– गोपाल माहेश्वरी
सत्याग्रहों की विनय की भाषा न जाने शांति की।
धूर्त दुश्मन के लिए भाषा उचित बस क्रांति की।।
बसंत पंचमी का दिन था। धर्मवीर बालक हकीकतराय के बलिदान का दिन। 1930 की इस बसन्त पंचमी पर वीरों के बसन्त में एक और शौर्य का इतिहास जुड़ने जा रहा था। मास्टर दा सूर्यसेन का ओजस्वी गंभीर स्वर एक छोटी सी टोली को ऊर्जा दे रहा था। वे कह रहे थे- “अंग्रेज़ों के अत्याचार अब सीमा पार कर चुके हैं। महात्मा गाँधी के सत्याग्रहों को अंग्रेज़ हमारी कमजोरी समझ रहे हैं। गिड़गिड़ा कर आजादी मांगना अहिंसा नहीं है। अहिंसा एक आध्यात्मिक अवधारणा है। एक ऐसा अस्त्र, जिसकी भाषा अंग्रेज़ नहीं समझते…” वे प्रवाह में बोले जा रहे थे। हृदय की वेदना शब्दों में लावा बन कर घुली हुई थी। उन्होंने 92 दिन अनशन कर रामरक्खा, 63 दिन अनशन कर रवीन्द्रनाथ दास आदि के बलिदान की घटनाएँ बतायीं, साथ ही यह कि केवल भूखों मर के दम तोड़ देने से अंग्रेज़ पिघल नहीं जाएंगे। वे ‘शठेशाठ्यं समाचरेत्’ के पक्षधर थे।
17 वर्ष का जीवन घोषाल भी उस बैठक में था। वस्तुतः यह मास्टर दा द्वारा कांग्रेस छोड़ कर बनाए गए क्रांतिकारी संगठन ‘इंडियन रिपब्लिकन आर्मी’ के उन सदस्यों की बैठक थी जो ‘आर्मी’ की जनवरी में हुई पिछली बैठक में न आ सके थे। 18 से 20-22 वर्ष के नौजवानों की यह बैठक थी। जीवन घोषाल ने खड़े होकर स्मरण दिलाया जलियांवाला बाग का नृशंस हत्याकाण्ड, जिसमें 13 अप्रैल 1919 को जनरल ओ डायर ने 2000 से अधिक निर्दोष भारतीय स्त्रा, पुरुषों, वृद्धों, तरुणों को मार डाला। इसमें 80 से अधिक तो उन बच्चों की सूची है जिनकी आयु 6 से 16 वर्ष के बीच थी। उसे याद था कि कैसे चन्द्रशेखर आजाद को आत्म बलिदान देना पड़ा, कैसे भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी रुकवाने के लिए देश के बड़े और आजादी की लड़ाई के बड़े सत्याग्रही कहलाने वाले नेताओं ने चुप्पी साध रखी है। जीवन घोषाल ने ललकार कर पूछा- “अंग्रेज़ सरकार के इन दमनकारी प्रहारों को शांतिपूर्वक सहकर क्या हम एक कायर गुलाम देश के वासी नहीं माने जाएंगे? क्या हमें यह स्वीकार है?”
“कभी नहीं कभी नहीं!” सभा में अनेक स्वर फूटे।
मास्टर दा ने सभी को शांत किया। आर-पार की लड़ाई का संकल्प लिया गया और आगामी योजना की सूचना देने के निश्चय के साथ सभा विसर्जित हुई।
इसी के अन्तर्गत 18 अप्रैल, 1930 का वह तेजस्वी दिन आया जब सूर्यसेन के प्रचण्ड तेज से आकाश का सूर्य भी सम्मान से देख रहा था, “चरगाँव का अंग्रेजी शस्त्रागार लूट लिया गया।” पाँच घण्टे सशस्त्र संघर्ष चला। अन्ततः अंग्रेजी फौज को और सैनिक सहायता मिलने पर चूंकि काम पूरा हो चुका था, मास्टर दा अंग्रेजों को चकमा देकर अन्तर्ध्यान हो गए।
अपने घायल मित्र हिमांशु की सहायता एवं उपचार के लिए जीवन घोषाल और गणेश घोष को रुकना पड़ा पर चरगाँव में अब और रुके रहना बहुत खतरनाक था। मातृभूमि के लिए समर्पित प्राण ऐसे ही गँवा देना तो उचित था नहीं अतः हिमांशु की व्यवस्था कर वे पास ही के एक छोटे रेलवे स्टेशन पहुँच कर फैनी जाना चाहते थे। छोटा स्टेशन होने से यहाँ किसी को संदेह न हुआ। वे रेल में चढ़ भी गए उनके पास यात्रा के टिकट भी थे पर जाने कैसे टिकट कलेक्टर को उन पर शक हो गया। उसने इनकी वेशभूषा, पहचान बताकर संदेह के आधर पर फैनी स्टेशन पर खबर कर दी।
22 अप्रैल, मास्टर दा अपने दल के साथ जलालाबाद की पहाड़ी पर अंग्रेजों से युद्ध कर रहे थे। इधर जीवन घोषाल, गणेश घोष व आनंद गुप्त फैनी स्टेशन पर पुलिस से भिड़ रहे थे। पुलिस की आँखों में धूल झोंक वे बचकर भागने में सफल तो हुए पर कलकत्ता पुलिस को भी सूचना मिल गई और वह इन्हें खोजने हेतु चौकन्नी हो गई। कलकत्ता की एक बस्ती चंद्रनगर में ये तीनों एक कोठरी किराये पर लेकर छुपकर रहने लगे, जलालाबाद के संघर्ष में अंग्रेज़ी सेना से जूझकर आए लोकनाथ बल भी इन्हीं में आ मिले थे।
अंततः पुलिस को किसी ने सूचना दे दी। वह 1 सितम्बर, 1930 की काली आधी रात थी। पुलिस के बड़े अधिकारी चार्ल्स टेगार्ट ने कोठरी की घेराबंदी कर डाली। चारों पिछली दीवार फांद कर भागे पर जीवन घोषाल को एक गोली लग ही गई। वह पास की एक छोटी तलैया (मछली पालने हेतु बंगाल में ऐसे कई छोटे तालाब होते हैं) में जा पड़ा। शेष तीन पकड़े गए। तालाब में डूबता उतराता अर्ध चेतन जीवन घोषाल पुलिस की गोलियों से छलनी हो गया। जल को भी जीवन कहते हैं जीवन का जीवन जीवन में ही समाप्त हो गया। देशभक्त बलिदानी के रक्त से लाल यह तलैया आज भी सूनी तलैया के नाम से पुकारी जाकर देशवासियों के लिए तीर्थ जैसी पवित्र है।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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