आर्य समाज का परिचय

 – प्रोफेसर बाबूराम (डी.लिट्.)

भारत विश्व की प्राचीनतम तथा श्रेष्ठतम सभ्यता एवं संस्कृति के ऋषिप्रधान और कृषिप्रधान राष्ट्र के रूप में विश्वविख्यात रहा है। भारत की चिन्तन परंपरा भी बड़ी समृद्ध रही है, जिसके कारण भारत विश्वगुरु और सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता रहा। अनेक विदेशी जातियों और आक्रान्ताओं ने बार-बार आक्रमण और लूटमारी करके भारत के अस्तित्व और इसकी ज्ञान परंपरा को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया परन्तु ये आसुरी शक्तियाँ भारत की दैवी-सम्पदा पर विजयी नहीं हो सकी। इस्लाम और ईसाइयों ने भी अनेक षड्यन्त्र किए, जिसके परिणामस्वरूप 1857 की स्वतंत्रता की लड़ाई से भारत ने शिक्षा ली। 19वीं शताब्दी में सामाजिक सुधार और धार्मिक पुनरुत्थान के लिए प्रार्थना समाज, ब्रह्मसमाज और थियोसॉफिकल सोसायटी जैसी संस्थाएँ सुधार आन्दोलन के रूप में समाज को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी परन्तु इसाई मिशनरियों के प्रभाव से पूर्ण रूपेण मुक्त नहीं थी। इन संस्थाओं के सम्पर्क में भारत के राष्ट्रीय एवं नवजागरण के अग्रदूत महर्षि दयानन्द सरस्वती का क्रान्तिकारी के रूप में पदार्पण हुआ।

इस भयंकर कलिकाल में एक ओर देश अंग्रेजों की पराधीनता से संघर्ष कर रहा था और दूसरी ओर समाज में अस्पृश्यता, वैदिक संस्कृति का लोप, मूल्यों का अवमूल्यन, अंधविश्वास, मूर्ति पूजा, नारी की दयनीय दशा आदि अनेक कुरीतियों, विसंगतियों तथा विदू्रताओं से ग्रस्त था। ऐसे चुनौतीपूर्ण वातावरण में महर्षि दयानन्द सरस्वती भारतीय ज्ञान के संवाहक रूप में आते हैं। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी कि “अंग्रेजों की दो सौ साल की स्वर्णिम गुलामी की अपेक्षा आजादी का एक क्षण अधिक आनन्ददायक और महत्त्वपूर्ण है।” इसी राष्ट्रवाद की भावना से ओतप्रोत होकर ऋषि दयानन्द जी ने सनातन वैदिक आर्य संस्कृति के द्वारा समाज-सुधार और लोकजागरण का शंखनाद करके 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई के गिरगांव रोड पर डॉ. माणिक जी की बागवाड़ी में आर्य समाज की स्थापना की, जिसकी अनुगूंज सारे भारत में फैल गई। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा संस्थापित-संचालित आर्य समाज के दस नियमों का योगदान चिरस्मरणीय और महत्त्वपूर्ण है –

  • सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।
  • ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, चर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।
  • वेद सब सत्यविद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढ़ाना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
  • सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
  • सब काम धर्मानुसार, अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।
  • संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्धेश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
  • सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिए।
  • अविद्या का नाश विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
  • प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिए, किन्तु सब की उन्नति सें अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
  • सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वाहितकारी, नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम पालने सब स्वतंत्र रहें।

‘आर्य समाज’ आर्य+समाज दो शब्दों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ बड़ा विस्तृत और व्यापक है। ‘आर्य’ से अभिप्राय श्रेष्ठ और उदात्त-चरित वाला है। आर्य भारत की एक सभ्य जाति है, अपने धर्म-नियमों के प्रति आस्था रखने वाला व्यक्ति, सदाचारी व्यक्ति, समाज का अर्थ है-मिलना, एकत्र होना, समूह, संघ, सभा, समान कार्य करने वालों को समूह, विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए संगठित संस्था। इस प्रकार आर्य समाज का अर्थ है- स्वामी दयानन्द द्वारा प्रवर्तित एक धार्मिक समाज। लोक में आर्य समाज के सिद्धान्तों को मानने वाले को समाजी भी कहते हैं। वस्तुतः आर्य समाज की अवधारणा भारत की राष्ट्रीय एकता और सभी भारतवासियों द्वारा वेदों की सत्ता और हिन्दू धर्म को स्वीकार करने पर आधारित थी। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन का नाम आर्य समाज है। यह एक वैचारिक चिन्तनधारा है, जो तर्क, व्यवहार, विज्ञान तथा प्रमाण द्वारा आदर्श जीवन जीने की श्रेष्ठ प्रेरणा है। इसमें विश्वकल्याण की भावना स्पष्टतः झलकती है। इसीलिए ऋषि दयानन्द जी ने आर्य समाज के लिए ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ अर्थात् ‘विश्व को आर्य बनाते चलो’ श्रेष्ठ और आदर्श वाक्य घोषित किया।

आर्य समाज ने समाज में, देशभक्ति की भावना जागृत करके ‘वेदों की ओर लौटो’ का सनातन-संदेश दिया। ऋषि जी की मान्यता थी वेदों को स्वीकार करने से सम्पूर्ण सत्य स्वीकार कर लिया जाता है। आर्य समाज के माध्यम से उन्होंने इस पर विशेष बल दिया कि वेद किसी भी समस्या का अन्तिम समाधान है- “मैं मानता हूँ कि चारों वेद, ज्ञान और धर्म संबंधी सत्यों के निदान हैं, स्वयं ईश्वर की वाणी हैं। उनमें केवल संहिता मंत्रों का संकलन है। वे त्रुटियों से पूर्णतः मुक्त हैं और स्वयंमेव सबसे बड़ी सत्ता हैं। वेदों की सत्ता की प्रामाणिकता के लिए किसी अन्य ग्रन्थ की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार सूर्य अथवा दीपक अपने प्रकाश से स्वयं अपने स्वरूप तथा ब्रह्माण्ड की अन्य वस्तुओं जैसे पृथ्वी को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार वेद प्रकाशित है।” अतः ऋषि जी की यह अवधारणा चरितार्थ होती है कि वेद भारतीय ज्ञान परम्परा के प्रथम स्रोत हैं। ‘ऋग्वेद’ विश्व की सबसे पहली और प्राचीन पुस्तक का लिखित दस्तावेज है, जो मानवता की धरोहर है।

आर्य समाज ने वर्णाश्रम-व्यवस्था को स्वीकारते हुए जाति-पाति, विघटनकारी होने के कारण इसका विरोध किया और सामाजिक समरसता पर विशेष बल दिया है। मुस्लिम आक्रांताओं और इसाईयों ने हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन करने के लिए विवश किया था, आर्य समाज ने उनकी घर वापसी करके श्रेष्ठ कार्य किया। आर्य समाज बहुदेववाद को अस्वीकार करता है तथा निराकार ईश्वर की आराधना का समर्थन करता है। आर्य समाज ने दलितों, स्त्रियों और हिन्दुओं के स्तर को ऊंचा उठाने के स्तुत्य प्रयास किए, जिसका मूल उद्देश्य हिन्दू धर्म को सुदृढ़ बनाना, रूढ़ि-विरोध और सामाजिक क्रान्ति द्वारा भारतीय इस्लाम, इसाई और उपनिवेशवाद का डटकर विरोध करना था। सती प्रथा, बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, भू्रणहत्या आदि बुराइयों के विरुद्ध आर्य समाज ने एक आन्दोलन चलाया और नारी-शिक्षा के क्षितिज खोल दिए।

आर्य समाज ने भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति के अनुसार गुरुकुल-प्रणाली में उपनिषदों के पंचकोश पर आधारित शिक्षा में मातृभाषा पर विशेष बल दिया, जिसको वर्तमान भारत की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति-2020 में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। आर्य समाज ने चरित्र निर्माण और व्यक्तित्व का समग्र विकास की शिक्षा में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया। आर्य समाज से ही प्रभावित होकर स्वामी श्रद्धानन्द जी ने सन् 1904 में गुरुकुल कागड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार और 13 अप्रैल 1912 में गुरुकुल कुरुक्षेत्र के साथ देश में अनेक शिक्षा-संस्थानों की स्थापना की। यही आर्य समाज की राष्ट्र निर्माण में स्वावलम्बन और आत्मनिर्भर बनाकर देश के युवाओं और आदर्श नागरिक बनाने में महत्त्वपूर्ण देन है।

ऋषि दयानन्द ने आर्य समाज के माध्यम से एक ऐसा आन्दोलन चलाया, जिसका उद्देश्य भारतीय सनातन वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करके गौरक्षा आन्दोलन चलाया, अनेक गौशालाओं की स्थापना की। धर्म, समाज, शिक्षा और साहित्य आदि क्षेत्रों में आर्य समाज का विशेष प्रभाव रहा। भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में भी आर्य समाज की महती भूमिका रही है। देव वाणी संस्कृत की रक्षा और हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अभूतपूर्व सफलता मिली। ऋषि दयानन्द जी ने अपने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को हिन्दी में लिखकर और सर्वप्रथम हिन्दी को आर्यभाषा (राष्ट्रभाषा) घोषित किया, जिसके कारण अहिन्दी भाषी प्रदेषों में भी हिन्दी का प्रचार-प्रसार हुआ। आर्य समाज ने पत्र-पत्रिकाओं, प्रवचनों, उपदेषों, सम्मेलनों, जीवन-चरित, निबंध, उपन्यास, अनुवाद-ग्रन्थ तथा पाठ्यपुस्तकों के रूप में अपार साहित्य की रचना की। स्वामी जी ने यज्ञीय वैदिक संस्कृति को पूरे देश में विकसित किया ओर योग को बढ़ावा दिया।

आज आर्य समाज के स्थापना की गौरवशाली यात्रा 150 वर्षों की हो चुकी है और महर्षि दयानन्द सरस्वती की 200वीं जयन्ती पूरे देश में मनाई जा रही है। इसलिए महर्षि दयानन्द सरस्वती और आर्य समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। इन दोनों को अलग-अलग करके नहीं समझा जा सकता। दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। स्वामी जी का जन्म 12 फरवरी सन् 1824 में गुजरात (काठियावाड़) के टंकारा ग्राम में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत और धर्मशास्त्रों के अध्ययन में हुई। तत्पश्चात वैदिक साहित्य का विस्तृत अध्ययन किया। जीवनभर ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत किया। मथुरा में स्वामी बिरजानन्द से दीक्षा ली और उनके आदेश अनुसार सम्पूर्ण सनातन जीवन वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना करके स्वाधीनता, स्वराज, स्वदेशी, स्वभाषा और स्व-संस्कृति की अद्भुत सेवा की। वे स्वामी विवेकानन्द और राजाराम मोहनराय से विशेष प्रभावित हुए तथा बंगाल के देवेन्द्रनाथ ठाकुर, केशवचन्द्र सेन, रामकृष्ण परमहंस और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से मिले। तत्पश्चात् मुम्बई में 10 अप्रैल सन् 1875 को आर्य समाज की स्थापना करके उसमें अपना सम्पूर्ण जीवन मानवता की सेवा में अर्पित किया और सन् 1883 में दीपावली के दिन गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हुए समाधिस्थ हो गए।

ऋषि दयानन्द भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, सामाजिक समरस्ता के प्रबल समर्थक, भारतीय नवजागरण के पुरोधा, भारतीय भाषाओं और सनातन भारतीय संस्कृति के पुजारी, ब्रह्मचर्य की साकार प्रतिमूर्ति, भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रमुख स्रोत, भारतीय साहित्य के निर्माता और भारतीय महान विभूतियों के उज्ज्वल नक्षत्र इतिहास में सदैव अमर रहेंगे। ऋषि दयानन्द ने लाला लाजपत राय, सरदार भगत सिंह, महात्मा हंसराज, पंडित लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, रामप्रसाद बिस्मिल, पंडित गुरुदत्त, स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती और बाबा रामदेव जैसे अनेक आर्यवीरों को देशभक्ति के लिए प्रेरित किया, जिन्होंने भारत माता की वेदी पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। आर्य समाज ने डी.ए.वी. संस्थाओं के माध्यम से देश और विदेशों में शैक्षणिक संस्थाओं का जाल बिछाया हुआ है। आर्य समाज को जिस एक वीर पुरुष ऋषि दयानन्द ने अपने समय में इतनी ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया था, परन्तु आज आर्य समाज के पुनरुद्धार की महती आवश्यकता है।

(लेखक पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र; पूर्व अधिष्ठाता (डीन), मानविकी संकाय, अध्यक्ष विवेकानन्द व्यक्तित्व विकास केन्द्र, चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी एवं वर्तमान में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग बाबा मस्तनाथ विश्वविद्यालय, रोहतक (हरियाणा) है।

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