– वासुदेव प्रजापति
आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्
आज हम इस कथा को पूर्ण करते हैं। अब तक हमने इस कथा में जाना कि महर्षि वरुण के पास उनका पुत्र भृगु ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए आता है और पिता से निवेदन करता है। पिता वरुण पुत्र भृगु का निवेदन सुनकर उसे ब्रह्म ज्ञान का उपदेश देने के स्थान पर उसे समझाते हैं कि तू तप कर, क्योंकि तप ही वह मार्ग है, जिससे ब्रह्म को जाना जा सकता है।
भृगु पिता का आदेश मानकर तप करने लग जाता है। तप करने पर उसे अनुभव होता है कि अन्न ही ब्रह्म है। सब कुछ अन्न से ही उत्पन्न होता है और अन्न में ही समा जाता है। पिता के द्वारा बताए हुए ब्रह्म के सभी लक्षण उसे अन्न में घटित होते प्रतीत होते हैं। इसलिए वह अन्न ही ब्रह्म है, यह निश्चय करता है। परन्तु उसके मन में संशय होता है, वह पुनः पिता वरुण के पास आता है और उन्हें अपना निश्चय बतलाता है। पिता उसका निश्चय सुनते हैं परन्तु कोई उत्तर नहीं देते। वे सोचते हैं कि इसने अभी ब्रह्म के स्थूल रूप को ही समझा है, वास्तविक रूप तक अभी इसकी बुद्धि नहीं गई है। अतः इसे अभी और तपस्या करनी चाहिए। पिता से अपनी बात का समर्थन न पाकर भृगु ने पुनः प्रार्थना की – भगवन्! यदि मैंने ठीक से नहीं समझा हो तो आप मुझे ब्रह्म का तत्त्व समझाइये। तब वरुण ने कहा – तू तप के द्वारा ब्रह्म के तत्त्व को समझने की कोशिश कर, यह तप ब्रह्म का ही स्वरूप है।
इस प्रकार पिता की आज्ञा पाकर भृगु ने ब्रह्मचर्य और इन्द्रिय नियंन्त्रण रखते हुए मन का संयम (शम-दम) आदि नियमों का पालन करते हुए तथा समस्त भोगों के त्याग पूर्वक संयम से रहते हुए तप में लीन हो गया। अब उसे प्राण ही ब्रह्म है, यह ज्ञान हुआ। वह फिर पिता के पास आया, पिता ने फिर तप करने को कहा। उसने फिर तप किया, तब उसे ज्ञान हुआ कि मन ही ब्रह्म है। इस प्रकार पिता उसे हर बार तप करने को कहते। प्रत्येक बार उसे नया ज्ञान होता। उसे ज्ञान हुआ कि बुद्धि ही ब्रह्म है। फिर तप किया तब ज्ञान हुआ कि चित्त ही ब्रह्म है। तप करते-करते अन्त में भृगु को यथार्थ ज्ञान प्राप्त हुआ और उसने परब्रह्म परमात्मा को जान लिया। यही वरुण द्वारा बताई हुई और भृगु को प्राप्त हुई ब्रह्मविद्या (ब्रह्म का रहस्य बताने वाली विद्या) है।
जो कोई व्यक्ति ऋषि भृगु की भांति तपस्या करके परमानन्द स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को जान लेता है, वह भी उन विशुद्ध परमात्मा में स्थित हो जाता है। ऐसे ज्ञानी पुरुष के शरीर और अन्त:करण में विलक्षण शक्तियां उत्पन्न हो जाती हैं। अर्थात् उसके मन, इन्द्रियां और शरीर सर्वथा निर्विकार और निरोग हो जाते हैं। इतना ही नहीं वह संतान से, पशुओं से, ब्रह्म तेज से और बड़ी भारी कीर्ति से समृद्ध होकर जगत में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है।
आनन्दमय कोश का अर्थ
आनन्दमय कोश सभी कोशों से अधिक सूक्ष्म, अधिक व्यापक, अधिक तरल तथा अधिक स्वच्छ है। इसे चित्त कहते हैं। आत्मतत्व ने जब स्वयं को विविध रूपों में प्रकट किया, तब उसने सर्वप्रथम चित्त का रूप धरा। यह चित्त आत्मतत्त्व के सर्वाधिक निकट है, इसलिए इसे आत्मिक स्तर भी कहते हैं। योगशास्त्र में इसको शबल ब्रह्म कहा है। शुद्ध आत्मतत्त्व इससे भी परे है।
चित्त का स्वभाव
चित्त का स्वभाव आनन्द का, प्रेम का, सौन्दर्य का, अभय का, स्वतंत्रता का और सहजता का है। किन्तु आनन्द का अर्थ लौकिक सुख या हर्ष नहीं है। सुख या हर्ष तो मन के विषय हैं, जिनके साथ दुख या शोक जुड़े हुए हैं और इन सबके मूल में आसक्ति है। अतः आनन्दमय कोश का आनन्द तो सुख-दुख से निरपेक्ष है।
प्रेम भी आनन्द की भांति आसक्ति या लगाव नहीं है, ये भी मन के विषय हैं। प्रेम इनसे निरपेक्ष है। सबसे अहेतुक प्रेम, प्राणी मात्र से प्रेम यह चित्त का स्वभाव है।
इसी प्रकार सौन्दर्य भी रूपवान या कुरूप नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि में सौन्दर्य दृष्टि रखना अर्थात् रूपवान या कुरूप से परे की दृष्टि चित्त का सौन्दर्य है।
चित्त में किसी भी प्रकार का भय नहीं, न भूख-प्यास का भय और न मरने का भय। जिसे जीवन का मोह नहीं वहां भय नहीं। सदा-सर्वदा अभय की स्थिति में रहना चित्त का स्वभाव है।
आनन्दमय कोश में कामना-वासना, लोभ-मोहादि किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं है, इसलिए इसमें स्वतंत्रता ही स्वतंत्रता है। यहाँ स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता या स्व के अनुसार विहार नहीं है, अपितु सभी प्रकार के बन्धनों का व सभी प्रकार की दासता का अभाव है।
इन सबके परिणाम स्वरूप अपना सहज स्वभाव यह आनन्दमय कोश की स्थिति है। अर्थात् सुख व दुख दोनों में आनन्द, शत्रु और मित्र दोनों से प्रेम, रूपवान या कुरूप दोनों में सौन्दर्य बोध, गरीबी या वैभव दोनों में स्वतंत्रता और सब प्रकार की स्थिति में अभय रहते हुए सहज अवस्था में रहना, यह आनन्दमय कोश का स्वभाव है।
आनन्दमय कोश का विकास
आनन्दमय कोश का विकास करना अर्थात् चित्त का विकास करना। चित्त में ही आत्मतत्त्व रहता है। चित्त आत्मतत्त्व के प्रकाश से प्रकाशित है। मनुष्य के व्यक्तित्व की यह सबसे प्रगत अवस्था है। आनन्दमय कोश के विकास के आयाम दो हैं।
- चित्त की शुद्धि
चित्त पर सब प्रकार के संस्कार होते हैं, ये संस्कार ज्ञानज, कर्मज व भावज रूप में होते हैं। इसी तरह चित्त पर पूर्वजन्म के संस्कार और आनुवंशिक संस्कार भी होते हैं। चित्त को इन सभी संस्कारों से मुक्त करना ही चित्त शुद्धि कहलाती है। चित्त जब शुद्ध होता है तब वह साफ दर्पण के समान होता है, जिसमें आत्मतत्त्व स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता है। इसके विपरीत जब वह सब प्रकार के संस्कारों से ढ़का हुआ रहता है, तब उसमें आत्मतत्त्व का प्रतिबिम्ब धुंधला दिखाई देता है। यदि इन संस्कारों की परत दर परत जमी हुई होती है तो मलिन दर्पण के समान इस चित्त में भी आत्मतत्त्व बिल्कुल भी दिखलाई नहीं देता। अतः मलिन चित्त की शुद्धि अति आवश्यक है।
- चित्त की सहजावस्था
जब चित्त की शुद्धि होती है तब वह अपने मूल स्वरूप में आ जाता है। उस स्थिति में वह प्रेमस्वरूप, आनन्दस्वरूप, सौन्दर्यबोध वाला, अभय, स्वतंत्र और सहज होता है। तब सृजनशीलता विकसित होती है, संगीत, कला, काव्य, दर्शन एवं अन्त: प्रज्ञा इसी आनन्दमय कोश में उत्पन्न होती हैं और ब्रह्मानन्द सहोदर आनन्द प्रदान करती है। इसी स्थिति में हम स्व स्वरूप में स्थित होते हैं।
आनन्दमय कोश के विकास के तत्त्व
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पूर्व कोशों का विकास
अन्नमय कोश से लेकर विज्ञान मय तक के चारों कोशों का सम्यक विकास होने से आनन्दमय कोश के विकास का मार्ग सरल हो जाता है। इसलिए पूर्व के चारों कोशों का विकास ध्यानपूर्वक करना चाहिए।
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त्याग और सेवा
स्वार्थ त्याग की वृत्ति और सेवा भाव से जब सेवा कार्य किए जाते हैं तब चित्त शुद्धि होती है।
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समाधि
जब ध्यान परिपक्व होता है तब समाधि की अवस्था आती है। समाधि लगने पर भी चित्त की शुद्धि होती है।
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प्रेम व भक्ति
प्राणी मात्र से निरपेक्ष प्रेम व प्रभु भक्ति से भी चित्त शुद्धि होती है।
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शुद्ध आहार
हमारे शास्त्रों में लिखा है कि आहार शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है।
पंचकोश विकास का समन्वित स्वरूप
हमारे व्यक्तित्व के ये पांचों कोश अलग-अलग नहीं हैं, परस्पर जुड़े हुए हैं। ये एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। इनके विकास के अनेक आयाम और कारक तत्त्व भी समान हैं। जैसे आहार ऐसा कारक तत्त्व है जो सभी कोशों का विकास करता है। योग भी ऐसा ही तत्त्व है जिसका सम्बन्ध सभी कोशों के साथ है। अर्थात् व्यक्तित्व एक और अखण्ड है, उसके विकास के सोपान और प्रक्रिया समझने के लिए उसके अलग-अलग पांच भाग किए गए हैं।
व्यक्ति अलग-अलग समय में अलग-अलग कोशों में जीता है। सामान्यतया व्यक्ति मनोमय कोश में जीता है। तब राग-द्वेष, सुख-दुख आदि उसे प्रभावित करते हैं, इच्छा, कामना, चाह आदि उसे प्रेरित करती हैं और इच्छा पूर्ति के लिए ही वह पुरुषार्थ करता है। उस समय वह बुद्धि का कहा नहीं मानता, मन का कहा करता है। वह मनोमय स्तर से नीचे प्राणमय स्तर पर उतर आता है और प्राणमय से नीचे अन्नमय स्तर पर भी उतर आता है। मनोमय स्तर से प्राणमय और अन्नमय स्तर पर नीचे उतर आना तो सरल है किन्तु मनोमय स्तर से विज्ञानमय और आनन्दमय स्तर पर ऊपर उठना बड़ा कठिन है। ऊपर उठना साधना का विषय है, साधना करके हम भी भृगु के समान विज्ञानमय और आनन्दमय स्तर तक ऊपर उठ सकते हैं। शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्ति को मनोमय कोश से ऊपर उठाकर मनुष्य बनाना है।
व्यक्तित्व जड़ है
अज्ञान के कारण हम प्राण को आत्मा मानते हैं। प्राण को जीव भी कहते हैं, और जीव को जीवात्मा समझते हैं। परन्तु प्राण जीवात्मा या आत्मा नहीं है, प्राण तो जीवनी शक्ति है। इसी प्रकार हम प्राण, मन, बुद्धि व चित्त को चेतन मानते हैं, और पत्थर-प्लास्टिक आदि को जड़ मानते हैं। परन्तु अन्नमय से लेकर आनन्दमय कोश तक का सारा विस्तार जड़ है। प्रकृति जड़ है और यह प्रकृति का ही विस्तार है, जो स्वभाव से ही जड़ है। पुरुष के रूप में ही व्यक्तित्व में चेतन तत्त्व है। शुद्ध आत्मतत्त्व तो जड़ और चेतन दोनों से परे है।
स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर
सम्पूर्ण व्यक्तित्व के दो भाग हैं – एक स्थूल शरीर व दूसरा सूक्ष्म शरीर। अन्नमय कोश स्थूल शरीर है जबकि प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश मिलकर सूक्ष्म शरीर बनते हैं। मृत्यु होने पर ये दोनों शरीर अलग-अलग हो जाते हैं। स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का अलग-अलग होना ही मृत्यु कहलाता है। स्थूल शरीर जो अब शव में बदल गया है, उसका हम अग्नि संस्कार कर देते हैं। अग्नि संस्कार में स्थूल शरीर पंचतत्त्वों में विलीन हो जाता है। दूसरी ओर सूक्ष्म शरीर नये स्थूल शरीर से संयोग कर लेता है। सूक्ष्म शरीर का नये स्थूल शरीर को धारण करना ही पुनर्जन्म कहलाता है। भारतीय मनोविज्ञान में व्यक्तित्व का यह स्वरूप वर्णित है, इसको आधार मानकर ही व्यक्तित्व विकास की संकल्पना की गई है।
मैं चित्त भी नहीं हूँ
आनन्दमय कोश अर्थात् चित्त की स्थिति शरीर, प्राण, मन और बुद्धि के स्तरों से उच्च व श्रेष्ठ है। जब हम अपने आपको चित्त मानते हैं, तब आनन्दमय कोश में जी रहे होते हैं। इस स्थिति में हमारा व्यवहार सबके लिए कल्याणकारी होता है और स्वयं के लिए मोक्ष प्रदान कराने वाला होता है। हमारे शास्त्रों ने व्यक्ति जीवन की सार्थकता ‘आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च’ बताया है। इतने उच्च स्तर पर होने के बाद भी यह सत्य है कि हम चित्त नहीं हैं। क्योंकि चित्त तो जड़ है जबकि हम तो चेतन हैं।
फिर मैं कौन हूँ? इसका उत्तर जैसे भृगु ने तपस्या करके जाना कि मैं परमानन्द स्वरूप परमात्मा ही हूँ। और यह जानकर वह भी विशुद्ध परब्रह्म में स्थित हो गया। वैसे ही हम भी उस मैं का रहस्य जानें कि न मैं शरीर हूँ, न प्राण हूँ न मन हूँ, न बुद्धि हूँ और न चित्त ही हूँ, मैं स्वयं ब्रह्म हूँ। यह जान लेने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। श्रुति भी ब्रह्मज्ञान में यही कहती है – ‘अहं ब्रह्मास्मि।’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूँ।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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