– दिलीप वसंत बेतकेकर
परीक्षाएं सम्पन्न हुईं, छुट्टियाँ शुरू हुई कि अनेक स्थानों पर संस्कार कक्षाएं प्रारंभ हो जाती हैं। पालक बड़े उत्साह के साथ अपने बच्चों को ऐसे संस्कार वर्ग में भेजते हैं। सामाजिक उत्तरदायित्व मानने वाले कुछ लोग निष्ठापूर्वक, निरपेक्ष भाव से स्वयं का समय, शक्ति और धन खर्च कर संस्कार कक्षाओं का आयोजन कर उसे यशस्वी रूप से सम्पन्न कराने हेतु प्रयासरत रहते हैं। पालकों का सहभाग इस दृष्टि से कम ही रहता है। अपने बच्चों को इन संस्कार-कक्षाओं से लाभ मिले ऐसा तो पालकगण चाहते हैं, किन्तु हमें भी उस हेतु सक्रिय सहभाग देना चाहिये ऐसा सोचने वाले पालक अपेक्षाकृत कम होते हैं जबकि वास्तव में यह तो पालकों की जिम्मेदारी है।
दूसरी बात, संस्कार एक निरन्तर प्रक्रिया है। छुट्टियों के आठ-दस दिन की अवधि में मिलने वाली सीख जीवन भर के लिये पर्याप्त नहीं होती। संस्कार निरंतर प्राप्त होने चाहिये। अतः ऐसी संस्कार कक्षाएं तो कृत्रिम व्यवस्था है। संस्कार प्रक्रिया में सातत्य रखने के लिये घर प्रमुख संस्कार केन्द्र है। कुछ समय पूर्व तक संयुक्त परिवार पद्धति होने के कारण घर में व्यक्तियों की संख्या अधिक होती थी। सहजीवन का एक महत्वपूर्ण संस्कार अनजाने ही प्राप्त होता था। घर में दादा-दादी का प्रेम, स्नेह, ममता पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होती थी। संध्या समय शुभं करोति, गिनती, स्तोत्रों का उच्चारण, आरती आदि कार्यक्रम होते थे। इनका मन पर गहन प्रभाव पड़ता था। मन संस्कारित होता था। रात्रि में नींद आने हेतु लोरी गीत सुनाए जाते और बड़े बच्चों को दादा-दादी कहानियां सुनाते। विविध पर्व, उत्सव, व्रत आदि संस्कारों से मन तृप्त हो जाता। प्रत्येक घर ही एक संस्कार केन्द्र होता था।
समय चक्र के चलते जीवन शैली में बदलाव आया। सामाजिक, आर्थिक जीवन में अत्यधिक उलट-पलट हुई। आपाधापी और भागदौड़ भरा जीवन शुरू हो गया। अर्थ ही एकमात्र पुरुषार्थ बन गया। घर और जीवन के अर्थ भी बदल गये। घर अर्थात् केवल चार दीवारें और जीवन अर्थात् पेट का गड्ढा भरने हेतु सुबह से शाम तक की गई भागदौड़ और परिश्रम ऐसा समीकरण बन गया है। सारा आनंद ही लुप्त हो गया है। घर के संस्कार शून्य होने के कारण नीरस और निःसत्व हुई पीढ़ी, यही चिंता का विषय है। आय बढ़ने के कारण बच्चों को किसी बात की कमी अनुभूत नहीं होती। जो मांगते हैं वह मिल जाता है। प्रतिष्ठा की झूठी धारणा के कारण पालक अत्यधिक खर्च करते हैं। हमारे बचपन में यह हमें प्राप्त न था इसलिये बच्चों को अप्राप्त न रहे, ये विचित्र सी भावना और मानसिकता उत्पन्न हुई है। इन सब बातों का परिणाम है संवेदनाहीन मन और दुर्बल शरीर! यह बदलना चाहते हैं तो घर की सारी संकल्पना ही बदलनी पड़ेगी।
“कुछ समय पूर्व जिस प्रकार घर एक संस्कार केन्द्र हुआ करता था उसी प्रकार का संस्कार केन्द्र घर को फिर से बनाना होगा। इस हेतु आवश्यक है दृष्टि, थोड़ा समय और धैर्य। इन तीनों बातों का समन्वय होने पर ही ‘घर’ का अस्तित्व बना रहेगा और संस्कारों का धन बच्चों को प्राप्त होकर वे अधिक समृद्धि और तेजस्वी बनेंगे।
माँ-पिता द्वारा बच्चों को क्या दिया जाए? ‘घर’ नामक सुप्रसिद्ध कविता में बच्चों को क्या-क्या चाहिये इसका उल्लेख मिलता है। दिव्य शक्ति और भक्ति का अनुपम संगम जहां होता है वहीं सुसंस्कृत और सम्पन्न व्यक्तित्व निर्मित होता है। शक्ति और भक्ति के विविध आयाम हैं। उन सभी आयामों के साथ शक्ति और भक्ति का रोपण बालकों में होना चाहिये। शरीर एक प्रमुख साधन है। यह साधन जितना सक्षम, सबल होगा उतनी ही जीवन यात्रा सुगम रहेगी। इस साधन की अनदेखी नहीं होनी चाहिये, वरना “तोंड करते बाता, कंबर खाते लाथा” ; (मराठी कहावत) मुंह से अनचाही बकबक करने से लात खानी पड़ती है, ऐसी स्थिति होगी।
आहार और व्यायाम से ही शरीर स्वस्थ और कार्यक्षम रहता है। जो मिला, खा लिया यह ‘आहार’ नहीं है। आज संपन्नता के कारण बाजार के पदार्थ, फास्ट फूड आदि का अत्यधिक चलन है। स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक अनेक पदार्थ अंधे प्रेम के कारण माता-पिता अपने बच्चों को खिलाते हैं। अपनी संस्कृति के अनुसार ‘मातृहस्तेन भोजनम्’ का वरदान भगवान श्रीकृष्ण द्वारा मांगा गया था। माँ द्वारा बनाया गया पदार्थ खाना, यहीं तक भोजन सीमित नहीं है। वह कब खाएं? खाते समय क्या करें? आदि अनेक छोटे-छोटे बिन्दु हैं जो इससे जुड़े हैं। सभी परिजन एकत्रित होकर साथ में भोजन करें, भोजन करते समय मंत्र-श्लोक का उच्चारण करें, भोजन करते समय वाद-परिवाद न हो यह सावधानी बरतें, भोजन के समय पानी अधिक न पीयें, भोजन के कौर अच्छी तरह चबाएं। जल्दबाजी में, खड़ी हुई स्थिति में भोजन न करें ऐसे अनेक मुद्दे हैं। इन सभी बातों का प्रभाव पाचन पर पड़ता है, स्वास्थ्य पर पड़ता है, मनःस्थिति पर पड़ता है।
प्रत्येक पालक अपने बालक के स्वास्थ्य की आवश्यकताएं पूरी करता ही है। शारीरिक आवश्यकताओं की ओर अधिक ध्यान देता है। बच्चे को खाना-पीना देना मात्र ही पर्याप्त नहीं है। बच्चा केवल शारीरिक आवश्यकताओं की गठरी नहीं है। खाने-पीने के सम्बन्ध में बच्चों की आवश्यकताओं की पर्याप्त पूर्ति होने पर भी वे बौद्धिक आवश्यकताओं के विषय में भूखे ही रह जाते हैं। इस ओर पालक ध्यान नहीं देते। बच्चों की मानसिक, भावात्मक और बौद्धिक आवश्यकताएं भी होती है। इस विषय को अति प्राधान्य देने के कारण ही मानसिक तनाव और असन्तुलन अधिक मात्रा में दिखाई देता है। मानसिक तनाव ही अनेक रोगों को निमंत्रण देता है। मन का शांत रहना, प्रसन्नचित रहना एक महत्वपूर्ण बात है। इस हेतु घर में प्रार्थना, योग आदि की ओर विशेष रूप से पालकगण ध्यान दें!
मां-पिता यदि उचित गृहस्थ धर्म का पालन करें तो बच्चों पर उसका प्रभाव अच्छा पड़ेगा। परीक्षा में प्राप्तांक के समान ही संस्कार के अंकों की चिंता पालक अवश्य करें। घरों में बच्चे टी.वी. देखने के लिए सामने रखे सोफे पर बैठते हैं। माता-पिता से मिलने कोई आता है, परन्तु बच्चे सोफे पर बैठे रहते हैं, वहां से हिलते भी नहीं। मां-पिता घर पर हैं क्या ऐसी पूछताछ अतिथि द्वारा करने पर, टी.वी. पर से नज़र न हटाते हुए बेअदबी से उत्तर देते हैं अथवा उत्तर नहीं भी देते, दुर्लक्ष करते हैं। ऐसा अनेक घरों में देखने को मिलता है। अतिथि स्वागत करने का स्वभाव नहीं रहता।
घर की साज-सज्जा, बैठक व्यवस्था, दीवार पर लगे चित्र-प्रतिमाएं आदि संस्कारों के पूरक अथवा मारक होते हैं। इसलिये इनका चयन विचारपूर्वक ही होना चाहिये। सिनेमा, दूरदर्शन, केबल, अभिनेता-अभिनेत्रियां इन सबका प्रभाव आजकल इतना अधिक हो गया है कि उससे दूर होने का मार्ग ही नज़र नहीं आता। टी.वी., रेकॉर्डर, वी.सी.डी., संगणक आदि के अनेक उपयोग होते हैं। परन्तु घरों में बच्चे किस प्रकार का उपयोग करते हैं यह सभी जानते हैं। पालकों के समक्ष ये एक चुनौती है। बच्चों के लिए किस प्रकार के खिलौने खरीदे जाते हैं, इसका अध्ययन भी संस्कारों का द्योतक है। आजकल बच्चों के खिलौनों में बंदूक और विविध प्रकार के वाहनों की अधिकता होती है जबकि शैक्षणिक दृष्टि से उपयोगी खिलौने भी उपलब्ध हैं क्या लें, क्या न लें, ऐसी सुयोग्य दृष्टि का अभाव होने पर अत्यधिक खर्च करने पर भी उपुयक्त खिलौने घर में नहीं आ पाते।
अच्छे संस्कारों के लिये पुस्तकों के समान अन्य मित्र नहीं हैं। शाला प्रारंभ होते ही शालेय पाठ्यक्रम की आवश्यक पुस्तकें और मार्गदर्शिका ही खरीदना पर्याप्त है, ऐसी सोच रखने वाले पालक साल भर बच्चों के लिये वाचन हेतु अन्य कोई भी मासिक, पाक्षिक पत्रिकाएं या पुस्तकें आदि खरीदने की झंझट से मुक्त रहते हैं। दुर्भाग्य से वे समझते हैं कि अन्य पुस्तकों पर खर्च करना अपव्यय है। संस्कारों के अति प्रभावी माध्यम को वे नज़रअंदाज कर रहे हैं ये बात वे नहीं समझते!
स्वावलम्बन का पाठ बच्चों के लिये जीवनभर उपयोगी रहता है। ‘सोलह वर्ष तक स्वावलम्बन की शिक्षा और सोलह वर्ष आयु के पश्चात स्वावलंबन से शिक्षा’ आचार्य विनोबा भावे का यह विचार पालक समझ लें तो बच्चों के लिये कल्याणकारी रहेगा। अत्यधिक लाड़-प्यार, अंधे प्रेम-ममत्व के कारण मां-बाप बच्चों का नुक्सान करते हैं। उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो इस उद्देश्य से वे अत्यधिक चिन्ता करते हैं। अतिसंरक्षण का कवच बच्चों को उपलब्ध कराते हैं। इस कारण बच्चे प्लास्टिक की गुड़िया समान नाजुक बन जाते हैं। हम बच्चों का कितना नुक्सान कर रहे हैं इस बात का विचार पालकों को करना चाहिये। “माता प्रथम गुरु” ऐसा क्यों कहा जाता है, “घर ही प्रथम शाला”, ऐसा क्यों कहते हैं, इसका गहन विचार करना आवश्यक है।
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)
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