– वासुदेव प्रजापति
व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता। उसका जीवन जिन पर निर्भर है, उन सबके साथ वह तालमेल बिठाकर रहता है। व्यक्ति का जीवन समष्टि पर निर्भर है, और समष्टि का अर्थ है सम्पूर्ण मानव समुदाय। सम्पूर्ण मानव समुदाय बहुत बड़ी इकाई है। इस बड़ी इकाई को ठीक से समझने के लिए इसके चार भाग किए गए हैं – परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व। व्यक्ति का जीवन इन चारों पर निर्भर है, बिना इनके उसका जीवन चल नहीं सकता। अतः आज हम समष्टि की प्रथम इकाई परिवार के साथ व्यक्ति के सम्बन्धों को समझेंगे।
व्यक्ति और परिवार के सम्बन्धों को समझने से पूर्व इस कथा के मर्म को समझने का प्रयास करें।
परिवार ही तेरा परमात्मा है
एक युवक घर-गृहस्थी से दुखी होकर, अपने परिवार को छोड़कर एक महात्मा के पास गया और उनसे बोला- मैं अपना परिवार छोड़कर आया हूँ, और फिर से मोह-माया के बन्धन में फँसना नहीं चाहता। मैं परमात्मा को पाना चाहता हूँ। कृपया आप मुझे मार्गदर्शन दें। उस युवक की बात सुनकर महात्मा अत्यधिक क्रोधित हुए और उससे कहने लगे – मूर्ख! परमात्मा तो तेरे घर में बैठे हैं, जिन्हें तू छोड़कर यहाँ आया है। अरे! तेरा परिवार ही तेरा परमात्मा है। जब तक तू उनकी सेवा नहीं करेगा, तब तक तेरा कल्याण नहीं हो सकता। इसलिए जा पहले अपने परिवार को सम्हाल। उसके प्रति तेरे जो कर्तव्य हैं, उन्हें पूरा कर।
उसे और समझाते हुए कहा – देख! तू तो भगोड़ों की भांति परिवार के कर्तव्यों से डर कर भाग आया है। अध्यात्म भगोड़ों की नहीं, शूरवीरों की मदद करता है। परिवार में रहकर अपने कर्तव्य पूरे करते हुए भी तू अपनी साधना पूरी कर सकता है। तुझे यदि त्याग ही करना है तो पहले अपने भीतर के विकारों का त्याग कर। तुझमें जो बुरे विचार घर कर गए हैं, उनका त्याग कर। अपने परिवार का त्याग करना तो अपने कर्तव्यों से भागना है। जो व्यक्ति अपने कर्तव्यों से भागता है, उसे कभी भी परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती।
महात्माजी के इस प्रकार समझाने से उसे परिवार का महत्त्व समझ में आया और वह अपने घर लौट गया। अब वह समझ गया था कि परिवार से मुख मोड़ना तो जीवन से पलायन करना है। मैं परिवार में रहकर ही ईश्वर को प्राप्त करूँगा।
परिवार से हमारा अटूट सम्बन्ध है
बालक जन्म पूर्व से ही परिवार में रहता है। माता की कोख से जन्म लेकर वह इस दुनिया में आता है और माता की गोद में रहता है अर्थात् उसके आश्रय में पलता है। इसलिए उसका पहला सम्बन्ध माता से है। माता और पिता दोनों के व्यक्तित्व से उसका जन्म हुआ है, इसलिए उसका दूसरा सम्बन्ध पिता से है। यह सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ है, क्योंकि बालक सच में माता-पिता का ही प्रतिरूप है। इस अर्थ में वह उसकी कुल परम्परा की अगली कड़ी है। अब वह भी कुल का और इस परिवार का एक अभिन्न अंग है।
परिवार रक्तसम्बन्धों से बनता है
बालक के माता-पिता हैं, उनके अन्य पुत्र-पुत्रियाँ भी हैं वे इसके भाई-बहन हैं। माता-पिता के अन्य सम्बन्धी भी अब उसके दादा-दादी, नाना-नानी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसा-मौसी हैं। अर्थात् वह एक बहुत बड़े समुदाय के साथ प्रत्यक्ष रूप से जुड़ गया है। यह जुड़ाव रक्तसम्बन्धों का है। जब वह बड़ा होता है तो उसका भी विवाह होता है, तब उसका सम्बन्ध दूसरे कुल से जुड़ता है। अब उसकी भी पत्नी है, पति-पत्नी मिलकर एक दम्पति बनते हैं। उनके भी संतानें होती हैं और इस प्रकार कुल परम्परा आगे बढ़ती है। इस कुल परम्परा से बनने वाला समुदाय परिवार कहलाता है, इसे कुटुम्ब भी कहते हैं। प्रत्येक कुटुम्ब का एक गौत्र होता है। हमारे यहाँ परिवार या कुटुम्ब नामक जो विशिष्ट इकाई है, इसका मूल रक्त सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध अन्नमय कोश से आरम्भ होकर आनन्दमय कोश तक पहुँचता है।
परिवार प्रथम पाठशाला है
जन्म से एक मानव शिशु स्वयं कुछ नहीं कर पाता, वह पूर्ण रूप से अपने परिवार पर निर्भर रहता है। परिवार के सभी लोग उसका लालन-पालन करते हैं। वह परिवार में रहते हुए धीरे-धीरे अनुकरण से, अनुभव से और अभ्यास से सब बातें सीखता है। शिशु को सिखाने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका माता की रहती है। इसलिए माता को शिशु की प्रथम गुरु और परिवार को प्रथम पाठशाला माना गया है।
परिवार में सभी लोग शिशु के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं, उसे अपना आत्मीय मानते हैं। ऐसे स्नेह व आत्मीयतापूर्ण पारिवारिक वातावरण में पलकर वह शिशु भी परिवार के अन्य लोगों का विचार करना, उनके लिए कष्ट सहना, उनके लिए त्याग करना, उनकी सेवा करना जैसे संस्कार पाता है। उसकी प्रथम गुरु माता स्वयं प्रेम, त्याग, सेवा और कष्ट सहने की साक्षात प्रतिमा है, परिणाम स्वरूप वह स्वयं इन गुणों को अपनी माँ से संस्कार रूप में ग्रहण करता है। परिवार के अन्य लोग भी उसके साथ इसी प्रकार का भाव रखते हैं और वैसा ही व्यवहार करते हैं। वह परिवार के लोगों से स्नेह, प्रेम, त्याग व सेवा पाता है तो स्वयं भी ये सब उन्हें देता है। इस प्रकार वह लेने के साथ देना भी सीखता है। फलत: स्नेह, प्रेम, त्याग, सेवा, सुश्रूषा और सुरक्षा के गुण स्वाभाविक रूप से उसके चरित्र निर्माण के आधार बनते हैं। इस प्रकार परिवार उसकी पाठशाला बन जाता है।
परिवारगत विकास के आयाम
एक शिशु परिवार में रहते हुए धीरे-धीरे अपना विकास करता है। वह बड़ा होता है, सब प्रकार की योग्यता व क्षमता अर्जित करता है। परिवार उसकी प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करता है। ऐसे परिवार को जानना, परिवारभाव को समझना, परिवार के कार्यों को सीखना और कुल परम्परा को आगे बढ़ाना ही परिवारगत विकास कहलाता है।
परिवार का परिचय
परिवार का एक सदस्य होने के नाते अपने परिवार को पहचानना, परिवार के सम्बन्धों का अर्थ जानना, परिवार के लोगों के स्वभाव से परिचित होना उसके लिए आवश्यक हो जाता है। सबके प्रति यथायोग्य स्नेह एवं आदर की भावना का विकास परिवार में ही होता है। परिवार के लोगों की सेवा करने की आवश्यकता पड़ती है, अतः सेवा करने का अभ्यास व कुशलता उसमें होनी चाहिए, जो परिवार में ही सीखा व सिखाया जाता है। परिवार के छोटे व बड़े सब लोगों के साथ यथायोग्य वार्तालाप करने के लिए शिष्ट भाषा का प्रयोग करना भी परिवार में ही सीखा जाता है।
परिवार की व्यवस्था
परिवार का मूर्त रूप घर है और घर का स्थूल रूप भवन है। उस भवन में परिवार के निवास की, भोजन-पानी की, पढ़ने-लिखने की, शयन की और मनोरंजन आदि की सभी व्यवस्थाएं होती हैं। ऐसे भवन को स्वच्छ रखना, सजाकर रखना, उसे सभी सुविधाओं से युक्त बनाना आदि कार्य उस घर में रहने वाले सभी लोगों का दायित्व होता है। घर की इन सभी व्यवस्थाओं की आवश्यकता और उनका महत्त्व जानना और उन्हें करना सबको आना चाहिए।
परिवार का संस्कारक्षम वातावरण
घर सबके रहने का स्थान है, लालन-पालन का स्थान है, संस्कारों का स्थान है, घर स्नेह-प्रेम व आत्मीयता पाने का स्थान भी है। इसलिए घर का वातावरण प्रेमपूर्ण, संस्कारक्षम और पवित्र बनाए रखना सबका कर्तव्य है। घर के बड़े लोग छोटे बालक-बालिकाओं के लिए ऐसा वातावरण बनाते हैं। धीरे-धीरे वे बड़े होते हैं और स्वयं भी ऐसा वातावरण बनाए रखने में सहयोग करते हैं। बड़ों का सहयोग करते-करते वे भी सीखते जाते हैं, फिर स्वयं भी ऐसा ही वातावरण निर्माण करने में समर्थ हो जाते हैं।
परिवार के कार्य करना
घर हमें सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्रदान करता है। सब लोगों की शारीरिक व मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। ऐसे घर में अनेक काम होते हैं, जिन्हें घर के लोग ही करते हैं। घर को स्वच्छ रखना, भोजन बनाना, बर्तन माँजना, कपड़े धोना, पूजा करना, अतिथि सत्कार करना, बच्चों को सम्हालना, वृद्धों की सेवा करना और व्यवसाय करना इत्यादि ये सभी परिवार के कार्य हैं। इन कार्यों को सीखना और करना आना चाहिए। परन्तु कुछ लोग मानते हैं कि घर के काम स्त्रियों के लिए हैं। पुरुष वर्ग घर के कामों को करना हेय मानता है। यह मानसिकता दर्शाती है कि उनमें परिवार की समझ ठीक नहीं है। परिवार सबका है सब परिवार के हैं, इसलिए परिवार के सभी कार्य सबको मिलकर ही करने चाहिए। यही भाव परिवारगत विकास का परिचायक है।
कुल परम्परा आगे बढ़ाना
कुल या वंश के मूल में रक्त सम्बन्ध है। जब वंश पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता है तो वंश परम्परा बनती है और उस वंश का इतिहास बनता है। अपने कुल की परम्परा और इतिहास से कुल के लोग प्रेरणा लेते हैं और कुल को उत्तरोत्तर उन्नत बनाते जाते हैं। ऐसे कुल की ख्याति दिग्दिगन्त तक फ़ैल जाती है। ऐसे कुल के अपने आचार, विचार व दृष्टिकोण होते हैं, कुल की लाक्षणिकताएँ व विशेषताएँ भी होती हैं। कुल के देवी-देवता होते हैं, कुल के व्रत, उत्सव तथा त्योहार होते हैं। इन सबके विषय में गौरव का भाव होना, इनको बनाए रखना, इनमें युगानुकूल परिवर्तन करना और समय-समय पर इन्हें परिष्कृत करते रहना परिवारगत विकास के लिए आवश्यक कार्य है।
सार रूप में यदि कहा जाय तो परिवार भावना, परिवार व्यवस्था, परिवार का वातावरण, परिवार की परम्परा आदि सभी बातें परिवारगत विकास के आयाम हैं। हमारे देश में यह परिवार व्यवस्था युगों-युगों से चली आ रही है। किन्तु पाश्चात्य जीवनशैली अपनाने से अब हमारे देश में भी परिवार टूट रहे हैं, बिखर रहे हैं। परिवारों के बिखरने के दुष्परिणाम नई पीढ़ी में स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। अतः इस परिवार व्यवस्था को बनाए रखना और इसे सुदृढ़ बनाना हम सबका दायित्व है। इन दायित्वों को निभाने का अर्थ ही परिवार विकास का द्योतक है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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