– दिलीप वसंत बेतकेकर
अपने बच्चे बड़े होकर बहुत यश प्राप्त करें, पराक्रमी बनें, अच्छी ख्याति प्राप्त करें, ऐसी इच्छा प्रत्येक माता-पिता की रहती है। इस हेतु अपने स्तर पर वे प्रयासरत रहते हैं। इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं। परन्तु अपार यश की प्राप्ति एकदम नहीं होती, यह ध्यान रखने की बात है। ऊँचा स्थान पाने के लिये छोटी-छोटी बातों पर भी ध्यान केन्द्रित कर नियमित रूप से कार्य करने की आदत डालनी चाहिए। ये स्वभाव ही बनना चाहिए। “Bit by bit forms habit” कहावत है। छोटी किन्तु महत्वपूर्ण बातों की आदत बच्चों में डालने की जिम्मेदारी माता-पिता की होती है। इस हेतु संयम, दृढ़ता व प्रेम की आवश्यकता है।
अनेक व्यक्ति दिखने में सरल, सहज, साधारण लगते हैं किन्तु वे बहुत मूल्यवान होते हैं। एक-एक आदत डालने के लिये अथक परिश्रम करने पड़ते हैं। प्रत्येक गुण विकसित करने के लिये सदैव जागृत रहना पड़ता है। जिन्हें ऊँची उड़ान भरनी हो उन्हें छोटी-छोटी बातों की सावधानी रखना जरूरी है। इस लेख में बच्चों से करवाने जैसी छोटी कृतियाँ, आदतें आदि का हम विचार करेंगे।
सर्वप्रथम, महत्वपूर्ण कार्य है ‘प्रार्थना’। इसे नियमित करना चाहिए। प्रार्थना से मन शुद्ध होता है। प्रार्थना भगवान से केवल भौतिक सुख मांगने के लिये नहीं होती। अंतःकरण शुद्धि के लिए प्रार्थना की जाती है। प्रार्थना से परिस्थिति नहीं अपितु मनःस्थिति बदलती है। बच्चों को “प्रार्थना करो” ऐसा कहने मात्रा से कार्यपूर्ति नहीं होती। इस हेतु माँ-बाप को स्वयं भी प्रार्थना करना चाहिए तभी बच्चे अनुकरण करेंगे।
नम्रता, शालीनता जीवन-मूल्य हैं। जो व्यक्ति अहंकारी होगा उसे ज्ञान प्राप्ति होना कठिन है। इसीलिए बचपन से ही वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, तपोवृद्ध व्यक्तियों के समक्ष नतमस्तक होने की आदत डालनी चाहिए। बड़े होने पर इच्छा होने पर भी झुकना कठिन हो जाता है। सायंकाल को प्रार्थना के पश्चात् सभी वरिष्ठजनों को झुककर प्रणाम या चरण स्पर्श की आदत डालें। मां अथवा पिता को स्वयं को प्रणाम करने हेतु कहने में संकोच अनुभव करना स्वाभाविक है। इसलिये मां बच्चे को कहे “पिताजी को प्रणाम करो” और पिता कहें “मां को प्रणाम करो”।
भोजन आजकल एक यांत्रिक कार्य हो गया है। मनुष्य का पूरा दिन आपाधापी में रहता है। यह सब किसलिए? पेट के लिए? किन्तु भोजन करते समय तो मनःपूर्वक भोजन नहीं कर पाते। घर पर दूरदर्शन का साम्राज्य फैला हुआ है। वास्तव में भोजन एक यज्ञकर्म है। ये केवल उदरभरण नहीं है। भोजन एक यांत्रिक क्रिया के रूप में करने से पाचन क्रिया बाधित होती है। यदि दोनों समय संभव न हो तो एक समय-संध्या समय का भोजन तो घर के सभी सदस्यों को एक साथ बैठकर करना चाहिए। भोजन प्रारंभ करने के पूर्व, अन्नग्रहण करने से पहले ईश्वर की प्रार्थना सामूहिक रूप से करें। भोजन करते समय सख्ती से दूरदर्शन बंद रखें।
प्रत्येक मनुष्य को आवश्यक है, ऐसी दो वस्तुएं असीमित परिमाण में उपलब्ध हैं – हवा और पानी। इन दोनों वस्तुओं के कम उपयोग के कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं निर्मित होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन कम से कम आठ गिलास पानी पीना आवश्यक है। किन्तु ऐसा होता नहीं। पानी कब नहीं पीयें ये भी महत्वपूर्ण है। सामान्यतः हम भोजन करते समय पर्याप्त पानी पीते हैं। तत्पश्चात् दिनभर पानी कम ही पीते हैं। होना चाहिए विपरीत। भोजन के आधा घंटे पूर्व और भोजन के आधा घंटा पश्चात् पानी पीना उचित है। भोजन करते समय, कम से कम, और अति आवश्यक होने पर ही पानी पिएं। इन बातों का ध्यान माता-पिता को रखना चाहिए।
“‘पढ़ाई करो’, ‘पढ़ाई करो’ ये शब्द बच्चों के लिये प्रत्येक घर में सुनाई पड़ते हैं। परन्तु “आज व्यायाम किया क्या?”, “खुली हवा में एक घंटे खेले क्या?” ऐसे प्रश्न पूछने वाले पालकगण शायद ही कोई हों।
जिस प्रकार जर्सी गाय दूध देने वाला यंत्र मानी जाती है उसी प्रकार बच्चे परीक्षा में अंक प्राप्त करने वाला रोबोट है, ऐसी धारणा पालकों की हो चली है। स्वयं में एक भी गुण न होने पर भी परीक्षा में बच्चे द्वारा सौ प्रतिशत अंक प्राप्त होने चाहिए ये है आज के पालकों का आग्रह! सुदृढ़, सुंदर, निरोगी स्वास्थ्य भी एक अनमोल खजाना होता है। ये खजाना संभाल कर रखना हमारा कर्तव्य है। आपाधापी के जीवन का सामना करने के लिये मन के साथ-साथ शारीरिक बाहुबल की भी आवश्यकता है।
अब “हम दो, हमारे दो” का जमाना भी पीछे छूट गया है। अब तो “हम दो, हमारा एक” ऐसी मनःस्थिति में माँ-बाप पहुँच गये है। पति-पत्नी दोनों ही सेवारत होने से बच्चों के लिये समय नहीं दे पा रहे हैं ऐसी आपराधिक भावना भी पनप रही है। इस भावना के कारण बच्चे को अनावश्यक लाड़-प्यार दिया जाता है। उनके लिए अतिसुरक्षा कवच फैलाते हैं। बच्चे केवल अध्ययन ही कर अति उत्तम मार्क्स प्राप्त करें, यही अपेक्षा रहती है पालकों की!
बच्चों को गृहकार्य में सहायता करनी चाहिए। पालकों को भी बच्चों के लिये, कुछ कार्य करने हेतु, बचाकर रखना चाहिये। ‘स्वावलम्बन’ की शिक्षा भी शाला में अध्ययन के समान ही महत्वपूर्ण है। आचार्य विनोबा भावे ने एक सुंदर विचार व्यक्त किया है, “सोलह वर्ष की आयु तक स्वावलम्बन की शिक्षा और सोलह वर्ष की आयु पश्चात स्वावलंबन से शिक्षा!” इस वाक्य पर अवश्य विचार करें!
मेरे एक डॉक्टर मित्र ने एक प्रतिष्ठित शाला के बच्चों द्वारा लाए गये भोजन डिब्बे ‘टिफिन’ का अध्ययन किया। परिणाम आश्चर्यजनक पाए गए। लगभग सभी बच्चों द्वारा लाये हुए ‘टिफिन’ में अंकल चिप्स, सेव-चिवडा मिक्स्चर, कॅडबरी, केक आदि बाजार से क्रय किए पदार्थ ही थे।
दूरदर्शन के माध्यम से विज्ञापनों की बौछार निरंतर चलती है। उसमें विज्ञापित किये जाने वाले पदार्थ प्रत्येक घर में दिखाई देते हैं। इन खाद्य पदार्थों में कोई भी जीवन सत्त्व नहीं होता है। ऐसे सत्त्वहीन खाद्य पदार्थ खाकर बच्चों का स्वास्थ्य कैसे ठीक रह सकता है?
झूठी प्रतिष्ठा और अंध प्रेम के चलते माता-पिता अपने बच्चों का स्वास्थ्य बिगाड़ने के लिये स्वयं कारणीभूत हैं, ये बात उनकी समझ में क्यों नहीं आती?
‘मातृहस्ते भोजनम्’ का आशीर्वाद श्रीकृष्ण द्वारा मांगा गया। “मुझे अंत तक मां के हाथ का अन्न प्राप्त हो” यह साक्षात् भगवंत द्वारा की गई प्रार्थना फलीभूत हुई! मां के हाथ का अन्न खाने से अन्न के साथ वात्सल्य, प्रेम की प्राप्ति होती है और वह ‘स्वास्थ्यवर्धक’ होता है। आज का ‘जंकपूफड’ पालकों द्वारा बच्चों को खिलाना, अर्थात् अपने ही बच्चों को पूतना के समान जहरीला दूध पिलाना है। यह कब बंद होगा?
“वाचाल त वाचाल” (मराठी), अर्थात् ‘पढ़ोगे तो बचोगे’, ये वाक्य अनेक स्थानों पर; विशेषकर महाराष्ट्र में लिखा पाया जाता है। परन्तु कितने लोग पढ़ते हैं यह प्रश्न अनुत्तरित है। बच्चे शाला के अतिररिक्त वाचन नहीं करते, ये शिकायत सर्वत्रा है। परन्तु बच्चों को वाचन करना चाहिए ऐसा पालक समझते हों तो उन्हें बचपन से वाचन की आदत डालनी चाहिए। केवल ‘पढ़ो’ कहकर काम नहीं बनने वाला। इस हेतु कष्ट उठाने पड़ते हैं। कुशलता से, विविध प्रकार से, उन्हें आदत डालनी चाहिए। घर पर प्रतिदिन एक समाचार पत्र मंगाने की व्यवस्था करें। शुरू में बच्चे उस पत्र को देखेंगे, फिर धीरे-धीरे उसके पन्ने पलटने लगेंगे, फिर कुछ दिन पश्चात् उसे पढ़ने लगेंगे! इस कार्य में पालकों को धैर्य रखना आवश्यक है।
प्रत्येक माह बच्चों के लिए पत्रिका या कहानियों की पुस्तक क्रय करें। बच्चों को पुस्तक प्रदर्शनी या पुस्तकों की दुकान में साथ ले जाएं। पुस्तकों के प्रति रुचि यदि बच्चों में निर्मित की जाए तो बच्चों के लिए किया यह एक महत्वपूर्ण कार्य होगा। दूरदर्शन पर बच्चे अनेक कार्यक्रम देखते हैं। परन्तु समाचारों के समय वे अन्यत्र चले जाते हैं। समाचार सुनने वाले बालक अत्यंत कम होते हैं।
समाचार सुनने से ज्ञानवृद्धि होती है, भाषा समृद्ध होती है। ज्ञान का माध्यम यदि बच्चे अपनाने को उद्यत हो जाए तो अति उत्तम। यदि नहीं अपनाते हों तो पालकों को इस हेतु प्रयास करने की आवश्यकता है।
ऐसी विविध, छोटी-छोटी बातें इकट्ठी मिलकर ही एक सम्पन्न, विशाल, समृद्ध व्यक्तित्व निर्माण होगा!
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)
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