मातृहस्तेन भोजनम्!

– दिलीप वसंत बेतकेकर

 

 

 

 

वर्तमान की बदलती हुई जीवन शैली के कारण व्यक्तियों और परिवारों का आहार की ओर दुर्लक्ष्य होता जा रहा है। एक जमाने का ‘घर का जैसा स्वादिष्ट’ समीकरण अब बदलता जा रहा है। हम अन्न खाते हैं, परन्तु जंकफ़ूड तो हमें ही खाने के लिए दौड़ पड़ा है। प्राचीन काल में श्रीकृष्ण ने ऋषि दुर्वासा से वरदान मांगा था, “मुझे आजन्म मां के हाथ का खाना मिले”! दुर्वासा मुनि ने प्रसन्न होकर ‘तथास्तु’ कहा। श्रीकृष्ण को अंत तक मां के हाथ का भोजन प्राप्त हुआ। आज प्रत्येक घर के ‘श्रीकृष्ण’ को मां के हाथ का भोजन मिलता है क्या?

ऋषि जमदग्नी और ऋषि दुर्वासा, दोनों ही क्रोधी स्वभाव के लिए ख्यात थे। एक बार दुर्वासा ऋषि ने श्रीकृष्ण की परीक्षा लेने का निश्चय किया। श्रीकृष्ण को गुस्सा आता है अथवा नहीं, यह उन्हें जांचना था। इस उद्देश्य से वे द्वारका गये। श्रीकृष्ण ने उनका यथोचित स्वागत किया। दुर्वासा ऋषि ने परीक्षा हेतु लगने वाली विविध सामग्री बाहर निकाल कर रख दी। किसी को भी गुस्सा आए ऐसा वह व्यवहार कर रहे थे। विविध प्रकार से उन्होंने श्रीकृष्ण को अपमानित-प्रताड़ित किया परन्तु श्रीकृष्ण पूर्ण समय अत्यंत शांत रहे। अपने मन का संतुलन जरा भी खोए बिना सारा व्यवहार चलता रहा। वे जरा भी गुस्सा नहीं हुए। अंत में ऋषि प्रसन्न हुए और बोले, “भगवन्, मैने आपकी परीक्षा ली। आप जितेंद्रिय हो। आप विजयी हुए हैं। कोई भी वरदान मांग लीजिये।”

श्रीकृष्ण को कुछ भी आवश्यकता नहीं थी। वे कुछ भी नहीं मांग रहे थे। ये देखकर दुर्वासा ने उनसे विनती कर कहा, “भगवन्, आपको यद्यपि कुछ भी नहीं चाहिये, फिर भी मेरे समाधान के लिये ही कुछ मांग लें।”

दुर्वासा मुनि के इस आग्रह पर श्रीकृष्ण ने उनसे वर मांगा।

“ऋषिवर, यदि आप वास्तव में संतुष्ट हुए हैं तो कृपया मुझे एक वरदान दीजिये, केवल एक ही वर!” प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने ‘तथास्तु’ कहा। अतः श्रीकृष्ण को अंत तक माँ के हाथ का भोजन प्राप्त हुआ।

लोग सिनेमागृह में जाकर सिनेमा देखते और भोजन करने बाहर होटल में जाते हैं। माँ को घर पर भोजन बनाने के लिए समय नहीं है, और बच्चे बाहर का चटपटा खाना पसंद करते हैं। कारण कुछ भी हो, परंतु वस्तुस्थिति यही है। बड़े शहरों में अनेक लोग कार्यालय से घर वापस लौटते समय ‘पार्सल’ लेकर लौटते हैं। कभी-कभी बदलाव हेतु बाहर खाना अलग बात है किन्तु नियमित रूप से बाहर खाना अलग।

हमारे गोवा में तो लोग प्रातः जागते ही हैं ‘पदेर के’ पों-पों बजने वाले हॉर्न से! अन्य महानगरों में यही स्थिति है। सुबह-शाम पाव, अंडे, रोटी, बेकरीवाले से खरीद करने वाले अनेक परिवार हैं। युवतियां चपाती बनाना जानती नहीं। पाव-ब्रेड पर ही जीने वाली ये पीढ़ी पाव जैसी ही निःसत्व और पोली-कमजोर बनती जा रही है। बालकों को भी पाव, रोटी, केक आदि का ही शौक है। बेकरी में खाद्य सामग्री बनानेवाले कर्मचारीगण की मनःस्थिति और बेकरी के अंदर की परिस्थिति को जरा दृष्टि समक्ष लाने का प्रयास करें।

अलससुबह इन कर्मचारियों को अधकच्ची नींद से जगाया जाता है। वे भी मनुष्य ही होते हैं। उन्हें भी पूरी नींद आवश्यक है। परन्तु मजबूरी में उठना पड़ता है। चिड़चिड़ाते हुए, बड़बड़ाते हुए, उठापटक करते हुए वे जागते हैं और काम में व्यस्त हो जाते हैं। उनकी मनःस्थिति का प्रभाव उनके द्वारा तैयार किये गए खाद्य पदार्थों पर पड़ता है।

इस संदर्भ में जापानी वैज्ञानिक डॉ० मसारू इमाटो द्वारा किये प्रयोगों द्वारा ‘भाव-भावनाओं का अन्न पर प्रभाव’ बहुत ही उद्बोधक सिद्ध हुआ।

अन्न पर उसे तैयार करने वाले की मानसिकता का प्रभाव पड़ता है। ऐसा पदार्थ खाने पर उसे खाने वाले पर भी प्रभाव पड़ता ही है ये बात अलग से कहना आवश्यक नहीं। साफ सफाई, स्वास्थ्य की दृष्टि से रेस्टोरेंट, बेकरी के पाश्र्वभाग कैसे होते हैं, ये प्रत्यक्ष देख सकते हैं। ऊपर से सुंदर दिखने वाले खाद्य पदार्थ मानव को शरीर के भीतर से धीमे-धीमे जर्जर करते जा रहे हैं। ये बात खाने वाले की समझ में नहीं आती है। पालकों के अंधप्रेम के कारण बच्चों के स्वास्थ्य को खतरे का सामना करना पड़ रहा है।

आज के बहुसंख्यक पालक दिखावा अधिक पसंद करते हैं। पालकों की सभा में अनेक स्थानों पर मैंने मजाक में ही प्रश्न पूछा कि मान लो आपके घर दो मेहमान आये। एक मेहमान ने आपके बच्चों को कॅडबरी चोकलेट दिये और दूसरे मेहमान द्वारा घर के बने मूंगपफली के दानों से बने लड्डू दिये गये तो आपकी दृष्टि में वी.आई.पी. मेहमान किसे आंकेंगे? बहुसंख्य पालकों का उत्तर मिला – ‘कॅडबरी लाने वाला’।

एक बार विचारों में अफरातफरी निर्मित होने पर सर्वत्र ही अफरातपफरी होने लगती है। विद्यालयों में मिलने वाले मध्याह्न भोजन के सम्बन्ध में भी आश्चर्यजनक किन्तु निराशा करने वाला अनुभव सामने आया। बच्चों को पोहे, उपमा, हलुआ ऐसे पदार्थ पसंद नहीं दिखे। ऐसे पदार्थ बाहर फेंक दिए जाते हैं। गोवा के बच्चों का एकमेव पदार्थ जो उन्हें पसंद है वह है ‘पाव-भाजी’! घर से आने वाले विद्यार्थी, जो घर पर बने पदार्थ साथ लाया हो, संख्या में अत्यल्प ही होते हैं।

लोगों को दूध महंगा लगता है परन्तु पेप्सी जैसे हानिकारक पेय उन्हें महंगे नहीं लगते। इसे मूर्खता ही कहा जा सकता है – और क्या!

घर पर बनाये पदार्थों के लिये अरुचि दिखाना और बाजार में बिकने वाले निकृष्ट स्तर के खाद्य पदार्थ बड़े चाव से खाना, उन पर टूट पड़ना इसी में अपने को धन्य समझना, यही है ‘वर्तमान’, ‘आज’!

इस दिखावे वाले दिन कब समाप्त होंगे? कब लोगों को इसकी समझ आयेगी? ये बातें यदि जल्द ही संज्ञान में नहीं लाई गई तो ‘मधुमेह’ और ‘रक्तदाब’ से पीड़ित बच्चे पालकों को ही दोष देंगे और उन्हें ही जिम्मेदार ठहरायेंगे!

(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)

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