भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्य – भाग एक

✍ डॉ. कुलदीप मेहंदीरत्ता

Constitution duties

यह मानव की प्रकृति है कि हम सब को अधिक से अधिक अधिकारों की प्राप्ति अच्छी लगती है। अधिकार सामान्यतया उन सुविधाओं को कहा जाता है जिसे हम एक सार्थक और सुखमय जीवन के लिए आवश्यक समझते हैं और हमारा देश हमें प्रदान करता है। कर्तव्य और अधिकार परस्पर अविच्छेद्य, एकीकृत और अविभाज्य हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे घर हो, समाज हो या फिर देश, जहां भी अधिकार का अस्तित्व है, उसके अनुरूप वहां कर्तव्य अवश्य विद्यमान है। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र परम समृद्धि के लक्ष्य को तभी प्राप्त कर सकता है जब उसके नागरिक चरित्रवान और सत्यनिष्ठ हों और अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों की पालना करें। वास्तव में, हमारे कर्तव्य की पालना ही हमारे अधिकारों की प्राप्ति को सुनिश्चित करती है। भारतीय संस्कृति तो चिरन्तन काल से ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ का अनुगमन करते हुए कर्तव्य पथ के निरंतर अनुसरण का संदेश देती आई है।

श्रेष्ठ सामाजिक व्यवस्था के लिए मौलिक कर्तव्य एक प्राकृतिक और स्वाभाविक सी अपेक्षा है। स्वामी विवेकानंद ने कहा, ‘भारत के विकास और प्रगति में योगदान देना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है’। महात्मा गांधी के अनुसार उन्होंने ‘अपनी अनपढ़ लेकिन बुद्धिमान माँ से सीखा कि सभी अधिकार मेरे कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने से मिलते हैं। इस प्रकार जीने का अधिकार हमें तभी प्राप्त होता है जब हम विश्व की नागरिकता का कर्तव्य निभाते हैं’। महात्मा गांधी का यह कथन स्पष्टता से एक सार्वभौमिक सत्य की स्थापना करता है कि कर्तव्यों के बीजों को सही ढंग से बोने और पोषण करने से ही अधिकारों के फल व्यक्ति और समाज को प्राप्त होते हैं।

भारत के संदर्भ में मौलिक अधिकारों के साथ ही मौलिक कर्तव्यों की चर्चा की जाती है लेकिन यह आश्चर्य का विषय है कि जहाँ मौलिक अधिकार हमारे संविधान के निर्माण में प्रारम्भ से ही अभिन्न अंग रहे हैं वहीं मौलिक कर्तव्यों को संविधान का भाग बनने में लगभग तीन दशक का समय लग गया। अंग्रेजों के लगभग दो सौ वर्ष के शासन काल में भारतीय जनता को लम्बे समय तक मूलभूत मानव अधिकारों से वंचित रखा गया था। अंग्रेजों ने न केवल भारतीयों को उनके प्राचीन गौरव से हीन किया, बल्कि उन पर अनगिनत अत्याचार किये, थोड़े-थोड़े समय पर पड़ने वाले अकाल और महामारियों ने भारतीय जनमानस को त्रस्त कर रख दिया था। इसीलिए शायद उस समय भारतीयों को स्वतन्त्रता और स्वतन्त्रता के कारण मिलने वाले अधिकारों के प्रति ज्यादा चेतनता थी।

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वहीं दूसरी ओर स्वतन्त्रता संघर्ष में तप चुके भारतीय, आजादी और स्वतंत्र-स्थापना का अर्थ समझ चुके होंगे, सम्भवत: यही सोचकर संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण के समय मौलिक कर्तव्यों को समाविष्ट करने की आवश्यकता नहीं समझी। प्राचीन काल से ही भारतीय वांग्मय, वेद, आदि सांस्कृतिक-धार्मिक ग्रंथ भारतीय समाज के चारों वर्णों और जीवन के चार आश्रमों से संबंधित कर्तव्यों का वर्णन करते रहे हैं। वसुधैव कुटुम्बकम और प्रकृति के कण-कण में परमात्मा का अंश देखने वाली भारतीय संस्कृति में धर्म का विचार गहरे तक व्याप्त था, और भारत में धर्म को कर्तव्य के पर्यायवाची के रूप में देखा जाता था, शायद इसीलिए स्वतन्त्रता के मूल्यों और आदर्शों से परिपूर्ण हमारे संविधान निर्माताओं ने मौलिक कर्तव्यों को सम्मिलित करने की औपचारिकता नहीं निभाई। इसके अलावा मानव होने के नाते कर्तव्यों को समझना और निर्वाह करना अपेक्षित भी था।

हमारे संविधान की प्रस्तावना में उन लक्ष्यों और आदर्शों का समावेश किया गया है जिन्हें प्राप्त करने का स्वप्न कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक रहने वाले प्रत्येक भारतीय ने परतंत्रता के काल में में देखा था। प्रस्तावना का प्रारम्भ ‘हम भारत के लोगों’ से होकर अंत ‘संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं’ से होता है। गंभीरता से देखा जाए तो हमारे संविधान निर्माताओं ने जब सर्वसाधारण को मौलिक अधिकार दिए तो उसमें यह अपेक्षा भी सम्मिलित थी कि कठिनाई से मिली स्वाधीनता के संरक्षण और परिवर्धन के लिए भारतीय स्वयं अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे।

महात्मा गांधी का यह मानना था कि अधिकार का सच्चा स्रोत कर्तव्य है। यदि हम सभी अपने कर्तव्यों का पालन करें, तो अधिकारों की तलाश करना दूर नहीं होगा। लेकिन एक समाज की दृष्टि से हमने अधिकारों की प्राप्ति का हरसम्भव प्रयास किया परन्तु हम अपने कर्तव्यों को उतनी महत्ता नहीं दे पाए। संविधान में स्वर्ण सिंह समिति की संस्तुतियों के आधार पर 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा भाग IV- ए स्थापित किया गया जिसके अंतर्गत द्वारा दस मौलिक कर्तव्यों (अनुच्छेद 51ए) को संविधान में समावेशित किया गया। हालांकि आलोचनात्मक ढंग से कई बार कहा जाता है कि भारत ने मौलिक कर्तव्यों को ‘भी’ सोवियत संघ के संविधान से लिया है।

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(लेखक विद्या भारती विद्वत परिषद के अखिल भारतीय संयोजक है एवं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र-हरियाणा में राजनीति शास्त्र के सहायक प्रोफेसर है।)

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