– नीलू शेखावत
राजस्थान के रंगीन पर्वों की यात्रा श्रावण की शुक्ला तीज से शुरू होकर चैत की शुक्ला तीज तक चलती है। तीज और गणगौर यहाँ के प्रमुख त्योहार हैं पर मुश्किल से कहीं इन दोनों त्योहारों के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती हो। न पाठ्यक्रम में और न ही साहित्य में। हाँ इनके मेलों के बारे में फिर भी कहीं लिखा मिल जाता है। मगर ये त्योहार मेले से अधिक विश्वास, आस्था और परम्परा पर आधारित हैं।
राजस्थान से बाहर गणगौर और तीज की सवारी ही इस उत्सव को जानने के स्रोत हैं। पर सवारी या शोभायात्रा इसका एक राजसी रूप है, लोक पक्ष इससे कहीं अधिक विस्तृत और बहुरंगी है।
गणगौर की बात करें तो यह पूरे सोलह दिन का उत्सव है। उत्सव तो क्या कहें, अनुष्ठान ही कह लीजिये जिसमें श्रद्धा है, त्याग है, प्रेम है, व्रत और विश्वास है स्त्री जाति का पुरुष जाति के प्रति।
एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र जहाँ की माटी जल से अधिक रक्त सिंचित रही हो, जहाँ के पुरुषों का शतजीवी होना किसी दैवी चमत्कार से कम न हो, (क्योंकि सतत युद्धों में निरत रहने से बहुत कम आयु में ही पुरुषों की इहलीला समाप्त हो जाती थी) जहाँ एक पुरुष के जिम्मे सैकड़ों स्त्रियों और बालकों का जीवन हो वहाँ पुरुषों के मंगल के लिए ऐसे ही अनुष्ठान आयोजित किये गये।
इस अनुष्ठान का आरंभ होली के दूसरे दिन से होता है। होली मंगलाने (जलाने) के बाद बची हुई थोड़ी सी लिच्छमी (राख) हर पुरुष घर लौटते समय अपने साथ लाते हैं। उसी में थोड़ी पीली मिट्टी और गोबर मिलाकर सोलह पिंडियाँ और एक शिवलिंग बनाई जाती है, जिनका अगले सोलह दिनों तक पूजन किया जाता है। शुभ दिशा में किसी भित्ति के सम्मुख पाटे पर पिंडियाँ रख कर हर दिन उन्हें काजल और कुंकुम की टिंकियां (तिलक) लगाई जाती है और इतनी ही उस भित्ति पर भी लगाई जाती है जिस पर अगले आठ दिन बाद गणगौर उकेरी जायेगी।
गणगौर पूजन में कुछ चीजों का होना अनिवार्य है जैसे जल का कलश, हरी दूब (दूब का विकल्प भौगोलिक स्थिति अनुसार सब कहीं अलग अलग होता है। रोहिडे के फूल, फोग, खेजड़ी की कोंपल, जुहारे इत्यादि) और जोड़ा।
गणगौर सदैव जोड़े (युगल) से ही पूजी जाती है। कुंवारी कन्या, कुंवारी का और विवाहिता किसी विवाहिता का ही जोड़ा बनाती है। अपरिहार्य कारणवश यदि जोड़ा बीच में छूट जाए तो उसके स्थान पर चूड़ी या लाल चुनड़ी का जोड़ा बना लिया जाता है।
दूब को कलश के पानी में भिगोकर उस जल को पिंडियों पर छोड़ा जाता है और एक लंबा गीत सोलह बार दोहराया जाता है जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ कुछ इस तरह हैं-
‘गौर गौर गोमती ईसर पूजे पार्वती’
‘पार्वती का आला गीला गौर का सोना का टीका…’
बचे हुए कलश के जल को वृताकार घूमते हुए जमीन पर छोड़ा जाता है जिसे गणगौर का ‘घाघरा मांडना’ कहते हैं जो सौभाग्य का प्रतीक है।
लोग कहते हैं गणगौर शिव-पार्वती का पूजन है। मैं कहती हूँ यह पार्वती द्वारा शिव का पूजन है। पूजने वाली प्रत्येक कन्या गवर (पार्वती) है और गवर प्रत्येक स्त्री की अपनी कन्या। तभी तो वे उसके पितृ पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हुए गाती है-
‘म्हारी चूनड़ रो म्हारी गौरा बाई ने कोड’
‘ले द्यो नी बिरमा जी रा चावा चूनड़ी’
‘थे सूरज जी जोधाणे पधारो तो टींकी ल्याजो रंग भरी’
‘टींकी दे ला हेमाचल रा धीय तो काछबजी रा कुळ बहू…’
गणगौर मंत्रों से नहीं, गीतों से पूजी जाती है। यह मूलतः रावळा अर्थात् आभिजात्य त्योहार है इसलिए इसके गीतों में शृंगारिकता होते हुए भी स्वछन्दता या उच्छृंखलता का निषेध है। शिव पार्वती का गार्हस्थिक युगल राजपुताना में राधा कृष्ण के प्रेमी युगल से कहीं अधिक लोकप्रिय रहा है। कभी कृष्ण का उल्लेख हुआ भी हो तो रुकमणि के साथ ही।
हाँ तो गीत गवर पूजन का अभिन्न अंग है। दूब लाने का गीत, जल लाने का गीत, पाटा धोने का गीत, टिंकी (लगाने) का गीत, जीमाने का गीत, चळू कराने का गीत, गीत गीत और गीत।
होली के आठ दिन बाद शीतला अष्टमी को गणगौर को लीकों में लिया जाता है। इस दिन शुभ मुहूर्त माना जाता है। लीकों में लेने से आशय है गणगौर का चित्र भित्ति पर उकेरना। इसकी परंपरा संस्कृत साहित्य में भी दीख पड़ती है।
‘शीकरव्यतिकरं मरीचिभिर्दूरयत्यवनते विवस्वति। इन्द्रचापरिवेषशून्यतां निर्झरास्तव पितुर्व्रजंत्यमी॥’
अस्त होते सूर्य की किरणें बादलों पर पड़ रही हैं, उनकी नोंकें रक्त, पीत और कपिश हो गयी हैं, जैसे सन्ध्या ने पार्वती को दिखाने के लिये तूलिका उठा कर उन पर रंग-बिरंगी छवियाँ उकेर दी हों।
रंग और तूलिका अलग है पर छवि उकेरने की क्रिया वही। किसी चतुर (कलाकार) स्त्री को ही यह भार मिलता है। पहले ऐसी स्त्रियाँ गिनी चुनी हुआ करती थी जो अपने सधे हुए हाथों और कूँची से गणगौर मांडती। इनकी भारी डिमांड रहती
गणगौर का सुंदर मंडना अत्यावश्यक है क्योंकि इस गणगौर से अगली गणगौर के मध्य जितने भी विवाह उस कुटुंब में होंगे, सबके बींद (वर) ईसर जैसे और बीनणी (वधू) गणगौर जैसी ही आयेगी।
जमा बात यह कि कुरूप मांडना विवाह को प्रभावित करेगा इसलिए चित्र सुंदर ही बनाना होगा। मांडने के संपूर्ण उपक्रम के दौरान स्त्रियाँ गीत गाती जाती है और बीच बीच में चित्रकारा को सलाह और सुझाव भी देती जाती हैं।
रंगों के लिए प्राकृतिक उपादानों को काम में लिया जाता था। जैसे पीले रंग के लिए हल्दी, लाल रंग के लिए हिंग्लू या हिरमिच, सफेद रंग के लिए पांडू, काले रंग के लिए कोयले का चूरा या तवे का कालूंस और नीले रंग के लिए नील। इन रंगों को मिट्टी के छोटे बड़े दीयों में घोला जाता और तीलियों के अग्र भाग पर रुई लपेटकर कूँची बनाई जाती। उकेरने के लिए, एक हाथ पर रंग भरने के लिए कई हाथ एक साथ जुटते।
“अब यह कार्य अधिकांशत: पेंटर कर रहे हैं पर उनकी पेशेवर पेंटिंग में वह दम नहीं जो किसी स्त्री की आंकी बांकी लीकों में मिलता है। मोर-चिड़कली, चाँद-सूरज और रावळ्या बावळ्या का कलात्मक भाव सौंदर्य पेंटर क्या समझे?”
इस उत्सव के सर्वाधिक रंग और चाव देखने को मिलते हैं बिंन्दोरों में। गणगौर पूजने वाली गौरडियाँ (सखियां) सोलह दिन तक किसी न किसी के घर आयोजित भोज में सज संवरकर पिंडियों की छाब या काठ की गणगौर को सिर पर रखकर गीत गाते हुए एक दूसरे के घर जाती है। श्रृंगार, जीमण, हास-परिहास और मिलना भेंटना, ‘आधुनिक भाषा में इसे किटी पार्टी या गेट टुगेदर कह लें।’ यजमान द्वारा अच्छी खासी आवभगत की जाती है और बधावे गाकर सीख (विदाई) दी जाती है।
‘इण सरवरिये साँचा मोती निपजे’
‘ऐ मोती ईसर जी के कान बधावो म्हारी गौरल को’
बधावा उन गीतों को कहा जाता है जिनमें कुल और वंश की वृद्धि की शुभ कामना की जाती है।
गणगौर की पूर्व संध्या सिंझारा कही जाती है। सारी स्त्रियों के हाथों में मेहंदी सजती है। प्रत्येक घर में खीर चूरमा या दाल बाटी चूरमा बनाकर गणगौर को जीमाया (भोग लगाना) जाता है।
अंतिम दिन अर्थात् चैत्र शुक्ला तृतीया विवाहोत्सव में पाणिग्रहण की तरह है। गाजे बाजे के साथ बगीचों से दूब, फूल और कुओं, बावड़ी से जल कलश लाये जाते हैं। जो स्त्रियां सोलह दिन नहीं पूज पातीं वे भी इस दिन पूजा करती हैं। प्रसाद में कच्चे पक्के फल और ढोकली बनाये जाते हैं। फल एक प्रकार के मिष्ठान्न है जो गुड़ और आटे से निर्मित होते हैं। जिन्हें घी या तेल में तल लिया जाता है वे पक्के और जो बिना तले हों वे कच्चे। एक पंथ दो काज वाली कहावत राजस्थान में कुछ यूं कही जाती है-
गवर तो भला मान लेगी, टाबर टोळी फल ढोकली खा लेंगे।
एक और कहावत याद आ रही है-
‘घोड़े गणगौरों में नहीं दौड़ेंगे तो कब दौड़ेंगे?’
यानि गणगौर मात्र श्रृंगार का ही नहीं, शौर्य का भी पर्व है किन्तु श्रृंगार से शौर्य की ओर बढ़ने से शब्दयात्रा बढ़ जाएगी। इसके लिए एक पृथक अध्याय की जरूरत है।
चलिए गवर को सीख देने का उपक्रम भी जान लेते हैं। कन्या के पिता अर्थात् मुख्य यजमान किसी राज्य के राज प्रमुख या गांव ठाकुर होते थे इसलिए गणगौर की विदाई भी गढ़ या रावळे से ही होती है। उस परिवार की नवविवाहिता पुत्री या पुत्रवधू की बरी (विवाह की पोशाक) और आभूषणों से गणगौर की मूर्ती को श्रृंगारा जाता है। गांव या शहर भर में इस काष्ठ मूर्ती की शोभा यात्रा निकाली जाती है जिसे गणगौर की सवारी कहते हैं। पुत्री को स्नेह पूर्वक विदा करने का प्रतीक होती है यह सवारी। इसके आगे पीछे चलने वाले स्त्री पुरुष दर्शक नहीं, स्वजन हैं जो अपनी पुत्री पर अपना लाड लुटाने आते हैं। सबसे मिल भेंट लेने के बाद मृण पिंडों के साथ गणगौर को ठंडे जल में विसर्जित कर दिया जाता है।
तीज से प्रारम्भ हुई गणगौर पर्यन्त की पर्व यात्रा पूरी होती है। कहावत बनती है- ‘तीज तिवारां बावड़ी ले डूबी गणगौर।’
(लेखिका राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर में स्कॉलर है।)
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