– दिलीप वसंत बेतकेकर
आपने आपके पाल्य के लिए शाला का चयन कर प्रवेश प्राप्त कर लिया या पूर्व की शाला में ही बच्चे का प्रवेश निरंतर रखा और नये सत्र के लिये आवश्यक सामग्री बच्चे के लिये खरीद कर दे दी कि अपनी जिम्मेदारी समाप्त! ऐसा समझने वाले पालक अनेक हैं। एक बार प्रवेश दिला दिया कि फुरसत की सांस! “अब हमारा काम हो गया।““अब आगे क्या करना ये शिक्षक और विद्यार्थी जाने”,ऐसा भी कुछ पालकगण कहते हैं। कुछ को तो वास्तव में ही ऐसा अनुभव होने लगता है कि बच्चे की शिक्षा और शाला में अपनी कोई भूमिका ही नहीं है।
स्मरण रखें, पालकों की भूमिका कभी समाप्त नहीं होती। शाला और घर, शिक्षक और पालक बच्चे के दो पंख होते हैं। दोनों का ही सक्षम और सशक्त होना आवश्यक है। पालक-शिक्षक संघ शाला और पालक के मध्य आपस में जोड़ने वाला सेतु है। दोनों के बीच सौहाद्र रहे, मित्रता रहे, तो केवल शाला के लिये ही नहीं, अपितु बच्चों की दृष्टि से भी लाभदायक, हितकारी सिद्ध होगा।
अनेक शालाओं में पालक-शिक्षक संघ की बैठक में एक अनोखा ही दृश्य देखने को मिलता है। ऐसा लगता है जैसे किसी रणक्षेत्र में दो शत्रु सैन्य एक दूसरे के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार खड़े हों! एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लगी हो! ऐसी परिस्थिति में शाला और पालक-पाल्य, सभी को हानि होती है।
बच्चों के कल्याणार्थ घर, शिक्षक और पालक में आपस में मधुर सम्बन्ध होना आवश्यक है। पालकों को शाला से मित्रता कर सहयोगी बनना चाहिये। इसका अर्थ यह नहीं कि शाला और शिक्षक की कहीं गलती होने पर चुपचाप बैठना चाहिये। गलती को उनके ध्यान में लाने की पद्धति उचित हो! अनेक बार देखा जाता है कि बातचीत के दौरान शब्द की अपेक्षा ‘स्वर’ अधिक नुक्सान करता है। भाषा की अपेक्षा भाव नुक्सान करता है। ये अपना ही नुक्सान टालने हेतु थोड़ा संयम रखते हुए, शांतिपूर्ण रहते हुए, विचार करके, शाला के साथ शिक्षकों से सहयोगी बनने का प्रयास किया जाए तो अधिक उपयुक्त रहेगा।
पालक मित्रों, एक बात तो आपके ध्यान में आयी होगी। आप बच्चों की शिक्षा के लिये जितनी फीस देते हैं उतनी राशि में शिक्षा पर खर्च की पूर्ति होना संभव नहीं है। सरकार आपके बच्चों की शिक्षा के लिये आपकी दी हुई फीस की अपेक्षा कितना अधिक खर्च करती है। जो खर्च सरकार करती है उतने में भी खर्च की आपूर्ति होना संभव नहीं। शाला की प्रबंध समिति द्वारा भी बहुत खर्च किया जाता है। शाला के शिक्षक, मुख्याध्यापक भी सुविधानुसार, क्षमतानुसार शाला के विविध उपक्रम और कार्यक्रमों के लिए आवश्यक सामग्री क्रय करने हेतु धन खर्च करते रहते हैं। इस बात की जानकारी और एहसास पालक को नहीं होता।
अपने बच्चों की शिक्षा के लिए परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से कितने ही लोग सहयोग करते रहते हैं, ये नज़रअंदाज करना उचित नहीं है। बच्चों को भी इस बात का एहसास करवाना जरूरी है।
फिर हमें भी अधिकाधिक सहयोग देना आवश्यक नहीं क्या? कृतज्ञता का भाव मन में रहना आवश्यक है। बच्चों में भी यह भाव जागृत करें, अन्यथा बच्चे कृतघ्न बनेंगे। इसे पालक भी बाद में सहन नहीं करेंगे। पालकगण शाला के मित्र अथवा सहयोगी बनें इसका अर्थ केवल आर्थिक सहयोग दें ऐसी अपेक्षा नहीं। समय का योगदान भी महत्वपूर्ण है। बच्चों के लिए शाला ‘अतिरिक्त क्लासेज़’ आयोजित करती है। दसवीं कक्षा के लिये तो जनवरी-फरवरी में रात्रि नौ बजे तक कक्षाएं चलाते हैं। ऐसे समय शिक्षकों के साथ कुछ पालकगण भी सुविधानुसार उपस्थित रहने की योजना करें तो उत्तम रहेगा।
धन की अपेक्षा अन्य महत्वपूर्ण और मूल्यवान सहयोग पालक दे सकते हैं। पालकों के पास अनेक कार्य, कौशल्य, गुण, जानकारी, ज्ञान, अनुभव होते हैं। यह शाला के लिये भी उपयुक्त होते हैं। यहां तक कि अनपढ़ माता-पिता भी शाला के अच्छे मित्र बन सकते हैं। इसके लिए उन्हें अच्छी और सकारात्मक वृत्ति रखना आवश्यक है।
जहां शिक्षक और पालक की आपस में केवल पहचान ही नहीं, वरन् उत्तम संपर्क, सम्बन्ध और सहयोग हो और यह बात बच्चे भी समझते हों, उस जगह बच्चों की शिक्षा अधिक अच्छी होती है, अनुशासन अच्छा रहता है। शिक्षकों ने एक कदम पालकों की ओर उठाया और पालकों ने भी शिक्षकों की दिशा में बढ़ाया तो अनेक कार्य अत्यंत सरल और अच्छे हो सकेंगे।
विशेषकर विद्या भारती की शालाओं में सहभाग, सहकार्यों का बहुत प्रचलन है। पालक एक बहुत बड़ी शक्ति है। इस शक्ति का कल्याणकारी उपयोग किस प्रकार किया जाए इस विषय पर चर्चाएं, विचार-विमर्श होते रहते हैं। प्रतिसाद भी अच्छा मिलता है।
प्रत्येक पालक अपनी सुविधानुसार शाला की सहायतार्थ किसी भी प्रकार से आगे आयेगा वह दिन ‘स्वर्णिम’ होगा। तो फिर, अब तो आप बनेंगे न शाला के मित्र?
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)
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