स्वदेशी का पथ

 – गोपाल माहेश्वरी

देश उठेगा अपने पैरों निज गौरव के भान से।

स्नेह भरा सम्मान जगाकर जिएं सुख सम्मान से।

परावलंबी देश जगत में कभी न सुख पा सकता है

मृगतृष्णा में मत भटको छीना सब कुछ जा सकता है

मायावी संसार चक्र में कदम बढ़ाओ ध्यान से

अपने साधन नहीं बढ़ेंगे औरों के गुणगान से।।

राष्ट्रीय गीत प्रतियोगिता में सुधांशु कोशल यह गीत गा रहा था और सारी सभा मन्त्र मुग्ध होकर सुन रही थी। केशव कोशल की भावविभोर दशा देखी तो पास बैठे मधुकर मिश्रा ने उसे छूकर धीरे से पूछा पूछा “क्या हुआ भाई! कहाँ खो गए?”

“पहले गीत सुनो बातें बात में करेंगे।” केशव ने चुप करा दिया। गीत का अंतिम पद गाया जा रहा था –

आज देश की प्रज्ञा भटकी अपनों से हम टूट रहे।

क्षुद्र भावना स्वार्थ जगा है श्रेष्ठ तत्व सब छूट रहे।।

धारा स्व की पुष्ट करेंगे समरस अमृत पान से।

कर संकल्प गरज कर बोले भारत स्वाभिमान से।।

गीत समाप्त हुआ यह प्रतियोगिता का अंतिम गीत था। निर्णायकों ने इसे प्रथम घोषित किया। मंच से पुरस्कृत होकर सुधांशु जैसे ही नीचे उतरा केशव ने उसे गले लगा लिया। दोनों की आँखों में स्नेह का सावन घुमड़ आया। केशव के स्नेहमय आलिंगन के बाद मधुकर मिश्रा भी सुधांशु से ऐसे ही मिला। तीनों मित्र अपने छात्रावास के कक्ष में लौट आए। अब केशव ने ही पूछा “बोल मधुकर क्या कहना था तुझे?”

“कुछ नहीं बस यही पूछ रहा था कि गीत सुनते हुए तुम कहाँ खो गए थे?”

“गीत के भाव इतने अच्छे थे, इतने मार्मिक कि सीधे हृदय तक पहुँच गए और सुधांशु ने गाया भी इतना ही भावपूर्ण।” उसने सुधांशु की ओर प्रशंसा पूर्ण दृष्टि से देखते हुए मधुकर को उत्तर दिया।

“दोनों कोशल कोशल हो गीत अच्छा तो लगना ही था।” मधुकर ने विनोद किया पर केशव और सुधांशु हँसे या मुस्कुराए भी नहीं।

“छि:, सुधांशु और हम इसलिए अपने नहीं हैं कि हमारी जाति एक है बल्कि हम तीनों इसलिए गहरा अपनापन रखते हैं कि हमारे विचार, संस्कार एक से हैं। और गीत इसलिए अच्छा था कि उसमें कही गई बातें कोरी भावुकता नहीं है बल्कि आज की बहुत बड़ी सच्चाई है, चेतावनी है, समाधान की प्रेरणा है।” मधुकर को अपनी ग़लती समझ आ गई। उसने कान पकड़ लिए।

“गीत में स्व की धारा पुष्ट करेंगे, ऐसी एक पंक्ति है यह स्व की धारा क्या है? मैंने गीत तो गाया पर यह पूरी तरह समझ में नहीं आया।” सुधांशु ने स्पष्ट रूप से बिना संकोच पूछ लिया।

केशव ने कहा, “बन्धु! थोड़ा तो मैं भी समझा सकता हूँ पर क्यों न हम बगीचे वाले दादाजी से इसे समझें?” सभी सहमत होकर छात्रावास के सामने वाले सार्वजनिक उद्यान में कुछ बच्चों द्वारा फैंके बिस्कुट और कुरकुरों के रैपर उठाकर सूखे कचरे के कूड़ादान में डालते दादाजी के पास जा पहुँचे।

उद्यान के बड़े पीपल के पेड़ के पेड़ वाले चबूतरे पर उनकी बैठक जम गई। आज की चर्चा का मुख्य विषय स्व की धारा ही था। दादाजी बताने लगे “देखो बच्चो! यह स्व एक ऐसा भाव है जिसमें सर्व शक्तियां समाहित हैं। स्व एक आध्यात्मिक भाव है।” मधुकर सिर खुजलाने लगा। दादाजी समझ गए बात उसके सिर के ऊपर से जा रही है। केशव हँस दिया “दादाजी! विनोद कर रहे हैं मधुकर!”फिर दादाजी से बोला “दादाजी हमें समझना है और आप तो जानते ही हैं ……”

दादाजी बोले “बच्चे ही हो यही न? चलो मैं भी बच्चा बन कर समझाता हूँ। फिर पूछा अच्छा बताओ अमेरिका, इंग्लैंड, चीन, रूस, भारत और साऊदी अरब में क्या अंतर है?” दो पल सोचा फिर सुधांशु बोला “भारत हमारा है बाकी हमारे नहीं है।”

“भारत ही हमारा क्यों है?”

“क्योंकि हम यहीं जन्मे यहीं बड़े हो रहे हैं और यहीं रहते हैं।” सुधांशु ने कहा।

“अच्छा और भी कोई कारण?” दादाजी बोले।

“हमारे पूर्वज भी यहीं रहते थे।” मधुकर ने जोड़ा।

“कब से?” अब उत्तर में केशव ने पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन की कविता की पंक्तियां सुना दीं जो इस प्रकार थीं।

“जिस दिन सबसे पहले जागे नव सिरजन के स्वप्न घने।

जिस दिन देश-काल के दो-दो विस्तृत विमल वितान तने।

जिस दिन नभ में तारे छिटके जिस दिन सूरज चाँद बने।

तब से है यह देश हमारा यह अभिमान हमारा है।

भारतवर्ष हमारा है यह हिन्दुस्थान हमारा है।।”

सबने ताली बजाई। दादाजी ने प्रशंसा करते हुए कहा “उत्तम केशव! बहुत बढ़िया। बच्चों हमारा भारत देश विश्व का प्रथम राष्ट्र है और इस कारण हमारी परंपरा भी बहुत प्राचीन है। हमारे पूर्वज ऋषियों ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और हर अवस्था का गहरा अध्ययन किया और उसे अपने व सबके सुख के लिए एक जीवन पद्धति विकसित की। इसी जीवन पद्धति को हिंदू धर्म या सनातन धर्म कहते हैं। स्व की धारा का प्रमुख स्वरूप यह जीवन-पद्धति ही है।”

“हिन्दू तो धर्म है न?” मधुकर का प्रश्न था।

“बिल्कुल हमारा स्वधर्म हिन्दू ही है।” मधुकर संतुष्ट न था। दादाजी हँसते हुए बोले “मैं समझ रहा हूँ तुम्हारी उलझन। धर्म यानि पूजा, पाठ, आरती, हवन, तीर्थयात्रा, भोजन-भंडारा केवल इतना नहीं है। यह धर्म को साधने की कुछ विधियां हैं। सनातन जीवन मूल्यों के आधार पर जीवन जीना यह ही धर्म है जिसके कुछ मूलभूत आधार हैं, सिद्धांत हैं। धर्म यानी कर्तव्य।”

“दादाजी! हम स्व की धारा पर बात कर रहे थे।” सुधांशु को लगा हम विषय से भटक रहे हैं।

दादाजी ने समझाया “अपने स्वदेश की सनातन सांस्कृतिक परंपरा, आदर्शों व मूल्यों के आधार पर चिंतन, मनन, आचरण करना ही स्व की धारा है। सांस्कृतिक परंपरा में बहुत सी बातें सम्मिलित होती हैं।”

“जैसे क्या क्या दादाजी!” केशव की जिज्ञासा थी।

“संस्कृति में हमारे संस्कार, हमारी वेशभूषा, हमारा भोजन, हमारी वेशभूषा, हमारे पर्व त्यौहार, हमारे मानबिंदु, हमारे पूर्वज महापुरुष, हमारी भाषाएं, हमारे ग्रंथ, ज्ञान-विज्ञान-कला-कौशल-कृषि-व्यापार आदि की उपलब्धि, अनुसंधान, आविष्कार और प्रचलन सब स्व की धारा के ही रूप हैं। एक शब्द में समेटें तो स्वदेशी परंपरा। गीत में इसी को पुष्ट करने की बात कही है लेकिन जैसा कि गीत के पहले पद की पंक्ति में जिस ‘मायावी संसार चक्र’ की बात कही है उसमें हमारी नई पीढ़ियां फंसी हुई हैं। उसी से बाहर लाने के लिए स्वदेशी चिंतन को व्यवहार में उतारना आवश्यक है।”

पश्चिम में डूबते सूरज के साथ अंधेरा गहराने लगा तो सबको अपने-अपने चिंतन के दीप जलाने को कहकर दादाजी ने यह सत्संग सभा विसर्जित की।

लौटते हुए तीनों मित्र आपस में चर्चा करने लगे। मधुकर कहने लगा “आज दादाजी ने मेरे तो मन मस्तिष्क के सारे तार झनझना दिए। देखो न, हमारे प्रतिदिन के सामान्य जीवन में खाने, पहनने, बोलने जैसे सामान्य कामों में हम विचार ही नहीं करते कि क्या हमारा है क्या हम पर थोपा हुआ है? बस जो किसी भी तरह हमारे जीवन जीने के ढंग पर लद गया हम उसे ढोते जा रहे हैं?” सुधांशु को लगा मधुकर ने दादाजी की बातों को बहुत गंभीरता से लिया है। वे छात्रावास के पास वाले दुर्गा मंदिर के बाहर वाले उद्यान की घास पर बैठ गए।

केशव कहने लगा “देखो मधुकर! बात तो बिल्कुल सही है, लेकिन यह भटकाव या यों कहें कि एक प्रकार का प्रदूषण वर्षों हमारी जीवन शैली में धीरे-धीरे घुलता रहा है इसलिए इसमें यदि परिवर्तन लाना है इसे शुद्ध करना है तो उसमें समय भी लगेगा। एक दिन अचानक कोई विचार मन में बैठ गया और तत्काल उसके अनुसार परिवर्तन हो जाए यह असामान्य बात है। क्योंकि आदत एक दम से नहीं बदलती।”

सुधांशु बीच में ही बोल पड़ा “लेकिन मित्रो! कोई विचार कितना दृढ़ है इसी पर निर्भर करता है कि उसको व्यवहार में लाने में कितना समय लगेगा। परिवर्तन किस गति से होगा?”

“और बात केवल हमारे बदलने की नहीं है, पूरे समाज में जागृति लाना है तो हमें आरंभ अपने से करना होगा।” केशव ने कहा तो सुधांशु और मधुकर ने सहमति सूचक सिर हिलाया।

“तो मित्रो! क्यों न आज से और अपने ही आरंभ हो जाए? हम छोटे-छोटे कुछ संकल्प लेते हैं एक एक चरण बढ़ाते हैं फिर इस यात्रा को आगे बढ़ाते हुए निश्चय ही एक दिन पूर्ण लक्ष्य भी प्राप्त कर ही लेंगे।” मधुकर ने दृढ़ स्वरों में मुट्ठी बांध कर कहा।

“संकल्प पक्का तो सिद्धि सुनिश्चित” दोनों मित्रों ने दादाजी का सिखाया हुआ यह मंत्र कहते हुए मधुकर की बंधी मुट्ठी पर अपने-अपने हाथ रखते हुए कहा।

मधुकर ने कहा “कहीं भी पूजा-पाठ हो या धार्मिक, सांस्कृतिक कार्यक्रम मैं भारतीय वेश ही पहनूंगा।”

केशव ने कहा “मेरी मातृभाषा मेरा गौरव है इसलिए हाय हैलो वेलकम थैंक्यू सॉरी बाय-बाय नहीं अब से राम-राम, नमस्ते, स्वागत है, आइए, धन्यवाद कितने ही शब्द हैं हमारे यहाँ उन्हीं का प्रयोग करूंगा।”

सुधांशु ने व्रत लिया “मैं अपना जन्मदिन केक काटकर नहीं भारतीय पद्धति से दीप प्रज्ज्वलित करके ही मनाऊंगा! पिज़्ज़ा बर्गर, बिस्किट, केक, ब्रेड, पेस्ट्री बेकसमोसा जैसे फास्ट-फूड और जंकफूड की अपेक्षा जहाँ तक हो सके ताजा पौष्टिक भारतीय व्यंजन का ही उपयोग करूंगा।”

“चलो आज हमने स्वदेशी की ओर एक चरण तो बढ़ाया।” मधुकर उत्साह से बोला, तो केशव ने तपाक् से प्रतिवाद किया।” एक नहीं तीन चरण।”

“वह कैसे?” सुधांशु और मधुकर ने एक साथ पूछा।

“अरे! हम तीनों मित्र हैं परस्पर एक दूसरे को अपने-अपने निश्चय याद दिलाते रहने का दायित्व हमारा ही तो है। अब हम याद दिलाएँगे तो क्या स्वयं पालन नहीं करेंगे? हो गए न तीन चरण? दादाजी कहते हैं न जब हम एक चरण बढ़ाते हैं तो केवल एक पग बढ़ते हैं लेकिन कई लोग एक दिशा में एकसाथ चरण बढ़ाते हैं तो समाज की पग आगे बढ़ जाता है।” केशव की बात पर साथ तीनों मित्रों का सम्मिलित ठहाका गूंज उठा।

वे छात्रावास की ओर बढ़े तो सुधांशु को याद आया “हम जरा मॉल में होते चलें कुछ सामान खरीदना है?”

केशव ने उसका हाथ दबाया और माल से आगे गली के मोड़ पर मोहन किराना भंडार पर ले जाकर खड़ा कर दिया। साबुन, टूथपेस्ट और चाय शक्कर खरीदना थी। साबुन, टूथपेस्ट को उठाकर जांचा वे स्वदेशी ही थे, लेकिन सामान के कुछ पैसे कम पड़ गए। दुकानदार राधे काका ने बड़े स्नेह से कहा “कोई बात नहीं बेटे! बाकी पैसे आते-जाते दे जाना।” कहते-कहते एक कपड़े की थैली में रखकर सामान हाथ में थमा दिया।

“धन्यवाद काका! यह थैली भी मैं  लौटा दूंगा।” सुधांशु बोला।

“नहीं बेटे! यह हमेशा साथ रखना ताकि प्लास्टिक, पोलीथिन की थैलियों का उपयोग न करना पड़े और धरती माता पर जानलेवा कचरा न फैले।” राधे काका जैसे साधारण दिखने वाले किराने के छोटे से व्यापारी की सोच इतनी गहरी होगी यह जानकर तीनों मित्र सुखद आश्चर्य में डूब गए। सुधांशु को याद आया कि कैरीबेग का भी अलग से पैसा वसूलने वाले बहुमंजिला मॉल से यह छोटी सी दुकान कितनी अच्छी है।

चलते-चलते केशव ने पूछ ही लिया “काका! आप भी संघ वाले हैं क्या?” राधे काका केवल मुस्कुरा दिए। उनकी मुस्कुराहट में छुपी हाँ भला कैसे छुपी रह सकती थी?

वहाँ से आगे बढ़ चुके तो सुधांशु ने पूछा “काका ने हाँ क्यों नहीं कह दिया बस मुस्कुरा कर रह गए!!”

मधुकर ने अपना मत बताया “संभवतः वे यह चाहते हों कि स्वदेशी की बात करने वाले, उसे अपनाने वाले और उसका आग्रह करने वाले केवल संघ के लोग ही हैं इससे आगे बढ़कर हर भारतीय  नागरिक की सोच में स्वदेशी भाव समा जाए इसलिए सामान्य नागरिक बनकर यह संदेश पहुँचना चाहिए।”

“संभवतः ऐसा हो।” केशव ने कहा। अब तक वे छात्रावास पहुँच चुके थे।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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