– रवि कुमार
जीवन स्वस्थ रहा तो सब कुछ अच्छा रहता है। स्वास्थ्य का सम्बन्ध शारीरिक व मानसिक दोनों से ही है। स्वास्थ्य के लिए श्रीमद भगवत गीता में लिखा है – “युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नाव बोधस्य योगो भवति दु:ख”।। आहार-विहार सब ठीक रहा तो स्वास्थ्य अच्छा ही रहेगा। केवल शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, मानसिक स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। आहार अर्थात जो हम ग्रहण करते है। शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है। ये पांच तत्व है – भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश। जल व वायु के अलावा जो हम ठोस रूप में ग्रहण करते है वह भूमि तत्व है। भूमि तत्व अर्थात भोजन – अनाज, दालें व सब्जी। इनका सीधा संबंध रसोई से है। इस लेख में हम भारतीय परंपरागत रसोई के बारे में विचार करेंगे।
भारतीय समाज ने आधुनिकता के नाम पर भारतीय परंपरागत रसोई को बदल दिया है। इसलिए उसके सामने स्वास्थ्य का बड़ा संकट खड़ा हुआ है। डॉक्टर भी बढ़ रहे है और ओपीडी भी बढ़ रही है। उसका बड़ा कारण हमारी बदली हुई रसोई है।
भारतीय रसोई का प्रकार – भारतीय रसोई कच्ची की बजाय पक्की और नीचे बैठकर निर्माण करने की बजाय खड़े होकर बनाने वाली हो गई है। इसी प्रकार नीचे पालथी मारकर बैठना और भोजन करना इसकी बजाय कुर्सी पर बैठकर भोजन करना हो गया है। निचे पालथी मारकर भोजन करना हमारी पाचन क्रिया बढाता है। हमारी रसोई हवादार यानि वातानुकूलित हो। शुद्ध हवा रसोई में ठीक से आ जा सके इसका ध्यान रखना आवश्यक है। शुद्ध हवा भोजन निर्माण करने वाले की मानसिकता एवं खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता पर प्रभाव डालती है।
दूसरा, रसोई की शुद्धता व स्वच्छता का ध्यान रखना भी आवश्यक है। आजकल इसका ध्यान सहज रूप में रखा जाता है, ऐसा कह सकते है। परंतु शुद्धता व स्वच्छता के संबंध में एक मूल बात ध्यान करवाना चाहूंगा। रसोई में घर के कितने लोगों का प्रवेश होता है। प्रायः सबका! जो प्रवेश करते है, वे स्नान आदि करके रसोई में प्रवेश करते है? ऐसा दिखता तो नहीं! क्या जूते-चप्पलों का भी रसोई में आना जाना होता है? प्रायः जो रसोई में आता है, जूते-चप्पल लेकर ही आता जाता है। तो फिर शुद्धता-स्वच्छता कैसे हो सकती है?
बर्तनों के प्रकार – प्राचीन काल में रसोई में उपयोग होने वाले बर्तन मिट्टी के उपयोग होते थे। आजकल ये बर्तन लुप्त प्राय हो गए है। रसोई में मिट्टी के बर्तनों का उपयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वाधिक उपयुक्त है। जल के लिए मिट्टी के घड़े का उपयोग होता है तो जल शीतल रहता है, मिट्टी के संपर्क में रहने से जल की अनेक न्यूनताएँ ठीक होती है और गर्मी के मौसम में शीतल होने के बावजूद गले को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता। घड़े में रखे जल को शीतल होने में 6 से 8 घंटे लग जाते है। मिट्टी में ऐसे पोषक तत्व मिलते हैं, जो हर बीमारी को शरीर से दूर रखते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, अगर भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनने के लिए उसे धीरे-धीरे ही पकना चाहिए। मिट्टी के बर्तनों में खाना बनने में थोड़ा ज्यादा समय लगता है। दूध और दूध से बने उत्पादों के लिए मिट्टी के बर्तन सबसे उपयुक्त हैं। मिट्टी के बर्तन में खाना बनाने से पोषक तत्व नष्ट नहीं होते हैं। उपलब्धता के आधार पर मिट्टी के बर्तनों का उपयोग अपनी रसोई में बढ़ा सकते है।
सभ्यताओं के विकास के साथ-साथ मनुष्य की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धातु का उपयोग भी बढ़ा। उसमें तांबे, कांसे, पीतल एवं लोहे के बर्तनों का उपयोग होने लगा। इतिहास में राज-घरानों में सोने व चांदी के बर्तनों का वर्णन है। काँसे के बर्तन के उपयोग से बुद्धि तेज, रक्त में शुद्धता एवं रक्तपित्त शांत रहता है और भूख अच्छी लगती है। लेकिन काँसे के बर्तन में खट्टी चीजे परोसने से इस धातु से क्रिया करके विषैली हो जाती है जो नुकसान देती है। तांबे के पात्र में रखा पानी पीने से व्यक्ति का रक्त शुद्ध होता है, स्मरण-शक्ति अच्छी होती है और लीवर संबंधी समस्या दूर होती है। तांबे का पानी शरीर के विषैले तत्वों को खत्म कर देता है। तांबे के बर्तन में दूध का सेवन नहीं करना चाहिए। पीतल के बर्तन का उपयोग भोजन पकाने और करने से कृमि रोग, कफ और वायुदोष की बीमारी नहीं होती। पीतल के बर्तन में खाना बनाने से केवल 7% पोषक तत्व नष्ट होते हैं।
लोहे के बर्तन में बने भोजन खाने से शरीर की शक्ति बढ़ती है, लोहतत्व शरीर में जरूरी पोषक तत्वों को बढ़ता है। लोहे के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए। स्टील के बर्तन ना ही गर्म से क्रिया करते है और ना ही अम्ल से इसलिए नुकसान दायक नहीं होते। इसमें खाना बनाने और खाने से शरीर को कोई फायदा भी नहीं पहुँचता। एल्युमिनियम बोक्साईट का बना होता है, यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है। इससे शरीर को सिर्फ नुकसान ही होता है। इसलिए इससे बने पात्र का किसी भी रूप में उपयोग नहीं करना चाहिए।
भारतीय मसाले – सामान्यतः रसोई में जो मसाले सब जगह उपयोग होते है – नमक, मिर्च, हल्दी। कोई भी सब्जी या नमकीन भोज्य पदार्थो के निर्माण में ये तीनों न्यूनतम उपयोग होते ही है। इसके अलावा जीरा, धनिया, अजवायन, सौफ, हरी इलायची, काली मिर्च भी कुछ रसोइयों में मिल जाएगी। वर्तमान समय एवं नई पीढ़ी में रसोई सम्भालने वाली महिलाओं को उपरोक्त मसालों के बारे में ही पता होगा। कुछ महिलाओं को ये भी नहीं पता होगा कि मसालों का सही उपयोग यानि किस खाद्य पदार्थ में किस मसाले का उपयोग होना है। कुछ और मसालों का जिक्र यहाँ करता हूँ – हींग, राई, कढ़ीपत्ता, तेज पत्ता, सौंठ, लौंग, मेथी, पीपली, दाल चीनी, जायफल तथा जावित्री, काली व बड़ी इलायची, कसूरी मेथी, तुलसी बीज, काला तिल के बीज, काला जीरा, कसूरी मेथी, अरारोट, अमचूर, अनारदाना, अलसी, सूखा आंवला, कलौंजी, जख्या, खसखस, काला नमक, सेंधा नमक, शेजवान काली मिर्च, सफ़ेद/दखनी मिर्च, केसर सोडा, बेकिंग पाउडर, खमीर, लहसुन नमक, अदरक पाउडर, इमली, सफ़ेद तिल, कतीरा गोंद, हरड, मुलठी, सुखा पुदीना, साबूदाना, राम तिल, गुल मेहंदी, फिटकरी, टाटरी, काली व पीली सरसों का तेल आदि।
उपरोक्त सभी मसालों में औषधीय गुण होते है। भोज्य पदार्थों के साथ मसालों का उपयोग उनकी पौष्टिकता, स्वाद वृद्धि एवं सुपाच्य होने के अलावा, स्वास्थ्य की दृष्टि से औषधीय गुणों में वृद्धि एवं उस भोज्य पदार्थ से होने वाली व्याधि को भी कम करने का काम करता है। परन्तु यह तभी संभव है जब इन मसालों के सही उपयोग की जानकारी हो।
अनाज, दालें एवं सब्जियों का भण्डारण तथा उनका सही उपयोग यह भी अत्यंत आवश्यक है। अधिक पैदावार लेने के लिए इनके उत्पादन में रसायनों का उपयोग बड़ी मात्रा में होता है। रसायन/जहर मुक्त भोजन यह आजकल कुछ लोगों की चर्चा का विषय बना है। हमारे घर की रसोई में भी रसायन/जहर मुक्त भोजन बने इसका भी विचार किया जाना आवश्यक है। आज देशभर में कुछ किसान रसायन/जहर मुक्त अनाज, दालों एवं सब्जियों के उत्पादन में आगे आएं हैं। माँग व आपूर्ति ये दोनों विषय इस परिपेक्ष में जुड़े है।
अब प्रश्न उठता है कि इस आधुनिकता के युग में हमारी आधुनिक रसोई भारतीय परंपरागत रसोई कैसे बने। नए परिपेक्ष में परंपरागत बातों को कैसे जोड़ सकते है, इसका विचार आवश्यक है। परिवार की सेहत के लिए भोजन की गुणवत्ता से समझौता ये भी ठीक नहीं है। फिर ये बात हमारे स्वास्थ्य की है जोकि स्टेटस से बड़ी है। स्वास्थ्य ठीक रहा तभी जीवन का अस्तित्व है। कोरोना काल में सबसे अधिक चर्चा शरीर की प्रतिरोधी क्षमता की हुई है जिसकी वृद्धि के लिए हमारी रसोई का भारतीय परम्परागत रसोई बनना अति आवश्यक है।
(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
और पढ़े : मातृहस्तेन भोजनम्!