भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-8 (ज्ञानार्जन के साधन : मन)

 – वासुदेव प्रजापति

ज्ञान प्राप्त करने के साधनों में अब तक हमने बहिःकरण के अन्तर्गत कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों को समझा। हमने यह भी जाना कि ज्ञान प्राप्त करने के साधनों में बहिःकरणों से अधिक सूक्ष्म एवं प्रभावी साधन अन्तःकरण हैं। आज हम अन्त:करण के प्रथम साधन – ‘मन’ को समझेंगे।

मन शब्द से हम सभी भली-भाँति परिचित हैं। मन ज्ञानार्जन का एक प्रमुख साधन है। मन क्या करता है? मन संकल्प-विकल्प करता है। अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त संवेदनाओं को मन विचारों में रूपान्तरित करता है। विचार करना मन का प्रमुख कार्य है। विचार करने के साथ-साथ, मन इच्छा भी करता है, और मन में भावना भी उत्पन्न होती हैं। विचार करना, इच्छा करना और भावना होने का ज्ञान प्राप्त करने से क्या सम्बन्ध है? आओ! अब हम विचार, इच्छा एवं भावना से ज्ञान का सम्बन्ध किस रूप में है, इसे समझेंगे।

मन विचार करता है, अर्थात् इन्द्रियों ने जो देखा या सुना उस पर मन मनन करता है। यह मनन शब्द भी मन से ही बना है। आँख तो केवल देखती है, देखने मात्र से ज्ञान नहीं होता। जो आँख ने देखा, उस पर मन विचार करता है। आँख से प्राप्त संवेदना पर मन विचार करता है कि जो देखा है, वह वस्तु अमुक हो सकती है इससे स्पष्ट है कि जब तक विचार नहीं होगा, तब तक ज्ञान भी प्राप्त नहीं होगा। अर्थात् ज्ञानार्जन करना है तो विचार करना आवश्यक है।

मन इच्छा करता है। इच्छा करना अर्थात् किसी भी वस्तु, व्यक्ति या विचार को पाने की चाह होना। मन में जब चाह उत्पन्न होती है, तभी हम उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। जैसे मन में चाह उत्पन्न हुई कि मुझे आइसक्रीम खानी है तो हम बाजार से आईसक्रीम लेकर आते है और उसे खाते हैं। ठीक वैसे ही जब मन से ज्ञानार्जन की इच्छा होती है, तभी हम ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। अर्थात् बिना इच्छा के जबरदस्ती पढ़ा नहीं जाता। मन में पढ़ने की इच्छा होती है, तभी पढ़ा जाता है।

मन में भावना होती है। जो कार्य करना हमें अच्छा लगता है, उसे हम बार-बार करते हैं। जो कार्य अच्छा नहीं लगता, उसे नहीं करते। जब तक हमारे मन को पढ़ना अच्छा नहीं लगता हम नहीं पढ़ते। जब हमें पढ़ना अच्छा लगता है तभी हम पढ़ते है। जब पढ़ने में मन नहीं लगेगा तो ज्ञार्नाजन नहीं होगा अर्थात् ज्ञानार्जन कि लिए मन में पढ़ने का भाव होना भी आवश्यक है।

मन चंचल है कभी एक स्थान पर टिक कर नहीं रहता, सदैव इधर-उधर भागता ही रहता है। मन की गति अति तीव्र है। मनोविज्ञानी कहते हैं कि मन एक सैकण्ड में तीन सौ विपरीत स्थानों पर आ-जा सकता है। आज तक वैज्ञानिक मन की गति से भागने वाले यंत्र का आविष्कार नहीं कर पाये हैं। इतनी तीव्र गति से भागने वाले मन की इस चंचलता को रोक कर उसे एकाग्र बनाना पड़ता है। जब मन एकाग्र होता है, तभी ज्ञानार्जन होता है। मन एकाग्र नहीं तो ज्ञानार्जन नहीं।

मन छोटी-छोटी बातों से अशान्त हो जाता है। अशान्त मन से ज्ञानार्जन नहीं होता। जब मन शान्त होता है, तभी ज्ञानार्जन होता है। उदाहरण से इसे समझे – एक पात्र में जल भर लें और उस पात्र को एक समतल स्थान पर रख दें। कुछ देर पड़ा रहने दें, उस जल को स्थिर व शान्त होने दें। थोडी देर बाद उस शान्त जल में हम देखें। हमें अपना चेहरा बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देता है। अब उस बर्तन को हिला दें और हमें अपना चेहरा अस्पष्ट, हिलता-डुलता दिखाई देता है। क्योंकि पानी अशान्त है। उसी पात्र को गैस पर रख दें थोड़ी देर में पानी उबलने लगता है। उस उबलते पानी में हम देखगें तो हमें अपना चेहरा बिल्कुल दिखाई नहीं देगा। क्योंकि पानी शान्त नहीं है, वह उबल रहा है। जब मन भी क्रोध में ऐसे ही उबलता है, तब ज्ञानार्जन नहीं होता। अर्थात् ज्ञानार्जन के लिए मन का शान्त होना आवश्यक है।

मन के लिए कहा जाता है कि वह ‘बिना लगाम को घोड़ा है।’ बिना लगाम का घोड़ा अर्थात् जिस पर कोई नियंत्रण नही, ऐसा घोड़ा सवार को किधर ले जायेगा और किस गड्ढ़े में गिरायेगा, किसी को पता नहीं होता। ठीक वैसे ही अनियत्रित मन भी है। मन पर नियंत्रण रूपी लगाम नहीं होगी तो मन भी व्यक्ति को विषय एवं विकारों रूपी घने जंगल में ले जाकर गिरा देगा, जिसमे से निकलना कठिन हो जाएगा। इसलिए मन पर बुद्धि रूपी लगाम लगाना आवश्यक है। जब तक मन बिना लगाम के स्वच्छंद एवं उच्छृँखल  रहेगा, तब तक ज्ञान प्राप्त नहीं कर पायेगा। परन्तु जब यही मन, बुद्धि रूपी लगाम के कहे अनुसार चलेगा तो ज्ञानार्जन में समर्थ हो जायेगा।

मन के लिए एक और बात कही जाती है ‘मन के हारे हार है और मन के जीते जीत।’ जब मन असंयमित होता है तो वह व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है, किन्तु वही मन जब संयमित होता है तो वह व्यक्ति को उन्नति के शिखर पर पहुँचा देता है। अर्थात् मन को संयम में रखना या मन का निग्रह करना सरल नहीं बड़ा कठिन कार्य है। श्रीमद्भगवद् गीता में जब भगवान अर्जुन को मन का निग्रह करने के लिए कहते हैं तो अर्जुन कहता है –

चंचलं हिं मनः कृष्ण प्रमाथी बलवद्दृढ़म्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।

हे कृष्ण! यह मन बड़ा ही चंचल, प्रमाथी, दृढ़ और बलवान है। उसकों रोकना, आकाश में स्थित वायु को रोकने के सामन अत्यन्त कठिन है। तब भगवान उसे कहते हैं कि तुम्हारा यह मानना ठीक है, मनोनिग्रह कठिन अवश्य है परन्तु असंभव नहीं। अभ्यास और वैराग्य से इस मन का निग्रह किया जाता है। और जब मनोनिग्रह कर लिया जाता है तो यही मन मनुष्य को विषयों की कामनाओं से हटाकर आत्मकेन्द्रित कर देता है। इसीलिए मन को बन्धन व मोक्ष का कारण माना गया है –

‘मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोंः’

मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष के इस कारणभूत साधन को संयमित करने की कथा पढ़कर हम भी अपने मन को निग्रह करने का प्रयत्न करें।

मैं जीत गया – मैं जीत गया!

यह कथा है लाहौर के एक प्राध्यापक की। उस प्राध्यापक की जिसने अपना विद्यार्थी जीवन अत्यन्त आर्थिक संकटों में जीया। नाम था उनका तीर्थराम। विद्यार्थी तीर्थराम एक समय ही भोजन कर पाता था। दूसरे समय तो एक लोटा पानी पीकर ही अध्ययन में जुट जाता था। अध्ययन में अत्यन्त मेधावी था। गणित उसका प्रिय विषय था। कठिन से कठिन प्रश्न को हल करके ही सोता था। गणित विषय का उच्च ज्ञान होने के कारण, उसे उसी कॉलेज में पढ़ाने का काम मिल गया जिसमें वह स्वयं पढ़ा था।

अब तीर्थराम कॉलेज में गणित के प्राध्यापक बन गये। जब वे कक्षा में पढ़ाते थे तब अन्य विषयों के विद्यार्थी और उनके साथी अन्य प्राध्यापक भी उनकी कक्षा में आ बैठते थे। इसलिए कि वे गणित के सूत्रों की व्याख्या श्रीमद्भगवद् गीता के आध्यात्मिक तत्वों से जोड़कर करते थे। परिणाम स्वरूप सर्वदूर उनकी ख्याति फैली हुई थी।

एक दिन वे कॉलेज से पैदल-पैदल घर आ रहे थे। मार्ग में एक नींबू का ठेला खड़ा था। वे रुके, देखा कि नींबू तो ताजे व रसीले हैं, बहुत अच्छी सुगन्ध भी आ रही है। मुँह में पानी भी आने लगा। क्योंकि उन्हे नींबू अतिप्रिय थे। सोचा खरीद लूँ परन्तु दूसरे ही क्षण वे कुछ विचार कर आगे बढ़ गये। आगे तो बढ़ गये परन्तु मन तो अभी भी उन नींबुओं में ही अटका हुआ था, इसलिए पुनः लौटकर ठेले के पास आ गये। फिर से देखा ताजे हैं, रसीले हैं, मुँह में पानी भी आ रहा है। चलो खरीद ही लेता हूँ। परन्तु उनके पैर तो फिर आगे बढ़ गये। इस प्रकार वे दो-तीन बार आये व गये। तब उस ठेले वाले ने पूछा, बाबूजी क्या बात है? पैसे नहीं लाये हैं तो कोई बात नहीं कल दे देना। नींबू पसंद आ गये हैं तो ले जाइये। जब ठेले वाले ने इतना कहा तो उन्होंने नींबू खरीद लिये।

वे नींबू लेकर घर आ गये। नींबू पत्नी को दिये और अपने कक्ष में आकर बैठ गये। थोडी देर में पत्नी दो नींबू धोकर एक प्लेट मे रखकर ले आई। वह प्लेट और चाकू उनके समाने रखते हुए बोली इन्हें काटकर खा लेना। पत्नी तो रसोई में चली गई और अपने काम में लग गई। तीर्थराम बैठे हैं। सामने प्लेट में उनके अतिप्रिय ताजे व रसीले नींबू रखे हैं। मन उन्हें खाने को उतावला है। परन्तु ये विचारों में डूबे हैं क्या इस तरह मन के कहे, अनुसार चलना उचित है? मन के कहे अनुसार चलूँगा तो मन पता नहीं कहाँ-कहाँ भटकायेगा?

इतने में पत्नी आ गयी, देखा नींबू तो वैसे के वैसे रखें हैं। वह बोली क्यूँ जी। नींबू तो आपको बहुत पसन्द है, फिर खाते क्यों नही? लाओ! मैं काट देती हूँ, यह कर उसने वे नींबू काट दिये। और बोली, अब तो खा लेना कह कर वह फिर अपने काम में लग गई। कटे नींबू को देखकर तो उनका मुँह पानी से भर गया। उधर मन कहने लगा तू बाजार से नींबू खरीद लाया, जो पैसे लगने थे वो तो लग गये। नींबू काट भी दिये, नहीं खायेगा तो व्यर्थ जायेंगे। अब देर मत कर जल्दी खा ले। हाथ बढ़ा, एक फाँक उठाई और मुँह में रखने लगे इतने में अन्तस से आवाज सुनाई दी, तीर्थराम क्या तू भी मन से हार जायेगा? कक्षा में अपने विद्यार्थियों को बड़ी-बड़ी बातें कहता है – ‘मन के जीते जीत है और मन के हारे हार।’ आज तू अपने मन से हार जायेगा। तत्क्षण मुँह में जाता हाथ रुक गया, नींबू की फाँक फिर से प्लेट में रख दी।

मन अभी भी हार कहाँ मानने वाला था, बोला अरे। एक नींबू खा लेने में काहे कि हार और जीत? कोई गलत काम थोड़े ही कर रहे हो। हमेशा खाते हो, कोई नई बात तो है नहीं। आज भी खा लो, नींबू खाने से कोई हारता है भला! फिर खाने को उद्यत हुए कि पुनः अन्तस से आवाज सुनाई दी, अरे तीर्थराम! मन तो बड़ा जिद्दी व बलवान है, वह तो तुम्हे ऐसे ही भरमायेगा। तू उसके बहकावे में मत आ। संयम रख, मन पर विजय पा। अपने अन्तस की बात मान कर तीर्थराम तुरन्त उठ खडे हुए। वे नींबू हाथ में लेकर द्वार की ओर तेजी से चल पड़े। द्वार पर आते ही उन नींबुओं को झट से एक ओर फैंक दिया और अति प्रसन्न हो जोर-जोर से कहने लगे मैं जीत गया–मैं जीत गया।

मन पर विजय पाने वाले ये प्राध्यापक ही आगे जाकर संन्यासी बने और स्वामी रामतीर्थ नाम से प्रसिद्ध हुए।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-7 (ज्ञानार्जन के साधन: अंत:करण)

 

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