सीताराम-शंकर और ढोंढी का बलिदान

 – गोपाल माहेश्वरी

छोटे-छोटे जौ-तिल-तण्डुल मिल आहुति बन जल जाते हैं।

तो महायज्ञ में उपयोगी सहयोग सपफल कर पाते हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयत्न शस्त्र और सत्याग्रह, दोनों ही माध्यमों से चल रहे थे। ‘सविनय अवज्ञा’ अर्थात् नम्रतापूर्वक किंतु शासन के अनुचित कानूनों को तोड़कर अपना विरोध जताना भी ऐसा ही एक प्रयोग था। 1917 में अंग्रेज़ सरकार ने एक कानून बनाया जिससे महाराष्ट्र के वनों में नागरिक न तो अपने पशु चराने ले जा सकते थे, न ईंधन और अन्य कार्यों के लिए लकड़ियाँ ही ले सकते थे। आजादी के आन्दोलन में उस क्षेत्र में डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार बड़े सक्रिय थे। अंग्रेज़ों के इस अनुचित आदेश की अवज्ञा करने हेतु डॉ॰ हेडगेवार ने 21 जुलाई 1930 को “हम अपने पशुओं को यवतमाल के जंगलों में ले जाएँगे” यह घोषणा कर दी। यह कानून सीधे-सीधे जनसामान्य के दैनन्दिन जीवन से जुड़ा था इसलिए गाँव-गांव तक इस घोषणा से जागृति का नया ज्वार उठ गया। इस आन्दोलन में समाज के हर जाति-वर्ग के लोग भेदभाव रहित होकर जुटने लगे।

महाराष्ट्र का सांगली जिला, गांव का नाम बिलाशी। दस-बारह गाँवों के सभी वर्ग के लोगों द्वारा गाँव में योजना बनाई जा रही थी। एक सुझाव आया कि यदि तिरंगा जंगल में किसी पेड़ को काटकर उस पर फहरा दें तो अंग्रेज़ों के दो कानून टूटेंगे। पहला जंगल से पेड़ न काटना, दूसरा तिरंगा फहराना। बात स्वीकारने योग्य थी। साथ ही यह भी निश्चय हुआ कि यह कार्य 21 जुलाई को डॉ॰ हेडगेवार द्वारा घोषित जंगलों में पशु ले जाने के बड़े कार्यक्रम के पहले होना चाहिये जिससे यदि हम उस दिन बन्दी या बलिदान भी हो जाएँ तो अपनी योजना अधूरी न रहे।

17 जुलाई को एक पतला सा पेड़ प्रतीक रूप में काटकर गांव वालों ने उस पर झण्डा फहरा दिया। सामूहिक रूप से झण्डा गान भी गाया। यह आयोजन देखने में बड़े तो थे ही, आस-पास गाँवों से बहुत से बच्चे भी जमा हो गए थे।

भारतीयों के संगठित होने से अंग्रेज़ सरकार को सबसे अधिक डर लगता था। कार्यक्रम में इतने लोग जमा हुए थे कि उनमें किसी जासूस का घुल-मिल कर टोह लेना असंभव तो न था फिर भी भारतीयों से भीतर ही भीतर डर कर चौकन्नी रहने वाली अंग्रेज़ सरकार के कानों तक यह समाचार चालीस-पचास दिनों में ही पहुँच गया। तत्काल कार्यवाही हुई। कार्यवाही का एक ही प्रकार था। 300 पुलिस वाले अपने बूटों से धरती रौंदते बिलाशी गांव को घेरने कूच कर गए।

घटना 5 सितम्बर की है। सीताराम, उसका छोटा भाई शंकर और एक साथी ढांढी संतु गांव के बाहर लगभग दो ढाई मील दूर एक तलैया (छोटा सा तालाब) में नहा रहे थे कि सीताराम जो उनमें सबसे बड़ा था, उसे दूर धूल उड़ती दिखाई दी। वह समझ गया कि हो न हो यह तो पुलिसवाले ही हैं। सीताराम की उम्र थी यही कुछ 12 वर्ष। ढोंढी 11 वर्ष का और शंकर तो और भी छोटा, मात्र 10 वर्ष का। शंकर ने भाई के मुँह से ‘पुलिस’ शब्द सुना तो उस छोटे बच्चे की सहज प्रतिक्रिया थी ‘चलो भागो’। सीताराम बड़ा था। बोला, “हम क्यों भागें? हम चोर हैं क्या?” पाठशाला जाएँ या न भी जाएँ पर अपने आसपास के वातावरण से बच्चे वास्तविक संस्कार पाते हैं।

रास्ता खोजते पांच पुलिस वालों की अग्रिम टोली इस तलैया के पास आ धमकी। “बिलाशी गाँव का रास्ता कौन सा है?” एक ने डाँटते जैसे स्वर में पूछा। सीताराम चतुर था। भाँप गया कि ये बिलाशी क्यों जाना चाहते हैं? तुरन्त गलत दिशा में अंगुली उठा दी। पुलिस वाले उधर बढ़ गए।

“चलो गाँव में बताएँ।” तीनों ने तत्काल निर्णय किया और अपने कपड़े हाथों में ही पकड़े गाँव की ओर दौड़ गए। वे कपड़े पहनने तक का समय नहीं गँवाना चाहते थे। शोर मचा कर गांव को सूचित किया। गांव वालों को छतों से धूल का गुबार साफ दिख रहा था। सभी ने जो संभव था-लाठी, बल्लम, भाले, दरांती, कुल्हाड़ी आदि शस्त्र उठाए और अपने फहराए तिरंगे की रक्षा में डट गए। आसपास के गाँवों से भी जिस-जिस ने पुलिसवालों को बिलाशी जाते देखा, वे भी छोटे-छोटे रास्तों से वहाँ पहुँच चुके थे।

ग्रामीणों की भारी भीड़ से घिरा तिरंगा पुलिस कप्तान के तनबदन में आग लगा रहा था। उसने सोचा भी न था कि इतने लोग वहाँ पहले से एकत्र मिलेंगे। उसने देखा कि तीनों बच्चे जो बिना कपड़े पहने खड़े हैं, भीड़ में सबसे आगे हैं। टोही दल के एक पुलिस वाले ने फुसफुसाया- “अरे! ये तो वे ही हैं, जिन्होंने हमें भटकाया था।”

“इन्हीं ने इन गाँव वालों को भी बुला लिया है।” कप्तान क्रोध से तिलमिला उठा। पागलों की भाँति चिल्लाया- “शूट देम।” तत्काल तीन गोलियाँ चलीं और वे स्वतंत्रता के बाल सैनिक धरती माँ की गोद में सदा के लिए लुढ़क गए।

गाँव वालों का संयम का बाँध टूट गया। इन तीन आहुतियों से हर एक के मन में प्रचण्ड अग्निकुण्ड धधक उठा। क्रोध की आँच में जलते हुए वे लगभग दस हजार लोग अपने हथियार उठाए पुलिस दल पर टूट पड़े। पुलिस दल अंधाधुंध गोलियाँ चलाते हुए अपनी रक्षा करता हुआ भाग खड़ा हुआ।

तिरंगे के तले आज हम जैसे फूल बिछाते हैं, उस दिन देशभक्तों के शव बिछे थे पर उनके मुख पर संतोष की मुस्कान थी कि उनका तिरंगा सुरक्षित था।

तीन नन्हे बलिदानी अपने ग्राम मंगरोल को इतिहास में अमर कर गए। स्थानीय लोग कहते हैं कि सीताराम व शंकर तथाकथित छोटी जाति के थे और ढोंढी एक कुम्हार का पुत्र था पर उनका बहता रक्त बता गया था कि देश पर बलिदान होने वालों से ऊँची जाति न तो संसार में कभी हुई है, न होगी। उनकी जाति का तो विचार करना भी अपराध है क्योंकि वे दलित नहीं, केवल भारतीय थे, सच्चे भारतीय।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)

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