✍ रवि कुमार
आजकल एक चर्चा चलती है कि आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति व एलोपैथी चिकित्सा पद्धति में क्या मूलभूत अंतर है। आम समाज में इस अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा जाता है कि एलोपैथी में लैब टेस्ट, गोली, कैप्सूल, इंजेक्शन के आधार पर तुरंत आराम मिलता है। आयुर्वेद में लंबी औषधि, पथ्य-परहेज आदि के आधार पर चिकित्सा होती है। आजकल के भाग-दौड़ भरे जीवन में ऐलोपैथी ही उपयुक्त है। समझने के लिए ऐलोपैथी व आयुर्वेद में दो मूलभूत अंतर है। एक, एलोपैथी रोग को जानकर उसे तुरंत ठीक करने के लिए औषधि सुझाती है। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में ‘Find the Cause and Treat the Cause’ अर्थात रोग का कारण ढूंढकर उसका निवारण करो, जिसे शास्त्रीय रूप से कहा गया है – ‘निदान परिमार्जनम्’ के आधार पर कार्य होता है। दूसरा, एलोपैथी में मानकीकरण (standardization) है और आयुर्वेद में अनुकूलन (customization) है। आइए जानते है कि आयुर्वेद मानवश: अनुकूलन को ध्यान रखते हुए ‘निदान परिमार्जनम्’ कैसे करता है।
यह सर्वविदित है कि मानव शरीर पांच तत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि व आकाश) से मिलकर बना है। आयुर्वेद के अनुसार पृथ्वी शरीर के मांस पदार्थों, जल शरीर की तरलता को, वायु शरीर के अवयवों रक्त, मल आदि की गति को, अग्नि शरीर की गर्मी और ऊर्जा को तथा आकाश शरीर के खाली स्थान को इंगित करता है।
त्रिगुण वात-पित्त-कफ
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि व आकाश – इन पाँचों तत्वों की परस्पर क्रिया से शरीर के तीन गुण – ‘वात-पित्त-कफ’ बनते हैं।
वात पित्त श्लेष्मणाम् पुनः सर्वशरीरचराणाम्।। सर्वाणि स्रोतास्ययनभूतानि।
– (च.वि. ५/५)
वात वायु व आकाश के परस्पर समन्वय से बनता है। पित्त अग्नि व जल के समन्वय से उत्पन्न होता है। और कफ भूमि व जल तत्व से मिलकर बनता है।
वात-पित्त-कफ शरीर की प्रत्येक कोशिका में समान मात्रा में पाए जाते हैं। इन तीन गुणों का समन्वय ही हमें स्वास्थ्य प्रदान करता है। इन गुणों के शरीर में अलग अलग कार्य है-
१. पित्त के द्वारा हमारे शरीर में गर्मी रहती है, तथा भोजन का पाचन होता है।
२. हमारे शरीर में सारी गतियाँ वात के कारण होती है। जैसे खून का दौड़ना, सांस लेना, शरीर के अंगों और आँतों आदि का कार्य करना।
३. कफ हमारे शरीर को द्रव्यमान या भार प्रदान करता है व हमारे शरीर के अंगों को जोड़े रखता है।
व्यक्ति की प्रकृति वात-पित्त-कफ में से कौन सी है, यह जानना आवश्यक है। उसी अनुसार चिकित्सा की ओर बढ़ सकते हैं। प्रकृति जानने के लिए शरीर में उत्पन्न हुए लक्षणों को समझना एवं आयुर्वेदिक चिकित्सक से परामर्श करना आवश्यक है।
त्रिदोष
यदि वात-पित्त-कफ इन तीन गुणों का समन्वय बिगड़ जाए अथवा इन तीनों में से कोई एक गुण कम या अधिक हो जाए तो शरीर में दोष उत्पन्न हो जाता है। ये दोष आगे चलकर रोग का रूप धारण करते हैं। ऐसी अवस्था में इन तीन गुणों को त्रिदोष भी कहा गया है। महर्षि वाग्भट्ट ने कहा है- “वायु: पित्तम् कफश्चेति त्रयो दोषा: समासतः।”
आयुर्वेद पद्धति में इन तीन गुण/दोषों के आधार पर ‘निदान परिमार्जनम्’ सूत्रानुसार रोग चिकित्सा की जाती है।
किसी व्यक्ति को त्वचा संबंधी रोग हैं तो उसका कारण पित्त दोष होगा। ऐसे में व्यक्ति कुछ गोली आदि ले लेता है व कुछ वैक्स आदि त्वचा पर लगा लेता है तो त्वचा रोग दब जाता है। बाद में पुनः उभरता है तो फिर वही औषधि लेता रहता है। जब तक पित्त दोष का निवारण नहीं होगा तब तक यह त्वचा रोग बार-बार उभरेगा। पित्त दोष के निवारण के लिए पित्त वर्धक पदार्थों (मिर्च-मसालेदार, तीखी आदि) का ग्रहण बंद करना होगा और पित्त नाशक पदार्थों का ग्रहण बढ़ाना पड़ेगा। स्थाई निवारण के लिए शरीर में व्याप्त वायु व आकाश तत्व को संतुलित करना होगा।
वात-पित्त-कफ – त्रिदोष प्रकृति के कारण होने वाले लक्षण व रोग उत्पत्ति
वात – शरीर में रूखापन, दुबलापन, धीमी व भारी आवाज और नीद की कमी; इसके अलावा आंखों, भौहों, ठोड़ी के जोड़, होंठों, जीभ, सिर, हाथों व टांगों में अस्थिरता, मांसपेशियों में थकान, जोड़ों का दर्द, जकड़न, सिर दर्द, क़ब्ज़, वजन कम होना, मरोड़, ऐठन, कंपकपी, कमज़ोरी, पेट दर्द, शुष्की आदि।
पित्त – गर्मी सहन न कर पाना, त्वचा पर भूरे धब्बे, बालों का जल्दी सफ़ेद होना, मांसपेशियों और हड्डियों के जोड़ों में ढीलापन, पसीना, मल और मूत्र का अधिक मात्रा में बाहर निकलना, अत्यधिक एसिडिटी, शरीर में जगह जगह सूजन, रक्त स्राव, उच्च रक्तचाप, जलन, अधिक मल त्याग, त्वचा में चकत्ते, फुंसी, मुहाँसे आदि।
कफ – भूख, प्यास और गर्मी कम लगना, पसीना कम आना, जोड़ों में मजबूती और स्थिरता, शरीर में गठीलापन, मुटापा, सूजन, शरीर में पानी जमा हो जाना, अधिक बलगम, अति विकास, अवसाद आदि।
वात-पित्त-कफ के संतुलन के लिए क्या करें
१. वात का संचय ग्रीष्म में, प्रकोप वर्षा में और शमन शरद ऋतु में होता है। पित्त का संचय वर्षा, प्रकोप शरद एवं शमन हेमंत ऋतु में होता है। कफ का संचय हेमंत, प्रकोप बसंत तथा शमन ग्रीष्म ऋतु में होता है। अतः ऋतुचर्चा अनुसार आहार-विहार का प्रयासपूर्वक पालन करें।
२. भूमि, जल व वायु – इन तीन तत्वों की पूर्ति हेतु आवश्यक भोज्य पदार्थों, पर्याप्त जल एवं शुद्ध वायु का संतुलित मात्रा में सेवन करें।
३. दिनचर्या व्यवस्थित रखे। नियमित व्यायाम व पर्याप्त नींद को दिनचर्या में स्थान दें।
४. ऋतुचर्या अनुसार आवश्यक पथ्य-अपथ्य का पालन करें।
५. वात संतुलन के लिए तिल के तेल की मालिश, पित्त संतुलन के लिए देशी घी का सेवन एवं कफ संतुलन के लिए शहद का उपयोग लाभकारी रहता है।
(लेखक विद्या भारती दिल्ली प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
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