राम की दीवाली

 – गोपाल माहेश्वरी

दीपावली का दिन था पर राम प्रातः से ही अनमना बैठा था। त्योहार था पर मन में उत्साह नहीं था। वस्तुतः कोरोनाकाल के बाद उसे दो वर्षों की आनलाईन पढा़ई के कारण सीधे कक्षा में पढा़ई करते हुए ऐसी कठिनाई आ रही थी जिसे वह किसी से कहने में भी संकोच कर रहा था और स्वयं उसे कोई समाधान भी न मिल रहा था। पढ़ाई में बहुत अच्छा होने से उससे सबकी और स्वयं की भी अपेक्षा बहुत थीं। यहाँ तक कि शिक्षक भी चाहते थे कि वह अपने पढा़ई में कमजोर साथियों की सहायता करे।

दो वर्ष में दो कक्षाएँ तो आगे बढ़ीं, पर पढा़ई उतनी गहराई से तो नहीं हो सकीं। वर्तमान कक्षा के स्तर से पहले की कक्षाओं के पढ़े गए विषयों का तारतम्य बैठाते हुए कुछ खंडित-सा, कुछ छूटा-सा लगता था, पर क्या छूट रहा है पता नहीं लग रहा था।

परेशानी एक नहीं थी। इस बार बरसात भी कितनी अधिक हुई, दीवाली आ गई पर बरसात गई नहीँ। पुराना कच्चा घर सारी ओर सीलन से भरा पड़ा है। कापी-किताब, कपड़े, बिस्तर सब सीलन से भरे पड़े हैं। खेती चौपट, मँहगाई आसमान पर। माँ पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थीं। पिताजी खाँसते कराहते जरा-सी धरती पर पसीना टपकाते खाने भर जितना अनाज मिलजाने की आशा से खेती करते। बूढ़ी दादी जैसे तैसे चौका चूल्हा चलातीं पर क्या पकाएँ क्या खिलाएँ प्रतिदिन के अटल प्रश्न थे।

राम जानता था उसे पढ़ना है जिससे घर परिवार की स्थिति सुधरे। अर्धवार्षिक परीक्षा सिर पर थी इधर यह त्योहार और आ गया।

दादी बूढ़ी थीं पर जमाना देखा था। आँखों में मोतियाबिंद था, धुंधला दिखता था, पर मन की आँखें बड़ी तेज थीं। ऐसा दिखा रही थीं मानो उन्हें कोई चिंता ही नहीं है, बस त्योहार मनाना था। राम को लग रहा था, कैसी हैं दादी कितना त्योहार चढा़ है इनको? पर दादी थीं कि जो भी, जैसे भी, जितने भी साधन सामग्री थे उनसे दीवाली तो मनाना  ही है का जैसे प्रण लिए थीं।

“अरे बेटा! क्या मुँह लटकाए बैठा है? उठो तैयार होओ। दीपक जलाने की बेला आ गई।”

“क्यों जलाना है दीपक? मन नहीं है मेरा।” राम ने कहा।

दादी बिना दाँतों के पोपले मुख पर हँसी लाते हुए बोली- “मुझे तो राम के लिए जलाना है दीपक।”

“किस राम के लिए?” राम बोला।

“उस राम के लिए जिसके लिए सब लोग जलाते हैं। इसीलिए तो दीपावली मनाई जाती है। दादी हाथों से काम और मुँह से बातें करती जा रहीं थीं।

राम समझदार लड़का था। वह भी चाहता नहीं था कि दीवाली के दिन भी घर में उदासी रहे लेकिन परेशानी ने प्रसन्नता पर ग्रहण लगा रखा था। वह दादी की बातों में उत्सुकता दिखाने लगा कि दादी को बुरा न लगे। उसने पूछा “राम के लिए क्यों? वे दीपावली के दिन वनवास से अयोध्या लौटे थे यह पता है, पर दीपक ही क्यों जलाए जाते हैं, आए तो वे दिन में होंगे?”

दादी के काम करते हाथ थम गए, “अरे बेटा! मैं इतना तो नहीं जानती कि दिन था या रात, पर यह जानती हूँ कि जिस राम को पिता का राज्य मिलते-मिलते वनवास मिल गया। पास में साधन नहीं, धन नहीं, सेना नहीं फिर भी भयानक राक्षसों से सामना हुआ।…..पत्नी का हरण हो गया। वानर भालुओं का साथ और सागर पार कर सब प्रकार साधन सम्पन्न रावण को हराने जैसी समस्या। परिस्थितियों का ऐसा अंधेरा कि कोई क्या उपाय सोचे? पर राम ने साहस नहीं छोड़ा, सत्य नहीं त्यागा, प्रयत्नों की पराकाष्ठा कर दी पर हारे नहीं, निराश नहीं हुए। पग-पग आशा और प्रयत्नों के दीपक जलाते हुए लंका विजय कर ही ली। कितने अवसर, कैसी समस्याएं थीं कि प्रत्येक पर निराश होकर बैठ सकते थे। वे ऐसा करते तो उनके लिए कौन दीवाली मनाता?”

राम समझ रहा था दादी यह कथा कह कर क्या समझाना चाह रही है।” वह मुस्कुराया। दादी फिर काम में लगते हुए बोली- “बाहर कितना भी अंधेरा हो, घबराओ मत दीपक जलाओ। बाहर दीपक के लिए तेल-बाती तक भी न हो पर मन के दीप तो कभी न बुझने दो। दीवाली तो यही है मेरे राम! ले यह दीपक रखता जा हर अंधेरे कोने में। समस्याओं के हल उसे ही मिलते हैं जो यह मानता है कि हर समस्या के समाधान होते ही हैं। दीपावली केवल त्योहार नहीं संदेश है, प्रेरणा है अमावस्या की रात को उजाले से भर देने की।”

दादी दीपक जला चुकीं थीं। राम प्रसन्नता से भर उठा। उसे लगा उसके मन में प्रकाश ही प्रकाश है अंधेरा भाग रहा है भाग रहा है।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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