– परिणिता सिन्हा
आज के इस व्यवसायिक युग में बच्चों की प्रतिमा चहूँमुखी निखरे, यह एक चुनौती पूर्ण बात लगती है। पर, जब हम आयु के लगभग द्वितीय पड़ाव तक पहुंचते हैं तो लगता है कि हमारी कई काबलियत स्वरूप ही नहीं हो पायी । मसलन किसी में नृत्य, कला, संगीत संबंधी विशिष्टता थी तो कोई खेल कूद में खास था।
हमारा बचपन एक ऐसी सोच के साथ आकार लेता है कि हमें वही लक्ष्य निर्धारित करना है जिसमें धन की पर्याप्तता एवं स्थायित्व हो। फिर, हम अपने अभिभावक के व्यवसाय से काफी प्रभावित होते हैं जैसे अगर माता–पिता डॉक्टर, इंजीनियर, वकील या प्रशासनिक सेवा में हो तो हमारा भविष्य पहले ही तय कर लिया जाता है। इस सोच से बिलकुल परे हमारी प्रतिभा किस क्षेत्र में विशिष्ट थी? आज सोशल मीडिया भी बच्चों की सोच को प्रभावित कर रहा है।
अगर आप अपनी पिछली पीढ़ी की ओर देखे तो पायेंगे कि पहले हमारा सामाजिक दायरा बहुत विस्तृत हुआ करता था। हमारे रीति-रिवाज, पौराणिक परम्पराओं के पीछे एक सोच थी समाज को एक सूत्र में जोड़ने की। समय के साथ इनका स्वरूप बदल रहा है। अब बच्चे इन्हें नहीं मानते हैं। उन्हें अब ये निरर्थक-सी प्रतीत होती हैं। यहीं पर अभिभावक की बड़ी भूमिका होती हैं। वे ही इन मूल्यों की तर्कसंगतता बच्चों को समझा सकते हैं।
बच्चों पर पारिवारिक प्रवेश का बड़ा असर होता है। वे प्रकृति को, संस्कृति को, आचार-विचार को, सामाजिक व्यवहार को सर्वप्रथम घर से ही सीखते है। बच्चों की दिनचर्या पर हमारी पैनी नजर होनी चाहिए। बच्चों का खान-पान, व्यायाम, साफ–सफाई, पहनावा कई दैनिक जीवन से जुड़ी क्रियाए व्यवस्थित होंगी, नियमित होंगी तो हम बच्चों का सुंदर व्यक्तित्व निर्माण कर पायेंगे। इसके इलावा हमें उन्हें मानव मूल्यों के प्रति भी जागरूक करना चाहिए ताकि वे किसी भी जीव के प्रती संवेदनशील रहें । बजुर्गों, दिव्यंगों के प्रति अपना दायित्व समझें।
मैंने कई लोगों को देखा है की वे अपने बच्चों को औपचारिकता तो बखूभी सिखा देते हैं लेकिन उनमें भावनाए नही होतीं। वे नित्य बड़ों को या पड़ोसियों को ‘गुड मोर्निंग’, ‘गुड नाईट’ तो कह देंगे, लेकिन जब किसी की मदद करनी होगी तो बखूबी टाल जायेंगे । अगर बच्चों को हम संवेदनशील, जिम्मेदार और संस्कारी बनाते हैं तो न सिर्फ वे हमारे देश के बेहतर नागरिक बनेगे, अपितु हमारे परिवार का भी माहोल अच्छा रहता है और पीढ़ी दर पीढ़ी पूर्णत: नही तो अंशत: भी हमारे संस्कार जीवित रहेंगे।
हमारे बच्चों के व्यक्तित्व में अगर सम्पूर्णता आती है तो हमारी परवरिश सफल हो जाती है। हमें उनकी मनोवृत्ति को व्यापकता देनी चाहिए ; ताकि वे हर पहलू की सकारात्मकता और नकारात्मकता को देख सकें, परख सके और आत्मचिंतन कर सकें।
अभी हाल ही के दिनों में मैं अपने दोस्त के घर गई वे लोग आर्थिक रूप से काफी संपन्न हैं। उनके घर में काम करने के लिए बीसियों लोग हैं। लेकिन उसके घर के लोगों के बीच आत्मीयता का पूरा अभाव महसूस किया। उनका आपसी सम्पर्क घर के मौजूदा स्टाफ के द्वारा ही होता है अगर सानिया को अपने बेटे के बाहरी दौरे के बारे में पूछना हो तो ड्राईवर से पूछती है। मैं स्तब्ध थी कि आज के आधुनिक युग में लोगों के पास इतने संचार के साधन मौजूद हैं तो आपस में इतनी दूरी क्यूँ हैं? सारे लोग घंटों फोन पर लगे रहते हैं। देश विदेश के लोगों से इतना सम्पर्क बनाये हैं लेकिन आपस में इनमें कोई सम्पर्क नहीं हैं ।
मैंने सानिया से पूछा की तुम्हारे घर में ऐसा माहोल क्यों है? वो कहने लगी कि अगर मैं अपने बच्चों को फोन करती हूँ तो वे पहली बात यही पूछते हैं कि मम्मा! आपने फोन किया, क्या हो गया?
रिश्तों में इतनी ओपचारिकता हो जाए की फोन पर बात करने के लिए कुछ घटित होना जरूरी हो तो हम कहाँ आ गये हैं? इन परिस्थितियों के लिए कौन दोषी है? बच्चे एक पौधे के सामान होते हैं। उन्हें बढ़ते समय हमारे देखभाल की सख्त आवश्यकता होती हैं। अगर हम उन्हें प्यार से सींचेगे तो उनमें प्यार पनपेगा । अगर हम उन्हें तेज हवाओं को सहने के लिए मजबूत बनायंगे तो वे कठिन परिस्थितियों से लड़ना सीखेंगे।
बच्चे एक गिली मिट्टी के सामान हैं। उनका प्रारूप हमारी परवरिश तय करती है । अत: एक सशक्त समृद्ध राष्ट्र के निर्माण के लिए बच्चों का सर्वमुखी विकास बेहद जरूरी है ।
(साभार हिंदी विवेक)