– वासुदेव प्रजापति
अब तक हमने समग्र विकास प्रतिमान के प्रथम भाग में पंचकोशात्मक विकास को समझा है। आज से हम दूसरा भाग परमेष्ठीगत विकास को समझेंगे। इस दूसरे भाग में हम मुख्य रूप से चार संज्ञाओं का अर्थ व उनका विकास कैसे होता है? इसे जानेंगे। ये चार संज्ञाऍं हैं – व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्ठी। व्यष्टि अर्थात् व्यक्ति, समष्टि अर्थात् सम्पूर्ण मानव समुदाय, सृष्टि अर्थात् सम्पूर्ण जगत तथा परमेष्ठी अर्थात् परमात्मा। व्यक्ति जब इन तीनों के साथ सामंजस्यपूर्ण व्यवहार करते हुए जीवन जीता है, तभी उसका जीना सुखमय और सार्थक होता है।
अब हम इन चारों संज्ञाओं के परस्पर सम्बन्धों को समझेंगे। पहली संज्ञा व्यष्टि को समझने से पूर्व एक शिष्य की जिज्ञासा को जानेंगे।
सर्वश्रेष्ठ कौन?
इस जिज्ञासा में गुरु हैं महर्षि पिप्पलाद और शिष्य हैं ऋषि भार्गव। गुरु और शिष्य के मध्य ज्ञान चर्चा हो रही है। शिष्य अपनी जिज्ञासा गुरु के समक्ष रखता है और गुरु उसकी जिज्ञासा के प्रत्युत्तर में गूढ़ ज्ञान की बात बतलाते हैं, जिससे शिष्य का समाधान हो जाता है। इसी क्रम में ऋषि भार्गव गुरु पिप्पलाद के समक्ष अपनी तीन जिज्ञासाऍं रखते हैं।
पहली जिज्ञासा – प्राणियों के शरीर को धारण करने वाले कुल कितने देवता हैं? दूसरी जिज्ञासा – उनमें से कौन-कौन इसको प्रकाशित करने वाले हैं? और तीसरी जिज्ञासा – इन सबमें अत्यन्त श्रेष्ठ कौन हैं? गुरु पिप्पलाद शिष्य भार्गव की तीनों जिज्ञासाएं सुनकर प्रथम दो जिज्ञासाओं का मर्म समझाते हुए, यह ज्ञान की बात बतलाते हैं –
देखो भार्गव! वैसे सबका आधार तो आकाश रूप देवता ही है। परन्तु उससे उत्पन्न होने वाले वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये चारों महाभूत भी शरीर को धारण किए रहते हैं। यह स्थूल शरीर इन्हीं से बना है, इसलिए ये धारक देवता हैं। वाणी आदि पांच कर्मेन्द्रियां तथा नेत्र आदि पांच ज्ञानेन्द्रियां एवं मन आदि चार अन्त:करण, ये चौदह देवता इस शरीर के प्रकाशक हैं। ये देवता देह को धारण करते हैं और उसको प्रकाशित भी करते हैं। इसलिए ये चौदह देवता धारक व प्रकाशक देवता कहलाते हैं।
अब सुनों तीसरी जिज्ञासा का उत्तर – इन सबमें अत्यन्त श्रेष्ठ कौन हैं? इसका समाधान सुनो। ये चौदह प्रकाशक देवता इस देह को प्रकाशित करके आपस में झगड़ पड़े और अभिमान पूर्वक एक-दूसरे को कहने लगे कि हमने इस शरीर को आश्रय देकर धारण कर रखा है। इस प्रकार जब सभी महाभूत, इन्द्रियां और अन्त:करण रूप देवता परस्पर विवाद करने लगे, तब प्राण ने उनसे कहा – तुम लोग अज्ञानवश आपस में विवाद मत करो। तुममें से किसी में भी इस शरीर को धारण करने या सुरक्षित रखने की शक्ति नहीं है। इस शरीर को तो मैंने ही स्वयं को पांचों भागों में ( प्राण, अपान, समान, ध्यान और उदानरूप) विभक्त करके आश्रय देते हुए धारण कर रखा है और मुझसे ही यह देह सुरक्षित है।
प्राण की यह बात सुनकर भी उन देवताओं ने विश्वास नहीं किया, वे अविश्वासी ही बने रहे। तब उनको अपना प्रभाव दिखलाकर सावधान करने के लिए प्राण ने एक युक्ति का प्रयोग किया। प्राण के अभिमान को ठेस लगने से मानों वह रूठ गया और इस शरीर को छोड़कर जाने के लिए ज्यों ही ऊपर की ओर उठने लगा, त्यों ही सबके सब देवता विवश होकर उसके साथ ही बाहर निकलने लगे, कोई भी ठहर नहीं सका। जब प्राण रुका, तभी वे देवता भी रुक सके। जैसे मधुमक्खियों का राजा जब अपने स्थान से उड़ता है, तब उसके साथ ही वहाँ बैठी अन्य सभी मधुमक्खियाँ भी उड़ जाती हैं और राजा के बैठते ही अन्य सब भी बैठ जाती हैं। ऐसी ही दशा इन सब वागादि देवताओं की भी हुई। यह देखकर वाणी, चक्षु, श्रोत्र आदि सब इन्द्रियों को और मन आदि अन्त:करण की वृत्तियों को यह विश्वास हो गया कि हम सबमें प्राण ही सर्वश्रेष्ठ है, अतः वे सब प्रसन्नतापूर्वक सर्वश्रेष्ठ प्राण की स्तुति करने लगे।
व्यष्टिगत विकास का अर्थ
व्यष्टि का अर्थ है, व्यक्ति। व्यक्ति का जीवन उसके जन्म के साथ शुरू होता है और मृत्यु पर्यन्त रहता है। उसका पंचकोशात्मक व्यक्तित्व समय के साथ विकसित होता रहता है। उसकी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों का विकास होता है, फिर मन, बुद्धि और चित्त का विकास होता है। इन सभी साधनों की अपनी-अपनी आवश्यकताएँ होती हैं, अपनी-अपनी क्षमताएँ होती हैं, इनकी अपनी विकास की पद्धति होती है। मनुष्य अपने विकसित व्यक्तित्व के द्वारा जीवन की सम्पूर्ण गतिविधियों को पूर्ण करता है। यह व्यक्ति का व्यक्तिगत विकास कहलाता है। व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास को हमने पंचकोशात्मक विकास के अन्तर्गत भली-भाँति समझा है।
शिक्षा द्वारा व्यक्तिगत विकास
मनुष्य व्यक्तिगत स्तर पर अपना विकास करें, अपनी क्षमताएँ बढ़ाए, अपनी इच्छाओं व आवश्यकताओं को पूरा करे, ये सब करने के लिए उसे अपना सामर्थ्य जुटाना आवश्यक है। व्यक्तिगत रूप से शरीर स्वस्थ, सुन्दर व बलवान हो। प्राण बलवान एवं संतुलित हों। मन शांत, एकाग्र और अनासक्त हों। बुद्धि तेजस्वी, कुशाग्र व विवेकपूर्ण हों। चित्त शुद्ध एवं आनन्ददायक हों। व्यक्ति को यह सब करने का हर सम्भव प्रयास करना चाहिए। शिक्षा यह सब कर सके, ऐसी योजना बनानी चाहिए। ये सब ध्यान में रखकर ही पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम, पाठ्य-पुस्तकें एवं पाठन पद्धति निर्धारित होनी चाहिए। व्यक्ति स्वतंत्र, स्वावलम्बी, बुद्धिमान, गुणवान, पराक्रमी तथा कुशल बनें यह लक्ष्य एकमात्र उसका स्वयं का नहीं अपितु उसके परिवार का, समाज का व शासन का अर्थात् सबका होना चाहिए। क्योंकि व्यक्ति को केवल अपने लिए नहीं अपितु परिवार, समाज व देश के लिए भी जीना है।
व्यक्ति का सम्बन्ध सबसे है
व्यक्ति कितना भी सामर्थ्यवान हों, वह अकेला रहकर जीवन नहीं जी सकता, उसे दूसरों पर निर्भर रहना ही पड़ता है। वह अकेला रहना चाहे तब भी रह नहीं सकता, अकेले रहना उसे अच्छा नहीं लगता। व्यक्ति के लिए अकेला रहना संभव ही नहीं है। इसका मूल कारण यह है कि वह किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण सृष्टि के साथ जुड़ा हुआ है। व्यक्ति का शरीर पंचमहाभूत से बना हुआ है। सृष्टि के सभी निर्जीव पदार्थ भी पंचमहाभूत से ही बने हैं, इस आधार पर वह सभी निर्जीव पदार्थों के साथ जुड़ा हुआ है। व्यक्ति प्राणमय कोश के स्तर पर सभी जीवित प्राणियों व वनस्पति के साथ जुड़ा हुआ है। मनुष्य होने के नाते दुनिया के सभी मनुष्यों के साथ वह जुड़ा हुआ है। इस मूलभूत कारण से अकेले रहना न संभव है और न आनन्ददायक ही है।
सबके साथ जुड़े रहकर ही व्यक्ति सुखी जीवन जी सकता है। सबके साथ रहकर जीने के जो सोपान बनते हैं, उनमें पहला है, समष्टि। आगे हम समष्टि सोपान को समझेंगे।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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