जन गण मन

✍ गोपाल माहेश्वरी

“जन गण मन अधिनायक जय है भारत भाग्यविधाता” भारत का राष्ट्रगान, सामूहिक स्वरों में यह गीत वातावरण में एक विशेष चेतना भर रहा था। सामने ऊँचे ध्वजदंड पर फहरा रहा था राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा। आज गणतंत्र दिवस था। ध्वजोत्तोलन के बाद सभी बच्चों ने राष्ट्रीयता से भरपूर गीत, काव्यपाठ और ओजस्वी भाषण दिए। मुख्य अतिथि के भाषण के पश्चात् सभी ने राष्ट्रगीत का गायन किया और भारतमाता के गगनभेदी जयघोष से कार्यक्रम का समापन हुआ।

मुख्य अतिथि अधीश जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता थे। कार्यक्रम के बाद जलपान आदि के लिए अतिथि कक्ष में जाने से मनाकर बच्चों के बीच चले गए। अच्छे गीत भाषण आदि कहने वाले बच्चों की पीठ थपथपाई और गीत के भाव और भाषण के विषयों पर वार्तालाप करने लगे। बच्चे उन्हें घेरे खड़े थे।

अधीश जी ने अचानक प्रश्न किया। “अच्छा बताओ राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत में क्या अंतर है?”

रश्मि ने तपाक् से कहा “राष्ट्रगान गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा था। यह एक निश्चित धुन में बावन सैकण्ड में सावधान की मुद्रा में खड़े होकर गाया जाता है। राष्ट्रगीत वंदेमातरम् है इसे राष्ट्रर्षि बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय जी ने रचा था। इसे कई धुनों में गाया जाता है।”

“बहुत अच्छा। और कोई कुछ बताना चाहता है?” अधीश जी ने पूछा।

विनय बोला- “वंदेमातरम् आनंदमठ उपन्यास के लिए रचा गया था इसकी रचना ‘जन गण मन’ के पहले हो चुकी थी। यह गीत और इसका मुखड़ा वन्देमातरम् भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बने थे।”

अधीश जी ने जोड़ा- “सन् 1882 में रचे गये इस गीत के प्रथम दो पद 1950 में राष्ट्रगीत घोषित हुए। अच्छा ‘जन गण मन’ के बारे में कुछ और बताओ?”

सरला ने कहा “जनगणमन 1911 में रचा गया। यह भी 1950 में हमारा राष्ट्रगान बना।”

क्या आपको यह ता है कि वंदेमातरम् की तरह जनगणमन भी पाँच पदों का गीत था पर राष्ट्रगान के रूप में इसके प्रथम पद को ही स्वीकारा गया।” अधीश जी ने जानकारी दी। “अच्छा चलो, आप तो यह बताओ कि दोनों में समानता क्या है?” उन्होंने बात आगे बढ़ाई।

“दोनों हमारे राष्ट्रीय मान-सम्मान के प्रतीक हैं।”

“दोनों हमारे देश की पहचान हैं।”

“दोनों स्वतंत्रता के वर्षों पहले लिखे गए।”

“यह तो बात हो चुकी।” बच्चों के उत्तरों की सरपट दौड़ रही गाड़ी में अधीश जी ने मानों हल्का सा ब्रेक लगाया।

“दोनों बाँग्ला भाषा में हैं।”

बस…बच्चों को और कुछ नहीं सूझा।

“अच्छा दोनों के अर्थ भी पढ़े हैं किसी ने।” अधीश जी ने पूछा। रागिनी ने धीरे धीरे हाथ उठाया तो वे समझ गए वह डर रही है कि कहीं पूछ न लें। उन्होंने उसकी झिझक को कुशलता से दूर किया। बोले “रागिनी! बताओ। राष्ट्रगान की पहली पंक्ति क्या है?”

“जनगणमन” इतना सरल प्रश्न पूछे जाने पर वह खिल उठी थी।

“और राष्ट्रगीत की?” अधीश जी ने पूछा।

“वन्दे मातरम्।” दसियों बच्चे एक साथ बोल पड़े।

“एक साथ नहीं बोलना जिस जिस को पता है हाथ उठाना जिससे पूछूँ वह बताए।” अधीश जी के समझाने पर बच्चों ने स्वीकृति में सिर हिलाए, पास खड़े शिक्षक भी चकित थे इतने बच्चे एक साथ इनसे कैसे अनुशासित होकर बैठे हैं!! पर वे यह कहाँ जानते हैं कि यह प्रेमपूर्वक अनुशासन की कला तो अधीश जी संघ से ही सीखे हैं।

“अच्छा, अब कोई बताओ कि इन गीतों के अंत में हम क्या कहते हैं?” बच्चे थोड़ा अटके वे निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि गीतों की अंतिम पंक्ति बताना है क्या? अधीश जी ने मुस्कुराते हुए कहा “भारत माता की ….”

बच्चों का सामूहिक स्वर फिर गूंजा ‘जय’। फिर वे थोड़ा सकपकाए “अरे! एक साथ नहीं बोलना था न?”

अधीश जी समझ गए, बच्चों की खुसफुसाहट को दबाकर बोले “अब भारतमाता की जय कहना हो तो कोई अपने आप को रोक तो नहीं सकता। बल्कि भारतमाता की जय के लिए सामूहिकता ही सबसे बड़ा अनुशासन है। बात गंभीर थी बच्चे कितना समझ सके कह नहीं सकते पर वहाँ आ जुटे शिक्षकगण इसे समझकर मुस्कुरा उठे। लेकिन बात तो बच्चों को समझानी थी। रवीन्द्र बाबू ने भारत भाग्य विधाता किसे कहा यह मतभेद का विषय हो सकता है पर अधीश जी के मत से तो असली भारत भाग्य विधाता ये बालस्वरूप भगवान ही थे।

“सामूहिकता ही सबसे बड़ा अनुशासन कैसे?” जिज्ञासा ने पूछा।

“बहुत अच्छे बेटी! यह जानना चाहिए। देखो राष्ट्रगान का पहला शब्द है ‘जन’। यानि हम प्रत्येक भारतवासी जिसकी श्रद्धा जिसकी भक्ति जिसका प्रेम अपने भारत देश से इस भारतमाता से हो। क्योंकि हम यानि लोग अपने राष्ट्र के अंग हैं हमारे बिना राष्ट्र और राष्ट्र बिना हम अधूरे हैं। दूसरा शब्द है ‘गण’ यही जन जब एक इकाई की भाँति मिलकर संगठित होकर मिलजुल कर अपने राष्ट्रीय होने के कर्तव्य पालन करते हैं तो वे हुए ‘गण’ और फिर साथ में जुड़ा ‘मन’। अपना अलग मन नहीं गण बने जन का मन। यह हुआ जन गण मन।” अधीश जी रुके सब मंत्रमुग्ध सुन रहे थे अब तक तो बच्चों को लेने आए कुछ अभिभावक भी श्रोता बन खड़े हो चुके थे। अधीश जी ने एक अभिभावक से पूछा- “अरे भाई! देर हो रही होगी कहीं घूमने फिरने जाने का कार्यक्रम होगा किसी का… ।”

“अरे नहीं भाईसाहब! आप बात पूरी करें पिकनिक पार्टी तो कभी भी हो सकती है पर ऐसे समझाने वाले कब मिलते हैं?” अभिभावक की बात का सबने स्वीकार सूचक समर्थन किया।

“अच्छा तो बैठ जाएँ सब।” अधीश जी बोले।

शिक्षकों ने सोचा यहाँ मैदान में अचानक बैठाने की क्या व्यवस्था करें? वे थोड़ा असमंजस में थे। अधीश जी ने भावपूर्ण स्वरों में कहा “यह धरती माँ है हमारी, इसकी माटी में लोटने के लिए तो देवता भी तरसते हैं। आओ अपनी इस माँ की गोद में बैठते हैं मैं जो कह रहा हूँ उसे समझने के लिए इस चंदन जैसी माटी का स्पर्श आवश्यक है इसकी ममता का अनुभव करते हुए सुनिए।” और सफेद धोतीकुर्ता धारी इस वक्ता के धरती पर बैठते ही जैसे जादू हो गया क्या बच्चे क्या बड़े सब धरती की गोद में बैठते गए। विद्यालय के दो कर्मचारी दरी लेकर आ रहे थे उन्हें लगा देर हो गई है, डाट पड़ेगी पर अधीश जी प्रेम से बोले “तुम भी आओ भाई! थोड़ी देर बैठो। तुम भी इस गण में हो तुम भी सुनो। “दरी बिछावन वहीं छोड़ वे भी बैठ गए। अधीश जी ने बातों का सूत्र फिर जोडा़।

“अच्छा राष्ट्रगीत की पहली पंक्ति क्या है- वंदे मातरम्। इसका अर्थ क्या है?”

“मैं माँ की वंदना करता हूँ या करती हूँ।” संस्कृत पढ़ाने वाले आचार्य जी को यह अवसर ठीक लगा।

“यह माँ कौन है? हमें जन्म देने वाली? या दुर्गा माँ लक्ष्मी माता या सरस्वती माता?”

‘भारत माता’ सबकी आँखें उत्तर देने वाले की ओर घूमी। उत्तर पीछे बैठे एक बच्चों का रिक्शा चलाने वाले ने दे दिया था।

“हाँ भारत माता। सारी माताओं का एक सम्मिलित विराट स्वरूप है हमारी भारत माता। अच्छा अब बताइए जन गण मन में जो जन है वह कौन हैं? अभी बताया था मैंने। कुछ लोग बाद में आए होंगे उनके लिए बताए कोई।”

“जन यानि हम।” अवनी ने उत्तर दिया।

“ठीक, तो हमारी यानि जन जन की माँ भारत माताये जन जब गण बनकर पूरे मन से इस माता की वंदना करते हैं उस रूप में जैसा वंदेमातरम् के पूरे गीत में है तब होती है ‘भारत माता की जय’। केवल इन गीतों के पहले पदों में बताए भौगोलिक प्राकृतिक स्वरूपभर से भारत माता का पूरा स्वरूप नहीं प्रकट होता। जब हम कोटि-कोटि यानि करोड़ों हाथों वाली शस्त्रधारिणी दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती रूपी अन्न जल धन धान्य से सम्पन्न माँ की जय मनाने का तंत्र विकसित करने में गण रूप से पूरा मन लगाकर काम करते हैं तो ही बनता है न सच्चा गणतंत्र। गणतंत्र का कौन लोग कैसा अर्थ समझते समझाते हैं उनसे विवाद नहीं पर मुझे तो यही भावार्थ भाता है जो भारत माता से उसकी संतानों का वास्तविक संबंध बताता है।” अधीश जी उठ खड़े हुए। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच किसी ने ऊँचे स्वर में कहा “भारत माता की….” और हर कंठ से पूरी शक्ति से फूट पड़ा “जय”। फिर गूँजा “वंदे” सामूहिक स्वर से दिशाएँ गूँज उठीं “मातरम्”।

गणतंत्र की अपने प्रकार की व्याख्या मन में बसाए सब विदा हो रहे थे। तिरंगा लहर लेते हुए आज कुछ विशेष ही आनंदित था।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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