूसरे के कपड़े पहनने का आनंद लेते हैं। उदास वह रहता है जिसका डीलडोल सबसे अलग होता पर वे भी अपने लिए अपने नाप की अलग प्रांत का पहनावा मँगवाने का आदेश अवश्य दे देते हैं और उपनी उदासी झटक कर सबके आनंद में घुल-मिल जाता है।”

तभी टन् टन् टन् टन् घंटी बज गई। सब को और बातें सुनने का मन था पर अब प्रार्थना सभा में जाना भी आवश्यक था, उसके बाद कक्षा में। आगे की बातें तो सब आठ दिनों बाद ही सुन सकेंगे, जब भारत-भारती लौटकर आएँगे।

भावना राधिका से दुखी हो कर कह रही थी “हमारे तो ऐसे रिश्तेदार नहीं है हम क्या करें?”

“एक धमाकेदार बात सूझी है, बताऊँ?” राधिका का स्वर उत्साह में इतना तेज था कि प्रार्थना सभा  में जाते-जाते सभी ठिठक कर उसकी ओर देखने लगे।

“क्या?” तीन चार बच्चों ने एक साथ कहा।

राधिका बोली “हमारी कक्षा में, विद्यालय में भी तो कई बच्चे हैं जो घर पर अलग-अलग भाषाएँ बोलते होंगे। हम उनसे भी तो अनकी भाषा के कुछ-कुछ शब्द, बातचीत सीख सकते हैं।”

“घर के आसपास, पड़ौसी भी अलग-अलग भाषा वाले हो सकते हैं।” सुझाव से सुझाव का दीप जलाते हुए पंकज ने जोड़ा।

संभवतः आठ दिनों बाद ही अब भारत-भारती से बातचीत कई भारतीय भाषाओं के मिलेजुले शब्दों के साथ होगी।

इन बच्चों को लगा कि आज सामने लगे सरस्वती जी के चित्र में सरस्वती जी कुछ विशेष प्रसन्न लग रहीं हैं। बीच में लगे प्रणवाक्षर ओम् के चित्र से मानों ध्वनि आ रही है “सारे शब्द मुझसे ही तो प्रकटे हैं, सारी भाषाएँ मेरी हैं।” और ‘मातृ प्रणाम’ में शीश झुकाते ही चित्र से भारत माता आशीष दे रहीं हैं ‘शुभमस्तु, कल्याणमस्तु।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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One thought on “भारत भारती

  1. अत्यंत सुंदर कथ्य, प्रभावोत्पादक शैली …. अनेकता में एकता का भावपूर्ण सन्देश देती हुई सम्वेदनशील कहानी के लिए आदरणीय गोपाल माहेश्वरी जी को नमन और बारम्बार साधुवाद

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