जैन दर्शन का परिचय

– प्रो. आनंदप्रकाश त्रिपाठी

जैन दर्शन में जैन शब्द जिन से बना है। जिन का मतलब होता है जितेन्द्रिय अर्थात जिन्होंने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है । सभी प्रकार के विकारों को जीतने वाले को ही सही अर्थों में जिन कहा गया है। जिन में आस्था रखने वाले अथवा जिन को आराध्य मानने वाले ही जैन कहलाते हैं। जिन के विचार को ही जैन दर्शन के रूप में मान्यता मिली है। यूं तो जैन धर्म 24 तीर्थंकरों की समृद्ध परंपरा का संवाहक है। जैन अनुश्रुति के अनुसार पहले कभी भोग भूमि थी। कालांतर में भोग भूमि,  कर्म भूमि में बदल गई और कर्मभूमि में कुलकर व्यवस्था की शुरुआत हुई थी। जैन धर्म के अनुसार चौदह कुलकरों में नाभिराय अंतिम कुलकर हुए। इन्हीं के पुत्र ऋषभदेव को जैन दर्शन का प्रवर्तक माना जाता है। जैन शास्त्रों के अनुसार ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे तो भगवान महावीर 24 वें तीर्थंकर हुए हैं।

भगवान महावीर के उपदेशों को गणधरों ने बारह अंग और चौदह पूर्व के रूप में निबद्ध किया। कालांतर में जैन मत भी दिगंबर और श्वेतांबर के रूप में विभक्त हुआ देखा जाता है। दिगंबर से तात्पर्य जो वस्त्र नहीं धारण करते थे अर्थात दिशाओं को ही वस्त्र समझते थे और श्वेतांबर जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि श्वेत वस्त्र को धारण करने वाले श्वेतांबर कहलाए।  श्वेतांबर साहित्य में ग्यारह अंग, बारह उपांग, दस प्रकीर्णक, छः छेदसूत्र, दो सूत्र और चार मूलसूत्र प्रसिद्ध है। इसकी अतिरिक्त सिद्धसेन दिवाकर का न्यायावतार, वादिदेव सूरि का प्रमाण नवतत्वालोकांलकार, हेमचंद की प्रमाणमीमांसा, मल्लिसेन सूरि की स्याद्वादमंजरी, यशोविजय का नयोपदेश एवं तर्कभाषा अधिक प्रसिद्ध है। दिगंबर साहित्य में  षड्खंडागम, कसायपाहुड़, समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त अकलंक देव की अष्टशती, विद्यानंद की अष्टसहस्त्री, समंतभद्र की आप्तमीमांसा, माणिक्यनंदि का परीक्षामुख,  आचार्य प्रभाचंद्र का प्रमेयकमलमार्तंड और अनन्तवीर्य की प्रमेयरत्नमाला प्रसिद्ध हैं।

जैन दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धांत

जैन दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धांत इस प्रकार हैं –

द्रव्य विचार –

जैन दर्शन में द्रव्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है – “उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षणं सत्” अर्थात द्रव्य वह है,  जिसमें उत्पत्ति, व्यय और नित्यता निहित हो। तीन विशेषताओं में उत्पाद और व्यय अनित्यता के सूचक हैं तो ध्रौव्यत्व नित्यता का सूचक है। इस प्रकार जैन दर्शन में द्रव्य को नित्यानित्य माना गया है। जैन लोक व्यवस्था में छः द्रव्यों की अनिवार्यता स्वीकार की गई है अर्थात लोक या संसार वही है जिसमें छः द्रव्य निहित हैं। ये छः द्रव्य इस प्रकार हैं – जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।

  1. जीव द्रव्य – चेतना जीव द्रव्य का वास्तविक स्वरूप है। जीव और चेतन को अलग नहीं किया जा सकता। जीव स्वयं चेतन है इसीलिए जीव को ज्ञान स्वरूप भी कहा गया है। जीव स्वयं करने वाला, स्वयं उपभोग करने वाला तथा अपने कर्मों का स्वामी भी वह स्वयं है। दर्शन में जीव के दो प्रकार माने गए हैं-

एक संसारी जीव और दूसरा मुक्त जीव। संसारी जीव वह जीव है जो कर्मों के द्वारा संसार में परिभ्रमण करता रहता है। संसारी जीव चार प्रकार के हैं – नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव। नरक में निवास करने वाले को नारकी, स्वर्ग में निवास करने वाले को देवता एवं पशु-पक्षी आदि तिर्यंच और हम सभी प्राणी मनुष्य है। मुक्त जीव वह जीव हैं जिन्होंने अपने कर्मों के बंधन काट लिए हैं। जैन दर्शन में मुक्त जीव को लोकाग्र निवासी सिद्ध कहा गया है।

  1. अजीव द्रव्य – अजीव द्रव्य पांच हैं – पुद्गल, धर्म-अधर्म, आकाश और काल।

पुद्गल द्रव्य : वह द्रव्य है जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श होते है। शास्त्रों में पूरण-गलन धर्म इति पुद्गल माना गया है। इसी धर्म के कारण पुद्गल को परमाणु और स्कंध के रूप में भी देखा जाता है। पुद्गल का सूक्ष्म रूप परमाणु है और संयुक्त रूप स्कंध है। स्कंध परमाणुओं के समूह को कहते हैं। प्रत्येक परमाणु में एक रस, एक रूप एक गंध और दो स्पर्श होते हैं।

धर्म और अधर्म द्रव्य : गति में सहायक को धर्मस्तिकाय कहा गया है, जैसे मछली के तैरने में पानी सहायक है और स्थिरता में सहायक को अधर्मास्तिकाय कहा गया है, अर्थात वृक्ष की छाया पथिक के विश्राम के लिए सहायक है। आकाश द्रव्य : आकाश द्रव्य उसे कहा गया है जो सभी द्रव्यों को आश्रय देता है। यह नित्य और सर्वव्यापी द्रव्य है। लोकाकाश और अलोकाकाश इसके दो भेद हैं। आकाश द्रव्य को निष्क्रिय द्रव्य भी माना गया है।

काल द्रव्य : उपर्युक्त सभी द्रव्य आस्तिक द्रव्य कहे गए हैं। जबकि काल को अनस्तिकाय द्रव्य माना गया है। सभी प्रकार के परिवर्तनों में जो सहकारी है वह काल द्रव्य है। काल द्रव्य के दो भेद माने गए हैं। काल को निश्चय काल कहते हैं और संसार में जो भी परिवर्तन आदि देखे जाते हैं, वे सब व्यवहार काल है।

तत्त्व

दर्शन में नौ प्रकार के तत्त्व भी माने गए हैं। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, पाप, पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष। जीव से तात्पर्य जिसमें चेतना है। अजीव से तात्पर्य जड़ है, आस्रव का मतलब है जीव की तरफ कर्म पुद्गलों का प्रवाह। बुरे कर्मों का परिणाम पाप है तो अच्छे कर्मों का परिणाम पुण्य है। आस्रव का निरोध करना ही संवर है। तपस्या आदि के द्वारा अंदर के विकारों को दूर करना निर्जरा है। कर्म बंधन से पूरी तरह मुक्त होना ही मोक्ष है। जैन दर्शन में मोक्ष के तीन मार्ग माने गए हैं- “सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः” है अर्थात सम्यक श्रद्धा, सम्यक ज्ञान और सम्यक  चरित्र ही मोक्ष प्राप्ति का साधन है।

जैन दर्शन की आचार मीमांसा

जैन दर्शन का उद्देश्य बंधन से मुक्ति है तो बंधन से मुक्ति के जो साधन हैं उन्हें आचार के नाम से जाना जाता है। इस दर्शन के अनुसार गृहस्थों के लिए आचार व्यवस्था अलग है तो श्रमण अर्थात मुनियों के लिए अलग है। गृहस्थों के लिए सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य ये पांच अणुव्रत हैं। इनके अतिरिक्त तीन गुण व्रत और चार शिक्षा व्रत भी माने गए हैं। मुनियों अर्थात साधुओं की आचार व्यवस्था में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य जैसे पंच महाव्रत, तीन गुप्तियां, चार समितियां एवं दस धर्म आदि प्रसिद्ध हैं। दस धर्म  हैं- क्षमा, मार्दव अर्थात कोमलता, आर्जव अर्थात सरलता, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य प्रमुख हैं।

ज्ञान और प्रमाण

जैन दर्शन में ज्ञान या चैतन्य आत्मा का गुण माना गया है। इसे स्वपरभासी भी कहा गया है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश अपने को प्रकाशित करता है तथा संसार की अन्य वस्तुओं को प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान भी स्वपरभासी है। यहां ज्ञान के दो भेद माने गए हैं – प्रत्यक्ष और परोक्ष। आत्मा सापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष है तथा जिस ज्ञान में इंद्रियों को प्रकाश आदि साधनों की अपेक्षा रहती है, वह परोक्ष ज्ञान है। कालांतर में प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद कर दिए गए – सांव्यावहारिक तथा परमार्थिक प्रत्यक्ष। सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष पांच इंद्रियों और मन से होता है और पारमार्थिक प्रत्यक्ष आत्मा से जो प्रत्यक्ष होता है उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा गया है। जैन दर्शन में परोक्ष ज्ञान दो प्रकार का होता है- मति और श्रुत। इंद्रिय और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मति ज्ञान है। इसे सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं। स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, अनुमान आदि सभी मति में ही सम्मिलित हैं। श्रुत ज्ञान तीर्थंकरों की वाणी है। श्रुत ज्ञान के दो भेद हैं – अंगप्रविष्ट श्रुत तथा अंग वाह्य श्रुत। तीर्थंकर जिस अर्थ को अपनी दिव्य ध्वनि से प्रकाशित करते हैं तथा गणधरों द्वारा रचित होते हैं, उन्हें अंगप्रविष्ट श्रुत कहा गया है। जो श्रुत शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा लिखा गया है, वे अंग वाह्य श्रुत कहे गये हैं। जैन दर्शन में प्रमाण के साथ-साथ अप्रमा के भी अनेक भेद किए गए हैं- जैसे संशय विपर्यय, अनध्यवसाय।

जैन दर्शन का परिचय

अनेकांतवाद और स्याद्वाद

जिस प्रकार बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद, वेदांत दर्शन में मायावाद आधारभूत सिद्धांत है, वैसे ही जैन दर्शन में स्याद्वाद और अनेकांतवाद अत्यंत प्रसिद्ध हैं। अनेकांतवाद से तात्पर्य है – एक वस्तु में अनंत धर्म का होना, इसीलिए “अनंत धर्मकं वस्तु” कहा गया है। यहां वस्तु के स्वरूप को सत-असत, भाव-अभाव, नित्य-अनित्य आदि विरुद्ध धर्म से युक्त माना गया है। प्रत्येक वस्तु स्वधर्म की दृष्टि से नित्य है तो वहीं पर धर्म की दृष्टि से अनित्य भी है। प्रत्येक वस्तु गुण रूप से नित्य है तो पर्याय रूप से अनित्य है। जैसे सोना पिंड रूप में नित्य है किंतु विविध प्रकार के आभूषणों के रूप में अनित्य है। इसी तरह प्रत्येक वस्तु किसी दृष्टि और अपेक्षा से सत्य है तो दूसरी अपेक्षा से असत्य भी है जैसे घट का अपना स्वरूप है और पट का अपना स्वरूप है। ‘घट है’ से तात्पर्य घट अपने स्वरूप की दृष्टि से सत्य हैं परंतु पर स्वरूप की दृष्टि से असत् है। प्रत्येक पदार्थ भाव रूप भी है और अभाव रूप भी है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में अस्ति-नास्ति, भाव-अभाव, नित्य-अनित्य, शाश्वत-उच्छेद आदि का जो समन्वय है, वह अनेकांत की ही देन है।

अनेकांत के इस दृष्टि की विशेषता यह है कि इसमें विरोधी धर्म भी समाहित है। अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि अनेकांतवाद विरोधी धर्म का समन्वय करके उदारता का परिचय देता है। यहां किसी आग्रह, पूर्वाग्रह, कदाग्रह और मताग्रह के लिए कोई स्थान नहीं है। जहां तक सिद्धांत की बात है, यह कहना उपयुक्त होगा कि अनेकांतवाद एक विराट सिद्धांत है तो स्याद्वाद इस सिद्धांत के अभिव्यक्ति की एक उपयुक्त शैली है। यदि वस्तु, विरोधी धर्म से युक्त है तो उसके प्रतिपादन की शैली भी उपयुक्त होनी चाहिए और वह शैली स्याद्वाद की शैली है। इसमें स्याद् का अर्थ शायद और संभावना नहीं है बल्कि किसी दृष्टिकोण से है। जब हम यह कहते हैं कि यह घट ही है तो यह एकांतिक विचार हो गया और जब कहते हैं यह घट भी है, यह अनेकांतपरक विचार है, जिसको व्यक्त करने के लिए स्याद् घड़ा है, कहना उपयुक्त होगा।

जैन दर्शन में अभिव्यक्ति के सात तरीके माने गए हैं जिसे सप्तभंगी कहा जाता है। सप्त भंगी को स्याद्वाद की अभिव्यक्ति का माध्यम कह सकते हैं। किसी तथ्य को प्रस्तुत करने के सात तरीके यहाँ बताए गए हैं। जैसे स्याद् घड़ा है। स्याद् घड़ा नहीं है। स्याद् घड़ा है भी और नहीं भी है। स्याद् घड़ा अवक्तव्य है। स्याद् घड़ा अस्ति और अवक्तव्य है। स्याद् घड़ा नहीं है और अवक्तव्य है। स्याद् घड़ा अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य है। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि अनेकांतवाद और स्याद्वाद जैन दर्शन का वह महत्वपूर्ण सिद्धांत है जिसमें विश्व की सभी समस्याओं का समाधान देखा जा सकता है।

जैन दर्शन में बंधन और मोक्ष

जैन दर्शन में आत्मा और शरीर अथवा जीव और अजीव के संयोग को बंधन कहा गया है। यहां बंधन कर्मज है अर्थात कर्मों के कारण ही आत्मा का बंधन होता है। जब कर्म आत्मा को आवृत्त कर लेते हैं तो यही बंधन कहलाता है। आत्मा अनंत चतुष्टय से युक्त है अर्थात अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य और अनंत आनंद से युक्त है किंतु अज्ञानता के कारण कर्म प्रभाव से जीव की शक्तियां लुप्त हो जाती हैं तो जीव बंधन में पड़ जाता है और जब मिथ्याज्ञान की निवृत्ति हो जाती है तो जीव की अपनी शक्तियां पुनः प्रकाशित हो जाती हैं और जीव मुक्त हो जाता है। मुक्त अवस्था में वही अनंत चतुष्टय प्रकाशित होता है। चार घाती कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय कर्म के नष्ट होने से व्यक्ति केवली बन जाता है और जब अघाती कर्म आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय जब आत्मा से पृथक हो जाते है तो मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष की अवस्था में समस्त प्रकार के दुखों की निवृत्ति भी हो जाती है और अनंत चतुष्टय की प्राप्ति भी होती है यही जैन दर्शन का लक्ष्य भी है।

(लेखक जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं, राजस्थान में विभागाध्यक्ष है।)

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